इन दिनों जूता बोल रहा है, जमकर बोल रहा है l टीवी, सेमिनार, संसद, कॉन्फ़्रेंस, यहाँ तक कि न्यायालय में भी शो-टाइम अब शू-टाइम में बदल गया है l
जूतों की इस महिमा को नज़रअंदाज़ करना लगभग मुश्किल हो रहा है l इसके प्रकोप को थोड़ा शांत करने के लिए जूता-पुराण का विधिवत आख्यायन ज़रूरी हो गया है l
जूते आज के इंसान की असली पहचान हो गए हैं l इसी लिए जूते-चप्पल जो पहले आँगन में ही खोले जाते थे, आजकल बेडरूम तक चले आते हैं l मेहमाननवाज़ी में खुद को शरीक करने के लिए जी l आधुनिक ज़माने में बैठक, किचन और बाथरूम की फर्श की टाइल भी एंटी-स्किड लगाई जाती है, जो इन जूते-चप्पलों के स्पर्श से प्रफुल्लित होकर फिसले नहीं, बल्कि इनके प्रति अपने अपार स्नेह को दर्शाती हुई इनसे चिपकी रहे l
खैर, मेरे लिए ये कोई खुशी की बात नहीं हो सकती, ख़ासकर जब मैं खुद अस्थि-रोग विशेषज्ञ हूँ l अब ज़्यादा खुलासा नहीं करूँगा, आप समझ ही गए होंगे l
वो जमाना और था जब प्रेमचंद के फटे जूते से प्रेमचंद की व्याख्या नहीं हो सकती l आजकल तो सबसे पहले ध्यान ही लोगों के जूतों प् जाता है l लोग जूतों से आए हुए मेहमान की पहचान करने में देर नहीं करते lहाँ मित्र, लेकिन हम कहेंगे कि देखना है तो उसके जुराब देखो l आप ध्यान से देखेंगे तो 80 प्रतिशत लोगों के जुराब मैचिंग के नहीं मिलते l ज़्यादातर ये शादीशुदा आत्माएँ होती हैं l इनके बेमेल जोड़े की तरह इनके जुराब भी बेमेल मिलेंगे l इनका दुख इसी बात का होता है कि जब जुराब इतनी जल्दी तलाक लेकर गड़-भकेला कर लेते हैं (मुझे दूसरा शब्द यहाँ नहीं सूझा, अगर किसी को समझ में नहीं आया तो मुझे कमेंट में बताएँ) l ऐसा वैवाहिक जीवन में क्यों नहीं होता, जहाँ खुद की बीवी भी दूसरों की बीवियों के साथ गड़-भकेला हो जाए l जी, पति का पतित -मन है ना, इसकी व्यथा कोई नहीं समझ सकता l
दूल्हे के जूते जो कभी सालियों के लिए बड़े प्यारे होते थे, बड़े प्यार से जूता-छुपाई का खेल होता , और दूल्हा भी इंतज़ार करता है कि उसके जूते चुरा लिए जाएँ l एक गर्व-भरी मुस्कान अपने दोस्तों पर फेंकता है, रोब जमाते हुए — “मित्र, सिर्फ घरवाली ही नहीं मिली, साथ में जूते चुराने वाली सालियाँ भी मिलीं l”
जूते-चप्पलों और मंदिरों का विशेष उल्लेख पौराणिक काल से ही मिलता है l शायद इस पुराण की प्रतिलिपियाँ या तो चुरा ली गईं या इतिहास में कहीं दफ़न हो गईं l कहते हैं ना, मंदिर इकॉनमी भारत में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है — और उसमें योगदान जूते-चप्पल चुराई का भी है l लेकिन भारतवासी तो वैसे भी जुगाड़ी आदमी हैं ना l उन्हें ये एक प्रकार से वरदान-सा साबित होता है जब अपनी पुरानी फटी जूती-चप्पलों के बदले नई जोड़ी उठा लाते हैं l
मंदिरों में जूते-चप्पल बाहर ही उतरने का रिवाज़ चला आ रहा है l आजकल जिस प्रकार से जूतम-पैजार और जूतम-फेंकाई अन्य मंदिरों — मसलन संसद (राजनीति का मंदिर), न्यायालय (न्याय का मंदिर) — में हो रही है, हो सकता है कल यहाँ भी जूते-चप्पल बाहर ही उतरवा लिए जाएँ l
हमारा तो, मित्र, बचपन में ही चप्पलों से अपना खासा नाता रहा है l घर से बाहर मटरगश्ती में मशगूल हमें पता ही नहीं चलता था कि कब हमसे जलने वाली हमारी पड़ोस की काकी हमारी शिकायत घर पर कर आतीं और हमें चप्पलों से पीट-पीटकर गली में हमारी नुमाइश के साथ घर में ले जाया जाता l और जब हम रोने लगते तो उसका इलाज भी चप्पलों से पिटाई ही था, ताकि हम चुप हो सकें l एक की पिटाई होती तो बाकी तीन भाई-बहन उस दिन सतर्क हो जाते l
