दीपावली के पाँच दिवसीय पर्व में कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आने वाला दिन — नरक चतुर्दशी — सामान्यतः छोटी दिवाली, रूप चतुर्दशी या काली चौदस के नाम से भी जाना जाता है। किंतु यह केवल एक तिथि या रीति नहीं, बल्कि अंधकार से प्रकाश की ओर मानव चेतना की यात्रा का सूक्ष्म बिंदु है। धनतेरस जहाँ आरोग्य का दीप जलाता है, वहीं नरक चतुर्दशी उस दीप की ज्योति को स्थिर और शुद्ध करने का प्रयास है — भीतर के तम का परिमार्जन, और आत्मा के तेज का आह्वान।
पौराणिक दृष्टि से यह दिन असुर नरकासुर के वध से सम्बद्ध है। कहा जाता है कि नरकासुर ने देवताओं, ऋषियों तथा सोलह हज़ार कन्याओं को कारागार में बंद कर रखा था। जब उसका अत्याचार असहनीय हुआ, तब श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ उसका वध किया और सबका उद्धार किया। यह कथा केवल ऐतिहासिक प्रसंग नहीं, बल्कि गहन दार्शनिक प्रतीक है। नरकासुर मानव के भीतर विद्यमान अहंकार, वासना और अज्ञान का रूपक है; कृष्ण चेतना, विवेक और प्रकाश के प्रतीक हैं; और सत्यभामा कर्म और सत्य का संघटन हैं। जब विवेक और कर्म एक हो जाते हैं, तब भीतर का नरकासुर नष्ट होता है, और आत्मा अपने बंदी संस्कारों से मुक्त होती है। यही है नरक चतुर्दशी का सच्चा अर्थ — भीतर के नरक से मुक्ति।
नरक चतुर्दशी को यम चतुर्दशी भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन यमराज की विशेष पूजा की परंपरा है। नरक चतुर्दशी या यम चतुर्दशी से जुड़ी एक प्रसिद्ध कथा राजा हेम (या हरि) और उनके पुत्र से संबंधित है। कहा जाता है कि राजा हेम के पुत्र को जन्म के समय ही यह भविष्यवाणी मिली कि चौदहवें दिन सांयकाल उसे सर्पदंश से मृत्यु प्राप्त होगी। उस दिन राजा ने अपने पुत्र को स्नान कराकर रत्नों से जटित पलंग पर बिठाया, और उसके चारों ओर स्वर्ण, रजत, आभूषण तथा दीपों का पर्वत-सा ढेर लगा दिया। रात्रि में जब यमराज के दूत आए, तो उन दीपों की चमक से वे चकाचौंध हो गए और अपने कार्य का समय चूक गए। इस प्रकार बालक मृत्यु से बच गया। उसी दिन से यमदीपदान की परंपरा प्रारंभ हुई — यह विश्वास लेकर कि जो व्यक्ति इस रात्रि यम के नाम का दीप जलाता है, उसके जीवन में अकाल मृत्यु का भय नहीं आता, और उसका दीप दीर्घायु, आरोग्य व मंगल का प्रतीक बनता है।यह दीप केवल बाह्य ज्योति नहीं, अपितु जीवन-मरण के बीच स्थित चेतना का प्रतीक है। सच ही तो है , मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा का अगला चरण है — और जो प्रकाश भीतर जलता है, वही मृत्यु के अंधकार को पार करा देता है।
इस तिथि को रूप चतुर्दशी भी कहा जाता है, क्योंकि यह बाह्य और आंतरिक सौंदर्य के संतुलन का पर्व है। प्रातःकाल अभ्यंग-स्नान का विधान है — शरीर पर तिल या औषधि मिश्रित तेल लगाकर स्नान करना, जिसे केवल शारीरिक शुद्धि नहीं, बल्कि अंतःकरण की मलिनता के परिमार्जन का प्रतीक माना गया है। स्कन्दपुराण में उल्लेख है —
“अभ्यंग-स्नानं कार्तिके कृष्ण-चतुर्दश्यां नरो यदि।
कुरुते न स नरके याति, धन्यं जन्म ततः स्मृतम्॥”
अर्थात जो व्यक्ति इस दिन अभ्यंग-स्नान करता है, वह नरक के दुःख से मुक्त होता है। इसीलिए इसे “नरक-निवारण चतुर्दशी” भी कहा गया है।
