पान-दर्शन शास्त्र
जहाँ पानी जीवन का मूलाधार है, वहीं पान भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का श्रृंगार है। घर की रसोई अधूरी रह जाए तो काम चल सकता है, नेता का भाषण फीका रह जाए तो भी देश बचा रह सकता है, पर बिना पान के हमारी सभ्यता की गाड़ी सीधी पटरी से उतर जाती है। यही कारण है कि हमारे खानपान में “पान” शब्द, ‘खाना’ और ‘पान’—दोनों को समान दर्ज़ा दिलवाता है।
कहते हैं कि किसी शहर की असली पहचान जाननी हो तो मॉल, मेट्रो या फाइव-स्टार होटल मत देखिए—सीधे पान की दुकान पर जाइए। वहाँ से ही आपको शहर की आत्मा मिलेगी।
पुराने ज़माने में पान की दुकानें सूचना केंद्र हुआ करती थीं। कौन किसके साथ भागा, किसके घर इनकम टैक्स का छापा पड़ा, किसका टिकट कटा या किसको मिला, किस मोहल्ले में बिजली गई, क्रिकेट में कौन आउट हुआ, सिबाका गीत माला में कौन-सा गाना नंबर वन है—सबसे पहले खबर मिलती थी पानवाले भैया से। वे ही हमारे धीमी गति के ‘समाचार चैनल’ और देसी ‘गूगल मैप’ थे। मुँह में मसालेदार पान, होंठों से रिसती लालिमा और ज़ुबान पर गपशप का तड़का—इससे ज्यादा भरोसेमंद न्यूज एजेंसी आज तक किसी को नहीं मिली।
राजनीति समझनी हो तो पान की दुकान ही जाइए। मंच से नेता चाहे जितने वादे कर लें, संसद में कितना भी हंगामा हो, पान की गुमटी पर बैठे लोग ही तय करते हैं कि सरकार गिरेगी या चलेगी। चुनावों में पान की लालिमा इतनी हावी रहती है कि लगता है लोकतंत्र की असली स्याही मतपत्र पर नहीं, बल्कि सड़क किनारे थूक की लाल दीवारों पर टपकती नजर आती है।
नेता चाहे कितना बड़ा हो, जनता से दूर रहने वाला जन-नेता ही क्यों न हो, बाल काटने का नाई घर पर ही बुलवा लेगा , पर पान वह अपने बिल्लू, कल्लू, भोला, शोला जैसे स्थानीय पान सेण्टर पर जाकर ही खाएगा।
सोचिए, राजनीति भी किसी पान जैसी ही तो है—वादों का मीठा गुलकंद, धोखाधड़ी का चूना, जातिवाद का कत्था और घोषणाओं की सुपारी लगाकर तैयार किया गया ‘चुनावी पान’, जिसे जनता के मुँह में ठूँस दिया जाता है। जनता चाहकर भी न थूक पाती, न निगल पाती—बस पाँच साल तक चबाती रहती है। और हर पाँच साल बाद फिर से एक नया पान परोसा जाता है।
बचपन में हमें लगता था पान मतलब बस मीठा गुलकंद। सच कहूँ तो हम “पान” इसलिए खाते थे क्योंकि सीधे-सीधे गुलकंद खाने का कोई और बहाना नहीं था। पान मुँह में रखते ही पहली बार पीक को पिचक की मधुर आवाज के साथ थूकने का जो मज़ा आता था, लाल होंठ दिखाने का, ज़ुबान निकाल-निकालकर शेखी बघारने का—वो वैसा ही था जैसे लड़कियाँ अपनी मेहंदी दिखाती हैं। हम गर्व से कहते—“देख, मेरी ज़ुबान ज्यादा लाल है!” तब लगता था पान बस चबाने और थूकने का ही खेल है। बाद में समझ आया कि असली “थूकने वाले पान” वही होते हैं जिनमें कत्था, चूना, जर्दा और किमाम का मिलाजुला असली रंग होता है।
और इन पानवालों की उँगलियों का रंग तो देखिए—इतनी लाल हो चुकी होती हैं कि वे बिना सिंदूर के ही अपनी पत्नी की माँग भर सकते हैं। अगर ये कभी मैनिक्योर करवाने चले जाएँ तो सैलून वाले इन्हें केस-स्टडी बना डालें। कहें—“पंद्रह साल में ऐसा रंग पहली बार देखा है! साहब, यह उँगली नहीं, आत्मा तक लाल हो चुकी है।”
