हँसी के बाद उतरती चुप्पी: व्यंग्य का असली तापमान
बहुत लोगों को लगता है कि व्यंग्य बस हँसाने की चीज़ है—जैसे चुटकुलों को प्लेट में परोसकर सामने रख दिया जाए , लोग खिलखिला लें, ताली बजा दें और काम ख़त्म। मुझे लगता है यही सबसे बड़ा भ्रम है। अगर सिर्फ हँसाना ही मक़सद हो, तो फिर ठिठोली, मिमिक्री, मीम,स्टैंड अप और रील ही काफ़ी हैं, व्यंग्य की क्या ज़रूरत है? व्यंग्य की असली ज़रूरत वहीं से शुरू होती है जहाँ हँसी के बाद थोड़ी-सी चुप्पी उतरती है, और चुप्पी के भीतर एक सवाल सिर उठाता है – “ क्या सच में, हम ऐसे हैं?”
मेरी समझ में व्यंग्य साहित्य की सबसे कठिन विधा इसलिए है कि इसमें लेखक को दो काम एक साथ करने होते हैं – सामने वाले को हँसाना भी है और भीतर से हल्का-सा घायल भी करना है, बिना खरोंच करे । एक तरफ़ भाषा, शैली, वाक्य-विन्यास का जादू चलाना है, दूसरी तरफ़ विचार की गहराई भी बनाए रखनी है। सिर्फ चौड़ाई से काम नहीं चलता; व्यंग्य की असली ताकत उसकी गहराई है। ऊपर से चमकदार, भीतर से खोखला व्यंग्य उतना ही बेकार है जितना अस्पताल में लगा शो-पीस स्टेथोस्कोप, जो सिर्फ दिखने में अच्छा लगता है, मरीज़ पर काम नहीं आता।
मुझे लगता है, व्यंग्यकार का पहला कर्तव्य अपनी ही संवेदना को ज़िंदा रखना है। आदमी जितना ज़्यादा दुनिया देखता है, उतना ही उसके भीतर की कोमलता कुंद होने लगती है। पहली बार कोई भूखा बच्चा सड़क पर दिखे तो दिल भर आता है, दूसरी बार हल्की-सी टीस होती है, तीसरी बार हम सोचते हैं – “चलो, ये तो रोज़ का सीन है।” संवेदना धीरे-धीरे मोटी चमड़ी में बदल जाती है। व्यंग्यकार का काम है इस मोटी चमड़ी को रोज़ थोड़ा-थोड़ा घिसते रहना, ताकि भीतर की नरमी, भीतर की जलन, भीतर की बेचैनी बची रहे। क्योंकि व्यंग्य वहीं से निकलता है जहाँ किसी विसंगति को देखकर भीतर का आदमी कह उठता है – “ये ठीक नहीं है, और मैं इसे सिर्फ चुपचाप देख नहीं सकता, मुझे इस पर हँसते-हँसते सच बोलना होगा।”
एक और बात जो मेरी समझ में व्यंग्य की मूल शर्त है – लेखक चौबीस घंटे ही लेखक रहे। यह नहीं कि सुबह से शाम तक डॉक्टर, व्यापारी, अफ़सर, पिता, पति, नागरिक, ग्राहक बने रहें और फिर रात को दो घंटे कुर्सी पर बैठकर अचानक व्यंग्यकार बन जाएँ। व्यंग्यकार होना कोई वीडियो एडिटिंग का फ़िल्टर नहीं जो ज़रूरत पड़ने पर चेहरा बदल दे। वह तो एक तरह की स्थायी नज़र है, जो हर स्थिति को, हर चेहरे को, हर संवाद को थोड़ा-सा तिरछी आँख से देखती रहती है। बच्चा भी कोई मासूम-सा सवाल पूछे तो व्यंग्यकार के भीतर एक घंटी बजती है—शायद ये अगली रचना का विषय है। किसी नेता का बयान हो, टीवी डिबेट हो, अस्पताल का बिल हो, राशन की दुकान की लाइन हो या परिवार की बैठकी—हर जगह कोई न कोई विसंगति दिखाई देती रहती है।
मेरे लिए व्यंग्य एक तरह की “आँख की ऊँचाई” भी है। अगर आप ज़मीन पर लेटकर दुनिया देखेंगे तो आपको सिर्फ पैरों की धूल दिखेगी, ऊपर उठकर देखेंगे तो चेहरों के भाव दिखेंगे, और थोड़ा और ऊपर जाएँगे तो पूरा परिदृश्य दिखेगा। संवेदना और दृष्टि का भी यही नियम है। जितना भीतर से ऊँचे उठेंगे, उतना ज़्यादा दूर तक देख पाएँगे। व्यंग्यकार की कोशिश यह होनी चाहिए कि वह सिर्फ सामने की घटना न देखे, उसके पीछे का कारण भी देखे, और उसके पीछे छिपी मानसिकता भी पकड़ ले। व्यंग्य सिर्फ “क्या हो रहा है” नहीं पूछता, वह यह भी टटोलता है कि “ऐसा क्यों हो रहा है” और “ऐसे होने पर हमें शर्म क्यों नहीं आ रही।”
