भाग 1
कल्पना कीजिए वह समय, जब हाथ में कलम नहीं, कंधों पर कथा थी; जब ज्ञान कागज़ पर नहीं, स्मृति की नसों में दौड़ता था। वही समय, वही स्वर, वही अनुगूँज है जिसे हम आज ऋग्वेद कहते हैं—ऐसी धरोहर जो लिखे जाने से पहले सुनी गई, गुनगुनाई गई, श्वासों में बसाई गई। श्रुति इसलिए कि यह पहले कानों से गुज़री, फिर पीढ़ियों के हृदय तक पहुँची। स्तुति इसलिए कि यह प्रकृति की अदृश्य शक्तियों के प्रति कृतज्ञता का गीत है—सूर्य की तपिश, वर्षा की बूंद, वायु का स्पर्श, अग्नि की लौ—जहाँ हर घटना एक देवत्व का रूप लेती है और हर मंत्र उस देवत्व से संवाद बन जाता है।
इस विराट संहिता को दस मंडलों में बाँटा गया है, जिनमें हज़ार से अधिक सूक्त और दस हज़ार से ज्यादा मंत्र हैं। कहीं वशिष्ठों की परंपरा है, कहीं विश्वामित्रों की, तो कहीं ऐसे गूढ़ प्रश्न जो सहस्राब्दियों बाद भी ताज़ा लगते हैं। भाषा वैदिक संस्कृत—जीवित, गतिमान, बोलियों की धुन और यज्ञ–वेदी के अनुष्ठानों की गूंज लिए हुए। यही भाषा बताती है कि यह केवल स्तुतियों का गुलदस्ता नहीं, एक जीवित सभ्यता का आईना भी है—घरों के चूल्हों की आग से लेकर सभा–समितियों की बहसों तक, खेतों की जौ की बालियों से लेकर रथों की दौड़ों और पासे के खेलों तक, आदतों, आकांक्षाओं और आशंकाओं का दस्तावेज।
देवता यहाँ सोने के सिंहासन पर विराजमान राजपुरुष नहीं, प्रकृति की मूर्तिमान शक्तियाँ हैं। इंद्र गर्जते बादलों और मुक्त नदियों का साहस हैं—वृत्र के अवरोध को तोड़ती वह कड़क जो सूखे संसार में फिर से बहाव लौटा दे। अग्नि वह सेतु है जो मनुष्यों की आहुति को देवताओं तक ले जाए—यज्ञ–कुंड की लपट, आकाश का सूर्य, बादलों की बिजली और गृहस्थी के चूल्हे की ऊष्मा, चारों रूपों में एक ही अग्नि–तत्त्व। सोम वह रहस्य है जो रस भी है, देवता भी और प्रेरणा भी—कवियों का उन्मेष, ऋषियों का विस्तार, इंद्र का उत्साह। इनके साथ वरुण का ऋत–संरक्षण, सूर्य का सात अश्वों वाला रथ, उषा की गुलाबी देहलीज़, वायु की अनदेखी परिक्रमाएँ, मरुतों का तूफ़ानी दल और सरस्वती का बहता ज्ञान—सब मिलकर एक विश्व–दृष्टि रचते हैं जहाँ प्रकृति के हर रूप में नैतिक और ब्रह्मांडीय अर्थ छिपा है।
यही अर्थ यज्ञ में स्पष्ट होता है। बाहर से देखो तो हवन–कुंड, घी, समिधा, मंत्र—पर भीतर से यह “देव–पूजा, संगति और दान” का त्रिवेणी संगम है। ब्रह्मांड स्वयं एक महायज्ञ है—सूर्य अपनी ऊर्जा की आहुति देता है, मेघ अपना जल, वृक्ष अपने फल; जीवन की शृंखला देने-लेने के संतुलन पर टिकी है। मनुष्य जब यज्ञ करता है, तो वह इसी ब्रह्मांडीय प्रवाह से तादात्म्य करता है—आभार का अर्पण, अहं का विसर्जन, नियत कर्म का संकल्प। अग्नि देवताओं का मुख बनकर आहुति को सूक्ष्म करता है; होता ऋग्वैदिक मंत्रों से आवाहन करता है, अध्वर्यु यजुष के नियमों से क्रिया साधता है, उद्गाता साम की सुरलहरी बुनता है और ब्रह्मा त्रुटि पर दृष्टि रखता है—चारों की सम्मिलित साधना बताती है कि सृष्टि का संगीत टीम–वर्क से ही बजता है।
