किताबें, पत्रिकाएँ, पैंफ्लेट — ये केवल शब्दों के संग्रह नहीं, बल्कि समय के साक्षी होते हैं। वे विचारों को स्थायित्व देते हैं, भावनाओं को दिशा देते हैं और समाज के भीतर एक नई चेतना जगाने की शक्ति रखते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए साहित्य केवल प्रचार का माध्यम नहीं, बल्कि उसकी आत्मकथा का विस्तार है। यह वह धारा है जो उसकी शाखाओं, उसके प्रशिक्षणों, उसके कार्यकर्ताओं और उसके सामाजिक स्वप्नों को जोड़ती है। हर पुस्तक, हर पंक्ति, हर उद्धरण मानो एक “स्वयंसेवक” की तरह खड़ा है—अनुशासित, जागरूक और विचारशील।
संघ का साहित्य विविध रूपों में प्रकट होता है। कहीं यह मोटे ग्रंथों में है, जैसे “श्री गुरुजी समग्र” या “Bunch of Thoughts”, जहाँ गोलवलकर गुरुजी ने संघ की आत्मा को शब्द दिए हैं; तो कहीं यह साप्ताहिक पत्रिकाओं में है जैसे “पंचजन्य” या “ऑर्गनाइज़र”, जो समसामयिक घटनाओं को संघ के दृष्टिकोण से जोड़ती हैं। यही साहित्य शाखाओं में गाए जाने वाले गीतों, बाल-शाखाओं में पढ़े जाने वाले प्रसंगों और स्वयंसेवकों के प्रशिक्षण पुस्तकों तक फैला है। यह सिर्फ वैचारिक दिशा नहीं देता, बल्कि एक जीवनशैली रचता है—संघ का “जीवनदर्शन”।
इन पन्नों में जो भाव है, वह किसी राजनीतिक घोषणा जैसा नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक साधना का भाग है। गोलवलकर जब कहते हैं कि “भारत की आत्मा हिंदुत्व में बसती है”, तो यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि संघ के समूचे विचार-विश्व का बीजवाक्य बन जाता है। इन ग्रंथों में पश्चिमी व्यक्तिवाद की आलोचना है, परिवार और समाज के प्रति निष्ठा का आग्रह है, और राष्ट्र को एक जीवंत मातृभावना के रूप में देखने का दर्शन है। इन पंक्तियों में कहीं उपदेश है, कहीं अनुभव, और कहीं एक आध्यात्मिक भाव—जो किसी संगठन से आगे बढ़कर संस्कृति का रूप ले लेता है।
पर संघ का साहित्य केवल “अपने कहे” तक सीमित नहीं रहा। इसके समानांतर एक विशाल आलोचनात्मक साहित्य भी विकसित हुआ—जो इन विचारों को प्रश्नों के कठघरे में लाता है। “The Brotherhood in Saffron” जैसे ग्रंथों ने संघ के संगठनात्मक ढाँचे को समझने का प्रयास किया, जबकि “Republic of Hindutva” ने यह बताया कि समय के साथ संघ किस तरह बदलता रहा—कभी एकांत संगठन से सार्वजनिक विमर्श में, कभी केवल शाखाओं से डिजिटल संवाद तक। वहीं “I Could Not Be Hindu” जैसी आत्मकथाएँ संघ के भीतर झाँकने की हिम्मत दिखाती हैं—जहाँ आदर्श और व्यवहार के बीच का अंतर दिखाई देता है। इस तरह यह पूरा साहित्य, समर्थक और आलोचक दोनों के रूप में, भारतीय सामाजिक विमर्श का अभिन्न हिस्सा बन गया।
संघ के साहित्य की शक्ति उसकी भाषा में है—वह संयमित है, प्रेरक है, परंतु भावनात्मक भी है। उसमें आदेश है, पर करुणा भी है; वह एक दिशा देता है, पर साथ ही आत्मसंयम की सीख भी। वहीं आलोचनात्मक पुस्तकों की भाषा विश्लेषणात्मक, प्रश्नाकुल और कभी-कभी तिक्त होती है, क्योंकि वे सत्ता या विचार के भीतर झाँकने की कोशिश करती हैं। लेकिन इस विरोध में भी संवाद की ऊर्जा है—एक विचार तभी परिपक्व होता है जब वह अपनी आलोचना को सह सके।