आज के समय में व्यंग्य की एक और कठिनाई है। पहले जो बातें कल्पना, फैंटेसी या अतिशयोक्ति में कही जाती थीं, वे आज की हेडलाइन बनकर हमारे सामने खड़ी हैं। जो बातें कभी कहानियों में डकैत, माफ़िया, बेईमान अफ़सर, धूर्त नेता के बारे में लिखी जाती थीं, वे आज खुलेआम प्रेस कॉन्फ़्रेंस में, चुनावी भाषण में, सोशल मीडिया पोस्ट में नज़र आती हैं—बिना किसी संकोच के, बिना किसी झेंप के। पहले व्यंग्यकार कपड़े खिसकाकर पाखंड दिखाता था, अब तो व्यवस्था ने खुद ही सब उतारकर कह दिया है – “देखिए, यही हैं हमारे असली हकीकत ,असली औकात ।” अब प्रश्न यह है कि नंगेपन पर व्यंग्य कैसे लिखा जाए? किस चीज़ को बेनक़ाब किया जाए जब बेशर्मी गर्व बन चुकी हो? हम खड़े हैं जहाँ हमाम में वहां सभी नंगे हैं l
इसीलिए आज का व्यंग्य सिर्फ चुलबुला, हल्का-फुल्का, त्वरित प्रतिक्रिया वाला नहीं चल सकता। तात्कालिक प्रतिक्रिया तो हर कोई दे देता है – दो मिनट में सोशल मीडिया पर पोस्ट, दो सौ लाइक, बीस कमेंट और मामला ख़त्म। यह तत्कालिकता व्यंग्य नहीं, बस त्वरित मनोरंजन है। सही व्यंग्य वह है जो पोस्ट की तरह नहीं, घाव की तरह थोड़ी देर बाद दर्द दे। पढ़ते समय हँसी आए, पर किताब बंद करने के बाद विचार भीतर उबलने लगें। दो दिन बाद भी कोई प्रसंग याद आए और हम खुद को पकड़ लें – “अरे, मैं भी तो वही कर रहा हूँ ,वही देख रहा हूँ ,वही भोग रहा हूँ जिस पर कल मैं हँस रहा था।”
मेरी नज़र में व्यंग्य एक तरह का नैतिक विलास नहीं, नैतिक व्याकुलता है। इसका मक़सद सिर्फ दूसरों पर हँसना नहीं, खुद पर भी हँसना है। असली व्यंग्यकार पहले अपने ही समाज, अपने ही वर्ग, अपने ही पेशे, अपने ही मोहल्ले और आख़िर में खुद पर व्यंग्य करता है। अगर लेखक अपने को ही सुरक्षित ज़ोन में रखकर सिर्फ दूसरों पर तीर चलाता रहे, तो वह शुद्ध व्यंग्य नहीं, सुविधाजनक कटाक्ष रह जाता है।
व्यंग्य की एक और महत्वपूर्ण कसौटी मेरे लिए यह है कि उसमें “लिफ़ाफ़े ” से ज़्यादा “पत्र ” की चिंता हो। लिफाफा यानी भाषा, शैली, शब्दों का चमत्कार, तुकबंदी, शिल्प, विनोद—ये सब ज़रूरी हैं, पर ये केवल साधन हैं। पत्र के मजमून को खूबसूरती प्रदान कर सकते हैं ,पत्र को पढने के लिए आकर्षित कर सकते हैं l असली बात यह है कि उस शिल्प में कौन-सा विचार बैठा है। अगर आपकी भाषा बहुत चमकदार है लेकिन विचार हल्के हैं, गहरे नहीं हैं, तो वह व्यंग्य नहीं, बस वाक्पटुता का प्रदर्शन है। अच्छी व्यंग्य रचना वही है जिसमें शैली पढ़ने वाले को बाँध ले, पर अंत में उसे विचार के सामने छोड़ दे।
और हाँ, एक बात और। व्यंग्य मनोरंजन के लिए नहीं, संतोष के लिए लिखा जाना चाहिए—लेखक के भी और पाठक के भी। लेखक लिखकर अंदर से हल्का महसूस करे, कि उसने जो देखा, जो महसूस किया, वह ईमानदारी से कह दिया। पाठक पढ़कर हँसे भी, पर भीतर कहीं थोड़ा-सा असहज भी हो, थोड़ा-सा समृद्ध भी हो—कि “आज मुझे कुछ नया देखने की आँख मिली है।” अगर पढ़कर सिर्फ ‘मज़ा’ आए और कुछ भी बदलता न लगे—न सोच, न नज़र—तो वह व्यंग्य अधूरा है।
अंत में, मेरी समझ में व्यंग्य कोई हथियार नहीं कि सिर्फ चोट पहुँचाने के लिए उठाया जाए, यह एक तरह का चिकित्सीय उपकरण है—जो समाज की नाड़ी टटोलता है, एक्स-रे निकालता है, और हँसी के एनेस्थीसिया में सच की सर्जरी कर देता है। जो व्यंग्य मुस्कुराहट दे पर पर्दा न उठाए, वह अधूरा है। और जो पर्दा उठाए पर मुस्कुराहट न दे, वह भी कुछ कम नहीं, पर उसका नाम शायद “लेख” हो, “उपदेश” हो—व्यंग्य नहीं।
मेरी अपनी छोटी-सी, सीमित-सी समझ यही कहती है:
व्यंग्य वही जो पढ़ते समय हँसाए,
किताब बंद करने पर परेशान करे,
और जीवन में धीरे-धीरे कुछ बदलने की खुजली छोड़ जाए।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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