धरम पाजी-फ़िर नहीं आएँगे ऐसे “ही-मैन

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 25, 2025 Cinema Review 0

धर्मेंद्र सिर्फ़ परदे के हीरो नहीं थे—वे देहाती मासूमियत, पंजाबी दिलेरी और रोमांटिक चमक का चलता-फिरता रूपक थे। वीरू की टंकी, खेतों की पगडंडियाँ, शोले की गूंज और फ़िल्मी किस्से—सब आज उनकी स्मृति बनकर रह गए हैं। पर कलाकार कभी नहीं मरते, धर्मेंद्र भी नहीं। वे हर मुस्कान में लौट आएँगे।

युद्ध का नित नया बदलता चेहरा

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 25, 2025 Foreign Affair 0

युद्ध का इतिहास दरअसल मनुष्य नहीं, तकनीक की कहानी है। नरमार की भोथरी गदा से लेकर ड्रोन, AI, सैटेलाइट और हाइपरसोनिक मिसाइलों तक—हर दौर में विजेता वही बना जिसने दूर से, सस्ते में और सुरक्षित प्रहार करने की कला सीख ली। युद्धभूमि बदल चुकी है, हम अब भी पुराने सपनों में अटके हैं।

आप तो बस लिखते रहिए..

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 24, 2025 व्यंग रचनाएं 0

“आप लिखते हैं तो लोग आपको क्रांतिकारी समझ लेते हैं—खुद रिमोट बदलने से डरते हैं पर क्रांति की बंदूक आपके कंधे पर रखकर चलाना चाहते हैं। यह व्यंग्य उन लोगों का चश्मा है जो चाहते हैं—बगावत आपकी हो, जोखिम आपका हो… और तमाशा उनका।”

कान-भरैयों का महाग्रंथ :बात आपकी, कथा इनकी—और बीच में कानों की चिल्लम

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 24, 2025 व्यंग रचनाएं 0

“कान-भरैयों की दुनिया बड़ी विचित्र है—ये आधा सुनते, चौथाई समझते और बाकी अपनी कल्पना की दही में फेंटकर ऐसी तड़कती-भड़कती कहानी बना देते हैं कि बेचारा सुनने वाला सोचता रह जाए—‘मैंने तो नमस्कार कहा था, इसमें षड्यंत्र कहाँ से आ गया?’ यह व्यंग्य उन्हीं महापुरुषों का महाग्रंथ है।”

होमबाउंड: ऑस्कर की जुगाली, लॉकडाउन की धूल और सच्चाई का सिनेमा–संग्राम

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 23, 2025 Cinema Review 0

“होमबाउंड एक ऐसी फ़िल्म है जो दो दोस्तों की लॉकडाउन यात्रा के बहाने भारतीय समाज की गहरी परतों—जाति, धर्म, बेरोज़गारी और व्यवस्था—को छूती है। बेहतरीन अभिनय के बावजूद फिल्म कई जगह ऑस्कर-फ्रेंडली एजेंडा और सजावटी दुखों में उलझती दिखती है। पढ़िए एक ईमानदार, रोचक और व्यंग्यात्मक समीक्षा।”

अब मेरा कौन सहारा: देसी इलाज, सरकारी योजनाएँ और छेदी लाल का व्यंग्य

Ram Kumar Joshi Nov 23, 2025 व्यंग रचनाएं 2

सरकारी अस्पताल से बाहर निकलता छेदी लाल सिर्फ़ दवा की कमी से नहीं, टूटी परंपराओं और बदलती नीतियों से भी परेशान है। संधाणा के दिनों से लेकर आरजीएचएस की च्यवनप्राश छूट तक, और अब आयुर्वेदिक दवाओं के कटते नामों से लेकर एलोपैथिक सूची के फैलते आकार तक—उसकी शिकायत में जनता का असली दर्द झलकता है। व्यंग्य का सीधा सवाल यही है कि जब “स्वदेशी” के नाम पर वोट माँगे गए थे, तो देसी दवाओं का गला किस टेबल पर घोंटा जा रहा है?