इसी संगीत की लय को वैदिक ऋषि “रीत” कहते हैं—वह अदृश्य नियम जो दिन–रात, ऋतु–चक्र, नदी–धारा, ध्रुव–तारा और मनुष्यों की नैतिकता तक में एक जैसा काम करता है। सत्य बोलना, वचन निभाना, न्याय करना—रीत; असत्य, छल, शोषण—अनरीत। देवता भी रीत के अधीन हैं, शक्ति वहीं टिकती है जहाँ व्यवस्था का आदर है। यह विचार आश्चर्यजनक रूप से आधुनिक लगता है—कारण–कार्य का नियम, कर्म–फल की समझ, पर्यावरण का संतुलन—सब रीत की ही छाया में हैं। जब हम प्रकृति से जुगाड़ करते हैं, अनरीत के बोझ से समाज और पर्यावरण दोनों बिगड़ते हैं; जब हम प्रामाणिकता और संयम से चलते हैं, रीत का प्रवाह स्वच्छ रहता है।
ऋग्वेद की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह दावा नहीं, दिशा देता है; वह घोषणा नहीं, जिज्ञासा जगाता है। उसकी यात्रा भय और आश्चर्य से शुरू होती है—प्रकृति के सामने विनम्र विस्मय—और धीरे-धीरे विवेक, अनुशासन और नैतिकता के सहारे उस प्रश्न–कुंड के पास लाती है, जहाँ सृष्टि, चेतना और परम–कारण पर सबसे बड़े सवाल उठते हैं। आह्वान यह कि आस्थाएँ हों, पर आलस्य न हो; परंपरा हो, पर प्रश्न भी हो; अनुष्ठान हो, पर आत्मा का व्याकुल संगीत भी। यही व्याकुलता अगले पड़ाव पर हमें उस सूक्त तक ले जाती है, जिसके सामने दार्शनिकों और वैज्ञानिकों की आँखें आज भी ठिठक जाती हैं—जब न “था” था, न “न था”; जब नाम भी नहीं थे, रूप भी नहीं थे; जब पहला कंपन भी अभी जन्म नहीं लिया था। वहाँ से ऋग्वेद अपना सबसे निर्भीक प्रश्न उठाता है, और हम अगले भाग में उसी साहस की आग के पास बैठते हैं।

भाग 2
वह दृश्य जहाँ शब्द रुक जाते हैं, वहीं से नासदीय सूक्त बोलना शुरू करता है—न सत, न असत; न ऊपर का आकाश, न नीचे की पृथ्वी; न मृत्यु, न अमरत्व; न रात, न दिन—बस एक अंधकार, जो दूसरे अंधकार से ढका हुआ। मन की आदत है द्वंद्व में सोचना—या तो है, या नहीं—पर यह सूक्त उस “पहले” को छूता है जो होना–न–होना की भाषा के बाहर है। और फिर एक चिंगारी—कामः—इच्छा का प्रथम स्पंदन, मन का प्रथम बीज। अस्तित्व की पहली चाह, सृजन का पहला झोंका। यह विधान किसी बाह्य हुक्म से नहीं, भीतर की तृष्णा से शुरू होता है—एक मौन आग्रह कि “होऊँ”—और इसी से विस्तार, क्रम, नियम, रूप और विविधता फूटती है। किंतु कवि यहाँ भी दावा नहीं करता; कहता है—कौन जाने? देवतागण भी रचना के बाद आए, तो आरंभ का रहस्य किसे ज्ञात? जो सर्वोच्च है, वह भी शायद न जानता हो। यह विनम्रता ज्ञान का शिखर है—स्थिर निष्कर्ष के बदले साहसी प्रश्न; श्रद्धा के साथ सत्य के लिए असहज ईमानदारी।
इस दर्शन की धरती पर लौटें तो एक जीता-जागता समाज दिखता है—ग्रामों की बसावट, पशुपालन की रीढ़, जौ की बालियाँ, रथों की भनभनाहट, पासे के खेल में हारी रात का विलाप, सभा-समिति की सलाह, राजन का कर्तव्य। परिवार पितृसत्तात्मक है, पर स्त्रियों की शिक्षा और यज्ञ में साझेदारी दिखती है—लोपा मुद्रा, घोष, अपाला जैसे नाम बताते हैं कि वाणी और विद्या का वरण केवल एक लिंग का अधिकार नहीं था। भोजन में यव, दुग्ध, घी, फल–सब्ज़ी; वस्त्र सूत और ऊन; रसानुभूति में सोम—धार्मिक प्रसंगों का तेजस्वी रस। पुरुष–सूक्त का रूपक चार वर्णों को कर्म–आधारित दायित्व की तरह रखता है—मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य, पाद से शूद्र—एक जीवित देह का श्रम–विभाजन, जिसमें ऊँच-नीच का दंभ नहीं; बाद के युगों का कठोर जाति–रूप इसी मूल लचीलेपन का अवसाद है।