धन्वंतरि जयंती के ठीक अगले दिन आने के कारण यह पर्व आरोग्य और रूप दोनों के संगम का प्रतीक है। एक ओर यह स्वास्थ्य, स्वच्छता और संतुलन का स्मरण , दूसरी ओर सौंदर्य के आध्यात्मिक अर्थ का प्रकटीकरण । वास्तविक रूप केवल देह में नहीं, चेतना में निहित है। जो मन में शुद्ध है, वही मुखमंडल पर तेजस्विता के रूप में प्रकट होता है। इसीलिए इस दिन शरीर के साथ-साथ विचारों और व्यवहार का भी शोधन अपेक्षित माना गया है।
नरक चतुर्दशी को और गहन द्रष्टि से अवलोकित करें तो “नरक” कोई काल्पनिक लोक नहीं, बल्कि मन की एक अवस्था है। जब चेतना तमसिक प्रवृत्तियों — जैसे क्रोध, लोभ, ईर्ष्या और हिंसा — से मुक्त होकर करुणा, संयम और सत्व में स्थित होती है, तभी सच्चा प्रकाश जन्म लेता है। चतुर्दशी का यह क्षण उसी सीमा पर खड़ा होता है — जहाँ अंधकार अपना अंतिम प्रभाव खोता है और प्रकाश की संभावना प्रकट होती है।
आधुनिक जीवन में यह पर्व पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। आज जब प्रदूषण केवल वायु में नहीं, विचारों में भी व्याप्त है; जब तनाव और असंतुलन ने जीवन की गति को विषाक्त कर दिया है, तब यह तिथि हमें आत्म-शुद्धि की ओर लौटने का आमंत्रण देती है। असली अभ्यंग-स्नान अब साबुन या सुगंध से नहीं, संयम और क्षमा से होता है; और असली रूप चमकदार आभूषणों में नहीं, सौम्यता और स्नेह में बसता है। यदि धनतेरस स्वास्थ्य का उत्सव है, तो नरक चतुर्दशी मन के शुद्धिकरण का पर्व है। शरीर से विष, मन से द्वेष और आत्मा से अंधकार का त्याग — यही इस दिन का वास्तविक व्रत है।
इस अवसर पर प्रातःकाल स्नान से पूर्व तिल-तेल से अभ्यंग करें, भगवान धन्वंतरि, श्रीकृष्ण और माता काली की आराधना करें, तथा सायंकाल दक्षिण दिशा में दीप प्रज्वलित करें — यह दीप यमदीप कहलाता है, जो भय और मृत्यु के अंधकार को दूर करने का प्रतीक है। किंतु वास्तव में यह दीप केवल मिट्टी का नहीं, मन का होता है। जब मन में करुणा का दीप जलता है, तो मृत्यु भी भय नहीं रह जाती, वह केवल संक्रमण बन जाती है — एक अवस्था से दूसरी अवस्था की यात्रा।
नरक चतुर्दशी का संदेश सरल किन्तु गहन है —
“नरक कोई लोक नहीं, मन की दशा है। जब मन में ईर्ष्या और मोह है, वही नरक है; जब मन में क्षमा और प्रकाश है, वही स्वर्ग है।”
तिल से तन को शुद्ध करो, क्षमा से मन को निर्मल करो,
दीप से गृह को प्रकाशित करो, और प्रेम से जग को आलोकित करो —
यही है रूप चतुर्दशी का वास्तविक स्वर —
भीतर की सुंदरता, बाहर की रोशनी और आत्मा के आरोग्य का पावन संगम।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
मेरी व्यंग्यात्मक पुस्तकें खरीदने के लिए लिंक पर क्लिक करें – “Girne Mein Kya Harz Hai” और “Roses and Thorns”
Notion Press –Roses and Thorns
संपर्क: [email protected]
YouTube Channel: Dr Mukesh Aseemit – Vyangya Vatika
📲 WhatsApp Channel – डॉ मुकेश असीमित 🔔
📘 Facebook Page – Dr Mukesh Aseemit 👍
📸 Instagram Page – Mukesh Garg | The Focus Unlimited 🌟
💼 LinkedIn – Dr Mukesh Garg 🧑⚕️
🐦 X (Twitter) – Dr Mukesh Aseemit 🗣️