महाभारत: भारत की सबसे पुरानी मैनेजमेंट हैंडबुक

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 23, 2025 India Story 0

महाभारत सिर्फ युद्ध की कहानी नहीं, बल्कि मानव-व्यवहार, नेतृत्व, रणनीति, कॉन्ट्रेक्ट-मैनेजमेंट, समय-निर्णय और टीम-डायनैमिक्स की सबसे पुरानी केस-स्टडी है। अर्जुन की जिज्ञासा, दुर्योधन का एटिट्यूड, युधिष्ठिर की गलतियाँ और कृष्ण की नेतृत्व-शैली, आज के किसी भी कॉर्पोरेट संगठन पर समान रूप से लागू होती हैं। महाभारत हमें सिखाती है कि प्रश्न पूछना बुद्धिमत्ता है, सही गेम चुनना स्ट्रेटेजी है, समय पर निर्णय लेना दक्षता है, और नेतृत्व का असली रूप प्रतिष्ठा नहीं, ज़मीन पर उतरकर सारथी बनना है।

व्यंग्य का वैश्विक और हिंदी साहित्यिक परिप्रेक्ष्य

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 22, 2025 आलोचना ,समीक्षा 0

पश्चिमी साहित्य में ऑस्टेन, स्विफ्ट, ऑरवेल और हक्सले जिस तीक्ष्ण हास्य से समाज और सत्ता की विसंगतियों को खोलते हैं, वहीं हिंदी में परसाई, शरद जोशी और चतुर्वेदी उसी परंपरा को देसी अंदाज़ में आगे बढ़ाते हैं। व्यंग्य भाषा नहीं देखता—वह मनुष्य की आदतों, पाखंड, लालच, दिखावे और सामाजिक मूर्खताओं पर चोट करता है। यही कारण है कि व्यंग्य वैश्विक भी है और गहरे स्थानीय भी।

गीता, धर्म और सफलता: स्वधर्म से करियर मैनेजमेंट तक

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 22, 2025 Lifestyle 0

श्रीमद्भगवद्गीता का पहला शब्द है “धर्म” और अंतिम “मम” – यानी पूरी कथा इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूमती है कि “मेरा धर्म क्या है?” धर्म यहाँ मजहब नहीं, हमारे मूल गुण, स्वभाव और जिम्मेदारी का नाम है। जब हम भीड़ और ट्रेंड के पीछे भागकर अपना स्वधर्म छोड़ देते हैं, तब बाहर से सफल दिखकर भी भीतर से खाली रह जाते हैं। गीता हमें सिखाती है कि कर्म पर अधिकार रखो, फल को प्रसाद मानो, अपने स्वभाव के अनुरूप काम करो और आज के आनंदित कर्म में ही सच्ची “सफलता” खोजो।

पूँजीवाद की टंकी से फ्लश करता बाजार 

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 21, 2025 व्यंग रचनाएं 0

पूँजीवाद आज हमारे जीवन का रिमोट कंट्रोल बन चुका है। वह तय करता है कि हमें क्या खरीदना है, क्या छोड़ना है और किस चीज़ में ‘स्मार्ट चॉइस’ बनने का भ्रम पैदा करना है। बाजार अब सिर्फ चीजें नहीं बेचता, हमारी कमजोरियाँ, असुरक्षाएँ और आदतें भी खरीद लेता है। हर फ्लश, हर swipe, हर click के पीछे एक पूरा तंत्र सक्रिय है—जो हमें उपभोक्ता से ज्यादा उपलब्ध दिमाग मानता है। इस व्यंग्य में दिखाया गया है कि कैसे एक विशाल टंकी की तरह पूँजीवाद ऊपर बैठा है, और नीचे पूरा समाज उसकी एक हल्की-सी फ्लश से बहने लगता है।