सोम का रहस्य इस समाज की आध्यात्मिक बेचैनी का संकेत है। पर्वतीय झाड़ों से कूटकर निकला वह स्वर्णाभ रस—ऊन से छना, दुग्ध–दधि से मिला—पीने वाले को उन्मेष दे, भय भंग करे, अंतर्बोध जगाए। कोई उसे औषधियों का राजा कहे, कोई चंद्र–मंडल से जोड़ दे; आधुनिक मतों में वह कभी एफेड्रा बन जाता है, कभी अमानिटा मस्केरिया, या फिर बहु–घटक पेय। पर ऋग्वेद का संकेत साफ़ है—सोम का सत्य उसके रसायन में कम, उसके प्रतीक में अधिक है—वह भीतर के अमृत का रूपक है, वह चेतना के प्रस्फुटन का माध्यम है। बाहरी रस तभी सार्थक है जब भीतर का स्रोत खुलता है; वरना अनुष्ठान सुखद, पर सतही रह जाते हैं।
यही भीतर की दिशा हमें उस वाक्य तक लाती है जिसने भारतीय दर्शन का मेरुदंड गढ़ा—एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति। सत्य एक—नाम अनेक। अग्नि, यम, मातरिश्वन—भिन्न उपाधियाँ, पर वही एक तत्त्व; जैसे सोना कंगन, हार, अंगूठी बनकर रूप बदलता है, किंतु मूल सुभाव नहीं छोड़ता। ऋग्वेद का मन बहुदेवता–स्तुति से हेनोथिज़्म की सीढ़ी चढ़ता है और फिर उस एक तत्त्व की दहलीज़ पर पहुँचता है जहाँ सगुण–निर्गुण, नाम–अनाम, रूप–अरूप—सब एक ही दिशा में इशारा करते हैं। यही बीज आगे उपनिषदों में हिरण्यगर्भ, विश्वकर्मा, प्रजापति, तत् एकम् की सरीखी संकल्पनाओं में वृक्ष बनता है, और अंततः अद्वैत के वन में फैल जाता है। नासदीय सूक्त इसी सत्य की कगार पर खड़ा होकर कहता है—शायद कोई नहीं जानता—और यही अनिश्चितता हमारे भीतर जानने का साहस जगाती है।
अब प्रश्न यह कि तीन सहस्राब्दियों पुराना यह सागर आज किस काम का? उत्तर उतना ही सीधा है जितना कठिन—हमने प्रकृति से रिश्ता खोया, ऋग्वेद उसे फिर जोड़ता है; हमने प्रश्न करने की आदत छोड़ी, वह उसे फिर जगाता है; हमने विविधता को संघर्ष में बदला, वह उसे समरसता में बदल देता है। नदी माँ है, पृथ्वी देवी, सूर्य पिता—यह केवल काव्य नहीं, एक नैतिक अर्थव्यवस्था है जिसमें उपभोग का हर अंश उत्तरदायित्व की आहुतियों से संतुलित होता है। रीत हमें बताती है कि झूठ, शोषण, अपव्यय अनरीत हैं—इनका फल देर–सवेर प्रदूषण, ऊष्णता, असमानता के रूप में लौटेगा। एकं सत् हमें सिखाता है कि रास्ते भले भिन्न हों, मंज़िल एक है—इसलिए असहमति दुश्मनी नहीं, संवाद का निमंत्रण है। नासदीय का साहस हमें चेतावनी देता है कि ज्ञान का पहला कदम “मुझे नहीं पता” कहना है—वहीं से खोज शुरू होती है, वहीं से विज्ञान उठता है, वहीं से अध्यात्म नम्र बनता है।
यही कारण है कि ऋग्वेद केवल संग्रहालय नहीं, कम्पास है। यह बताता है कि यज्ञ का केंद्र बाहर का कुंड नहीं, भीतर का अहं–अर्पण है; कि समृद्धि का अर्थ केवल संचय नहीं, समर्पण भी है; कि साधना का लक्ष्य पलायन नहीं, सजग सहभागिता है—परिवार, समाज, प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ। और अंततः यह कि सत्य के नाम अलग हो सकते हैं, पर सत्य की रोशनी एक ही है—जो सुबह उषा में खिलती है, जो अग्नि में नाचती है, जो सरस्वती की धारा में बोलती है, जो मन के सबसे एकांत कक्ष में, प्रश्न बनकर, इच्छा बनकर, आहुतियों की गर्मी और ज्ञान की शीतलता बनकर पुकारती रहती है। इसी पुकार को सुनना, इसी को जीवन बनाना, शायद ऋग्वेद से हमारी सबसे बड़ी सीख है—और इसी में आज की दुनिया का सबसे सादा, सबसे साहसी समाधान भी छिपा है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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