इस साहित्य का सबसे बड़ा उद्देश्य केवल “विचार प्रसार” नहीं, बल्कि विचार की निरंतरता बनाए रखना है। देश के कोने-कोने में फैली शाखाओं में एक जैसी सोच, एक जैसी अनुशासन की परंपरा बनाए रखना आसान नहीं होता—यह साहित्य उस साझा चेतना का माध्यम बनता है। जब कोई नया स्वयंसेवक पहली बार शाखा में आता है, तो उसे जो पहली पुस्तक दी जाती है, वह केवल अध्ययन के लिए नहीं, बल्कि एक आत्मीय दीक्षा जैसी होती है। ये पंक्तियाँ उसे एक बड़े उद्देश्य का हिस्सा बना देती हैं, जैसे हर शब्द में “सेवा”, “संघर्ष” और “संस्कार” एक साथ सांस लेते हों।
संवाद, आलोचना और नए युग की चुनौतियाँ
यह भी सच है कि इन पुस्तकों को हमेशा सहमति नहीं मिली। कई बार इन्हें प्रचार सामग्री कहकर नकारा गया, तो कई बार इन्हें वैचारिक अनुशासन का आदर्श बताया गया। लेकिन साहित्य की खूबसूरती ही यही है कि वह किसी एक निष्कर्ष पर रुकता नहीं—वह विचार के बीज बोता है, जिससे संवाद की नई शाखाएँ निकलती हैं। संघ का साहित्य भी यही करता है—वह सहमति और असहमति दोनों को आमंत्रित करता है। जहाँ गोलवलकर जैसे विचारक परंपरा के पुनर्जीवन की बात करते हैं, वहीं आलोचक आधुनिकता की अनिवार्यता की याद दिलाते हैं। यह टकराव नहीं, बल्कि भारतीय बौद्धिकता की जीवंतता है।
समय के साथ यह साहित्य भी बदला है। अब यह केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं—डिजिटल रूप में, वेबसाइटों, ई-पत्रिकाओं और ई-पुस्तकों के माध्यम से युवाओं तक पहुँच रहा है। “सुरुचि प्रकाशन” जैसे मंच संघ के नए विचार-विस्तार का हिस्सा बन चुके हैं। विषय-वस्तु भी बदल रही है—अब इसमें दलित, महिला, पर्यावरण, ग्राम विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे नए विमर्श शामिल हैं। संघ यह समझ चुका है कि विचार तभी जीवित रहता है जब वह समय के साथ संवाद करता रहे।
फिर भी, कुछ सीमाएँ हमेशा बनी रहती हैं—संगठनात्मक अनुशासन के कारण कई बार विविध दृष्टियाँ जगह नहीं पा पातीं। आलोचनात्मक समीक्षा का अभाव साहित्य को एकतरफा बना सकता है, और यह खतरा किसी भी विचार संगठन के साथ जुड़ा रहता है। लेकिन यही चुनौती उसे आत्ममंथन की दिशा भी देती है। शायद इसीलिए आज संघ के भीतर भी “आत्मालोचना” की भाषा धीरे-धीरे जन्म ले रही है—वह अब केवल दूसरों को समझाने वाला संगठन नहीं, बल्कि खुद को समझने की कोशिश करता हुआ समुदाय बन रहा है।
अंततः, संघ का साहित्य भारतीय समाज की एक जीवंत गाथा है—जहाँ विचार और कर्म, परंपरा और प्रयोग, सहमति और असहमति, सब एक साथ चलते हैं। यह केवल इतिहास नहीं, बल्कि इतिहास बनने की प्रक्रिया है। इसे पढ़ते हुए पाठक को यह समझना चाहिए कि किसी विचारधारा के साहित्य को समझने का अर्थ केवल “जो लिखा है” पढ़ना नहीं, बल्कि “जो लिखा नहीं गया” उसे भी महसूस करना है। क्योंकि शब्द केवल विचार नहीं कहते, वे मौन की गहराइयाँ भी दिखाते हैं।
संघ का साहित्य, चाहे वह अनुशासन सिखाए या विरोध आमंत्रित करे, अंततः उस विशाल भारतीय मानसिकता का हिस्सा है जो निरंतर खोज में है—अपने अस्तित्व, अपने अर्थ और अपने दायित्व की। यही इसकी असली शक्ति है, और यही इसकी स्थायी प्रासंगिकता।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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