पान-वीर वही हैं, जिन्होंने शहर की गलियों, दीवारों और इमारतों पर अमूर्त पेंटिंग रच डाली। यह कोई साधारण छींटे नहीं थे—यह तो थे भारतीय “पिकासो” की ‘पीक आर्ट !’ विदेशी पेंट कंपनियाँ अरबों-खरबों फूँक दें, पर गली-कूचों का यह मुफ्त “पीक आर्ट” कोई मिटा नहीं सकता।
पान ने आदमी को न सिर्फ़ ‘मिठभाषी’ बनाया, बल्कि उसकी भाषा में शब्दों की फिज़ूलखर्ची पर रोक भी लगाई। पहले जो काम बहस से होता था, अब पानरस ने उसे गले से नीचे दबा दिया। बहस कम हुई, हाथ-पैर ज़्यादा चले। मोहल्ले की लड़ाइयाँ भी एक ऊँचे आयाम पर पहुँच गईं।
पर अफसोस! जैसे पानी बोतलों में कैद हो गया, वैसे ही पान भी पाउच में क़ैद होने लगा। वह मज़ा कहाँ जो कभी “अपना पान लगवाने” में आता था। एक जमाना था जब हर आदमी के चेहरे पर उसके पसंदीदा नंबर का जर्दा लिखा होता था। पान की दुकान पर बिना बोले ही उसकी गिलौरी तैयार हो जाती। महीनों तक खाता चलता था। यहाँ तक कि “भाई का खाता” होना किसी स्टेटस-सिंबल से कम नहीं था।
दारू-वीरों के लिए तो पान घर-गृहस्थी का तारणहार था। चार पैग के बाद एक पान की गिलौरी खुद के मुंह में और फिर दूसरी गिलौरी जेब में डालकर जब वे घर में घुसते तो पत्नी भी बेलन की जगह पानी का गिलास हाथ में लिए मिलती ।
वक्त बदल गया है। चूना अब पान में कम और रिश्तेदारियों से ज़्यादा लगने लगा है। सरकारें भी पनवाड़ी जैसे हो गई हैं—आम जनता पर टैक्स का बोझ लादकर खुला चूना लगाने का हुनर किसी पानवाले से कम नहीं । सुपारी पहले पान में डाली जाती थी, अब दुश्मनों को ठिकाने लगाने के लिए दी जाती है ।
एक बार दिल्ली गया। परांठे वाली गली से निकलते ही पान खाने की इच्छा हुई। रिश्तेदार ने कहा—“चलो, आपको आइस पान खिलाता हूँ।” हम पहुँचे भी नहीं थे कि दुकान से एक उड़ता हुआ हाथ सीधे मेरे मुँह तक पहुँचा—पान मेरी ज़ुबान के नीचे। न कोई बातचीत, न कस्टमाइज़ेशन—जैसे फ़ास्ट-फ़ूड नहीं, फास्ट-पान हो गया हो।
फिर एक बार “फायर पान” खिलाया गया। जलता हुआ पत्ता मुँह में डालते हुए दुकानदार बोला—“खाइए साहब, एसिडिटी ठीक होगी।” मैंने सोचा—“भाई! आँतें ही जल जाएँगी तो एसिडिटी कहाँ से बचेगी?” यह पान से ज़्यादा किसी रियलिटी शो का खतरनाक टास्क लगा ।
हाँ, पान की दुकानें अब भी हैं—गली-चौराहों पर मिल ही जाती हैं। मोहल्ले का संसद भवन भी वही हैं और दोस्तों का सेल्फ़ी प्वॉइंट भी। बस फर्क इतना है कि पहले जहाँ “कुछ मीठा हो जाए” के नाम पर हम पान खाते थे, अब “कुछ वायरल हो जाए” कहकर इंस्टा स्टोरी बनाते हैं।
जाने कहाँ गयी वो सजनियाँ जो ,सैंया के पान खाने पर इठलाती बलखाती गाती थी—पान खाए सैंया हमार..
खैर चलो कुछ जुगाडी दोहे आपकी खिदमत में हाजिर हैं..
पान-दोहे (रहीमन की तर्ज़ पर)
रहिमन पान चबाइए, रंग-रस देई प्राण।
बिन पान की गोष्ठियाँ, बंजर खेत समान।।
पान चबाने बैठिए, भूल जाइए क्लेश।
गुलकंद रस में घुल गया, फोकट का उपदेश।।
बिन पान महफ़िल लगे, सूनी सेज दरबार।
कत्था-चूना संग हुए , जगमग जी का द्वार।।
रहिमन पान चबाइए, खूब लगाओ चूना।
बिन लाली के होठ जैसे, माथा मांग बिन सूना।।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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