बचपन में हमने अपनी चप्पलें बड़ी संभाल के रखीं l जैसे ही हमारी मनपसंद बाटा की चप्पल आती, उनमें अंगूठा फँसाकर आज के अल्लू अर्जुन के ‘श्रीवल्ली’ वाले डांस-स्टेप करते नज़र आते l चप्पलों का बड़ा ख़याल रखते थे l कहीं ज़मीन पर बैठना पड़े तो चप्पलें अपने नीचे ही बिछा लेते l इस प्रकार जाजम-बिछौने का काम भी हो जाता और चप्पलों की सुरक्षा भी हो जाती l मजाल जो कोई चप्पल चुरा ले हमारी l
“तनी” (मुझे कोई दूसरा शब्द पता नहीं चला) टूटने पर उसे लकड़ी की तीली से चप्पल के छेद में घुसाना भी एक विशेष कला थी, जिसमें हमारी मम्मी ने हमें पारंगत कर दिया था l कई बार नीचे तनी के एंड वाला चौड़ा सिरा टूटने पर चप्पल की तनी को सेफ्टी पिन के ज़रिए बाँध लेते, और इस प्रकार चप्पल हमारा साथ नहीं छोड़ती थी l बहुत दिन तक चप्पलें अपनी दयनीय हालत की गुहार पापा से लगाए रखतीं, तब जाकर कहीं एक नई जोड़ी तनी बाज़ार से आती, और इस प्रकार चप्पल अपने नए तनी को पाकर इठलाती-इतराती वापस हमारे पैरों की शोभा बढ़ाती l
प्रेमचंद के फटे जूते जिनका विशेष वर्णन हरिशंकर परसाई की रचना में मिलता है, रील बनाने वालों को देख रहा हूँ, इस पर कभी ध्यान नहीं गया उनका l फटे कपड़े या खुले कपड़े या बिना कपड़ों की संवेदनशील प्रदर्शन से रील को हजारों लाइक्स मिल सकते हैं, उनसे निवेदन है कि एक बार फटे जूते और चप्पलों से भी ट्राय करें, शायद उनके लाइक्स-फॉलोवर्स बढ़ जाएँ l
अब देखिए न, आलू अर्जुन की चप्पल ने कमाल दिखाया न! पूरे देश में लोग टूटी चप्पलें ढूँढने लगे या अपनी चप्पलों को विंटेज लुक देने के लिए उनके साथ छेड़खानी करने लगे l
चप्पल-जूते भी अपनी चपलता और चंचलता कभी नहीं छोड़ते l जब नेताजी हों या बॉस हों, इनके पैरों में धारित होते हैं तो एक अलग ही आभा नज़र आती है, जो इनके चापलूसों को सदैव आकर्षित करती है और वे ललायित रहते हैं — चप्पलों को अपने माथे से लगाने के लिए, चूमने के लिए l
एक अधिकारी जी ने एक नेता-बहन जी के पद से पदत्राण उतारने जैसी घटना को अंजाम दिया, बाय गॉड की कसम, तब से चापलूस इस घटना की पुनरावृत्ति कर अपने ऊपर कृपा दृष्टि बरसाने का मौका नहीं चूकते l हर कोई मुरीद इन जूते-चप्पलों का — कोई खाने के लिए, कोई पहनने के लिए l कई मनचले सड़कछाप, जिन्हें चप्पल पहनने में उतना मज़ा नहीं आता जितना खाने में, दिनभर छेड़छाड़ करके किसी सुकुमारी के हाथों इसे अंजाम देने की गुहार लगाए रहते हैं l

चप्पल-जूते आजकल मोची की फुटपाथी दुकान से बड़े-बड़े शोरूमों में हैलोजन लाइटों की चकाचौंध में स्थापित हो गए हैं — यानी कि चप्पल-जूते भी आम आदमी की पहुँच से कितने दूर हो गए हैं l सिर के ऊपर की इज्जत, पगड़ी-साफा, जिस पर लोग कुर्बान हो जाते हैं, वह अब भूतकाल की बात हो गई l अब तो आपके पैरों में पहने गए ब्रांडेड जूतों की चकाचौंध आपकी इज्जत का मानदंड बन गई है l दुल्हे की पगड़ी-साफा तो किराए से आता है, लेकिन ब्रांडेड जूते खरीदे जाते हैं — आखिर साली को जूते चुराने हैं भाई, साफा थोड़े ही l
जूते-चप्पलों से मोह आजकल के पालतू कुत्तों का भी होना लाज़मी हो गया है l हमारे पड़ोस के महाशय ने एक कुत्ता पाला — हर बार मॉर्निंग वॉक पर मिल जाते, कुत्ता साथ में लिए घूमते नज़र आते; उनकी बातों में सौ प्रतिशत कुत्ते की बातें ही होतीं — “कुत्ता ऐसा है, वफ़ादार है, आप कभी घर पर आएँ, इसके करतब आपको दिखाऊँगा” l एक बार हम उत्सुकतावश पहुँचे कि भाई देखें, आज के कलयुगी वफ़ादार की क्या खासियत है l महाशय के साथ बैठे ही थे कि उनका कलयुगी वफ़ादार मेरी चप्पलों को मुंह में लिए हमारे पास आ गया l महाशय उन्मुक्त ठहाके से हँसे और बोले, “देखो कितना वफ़ादार है, तुम्हारी चप्पलें मुंह में ली है न? यह इसका तुम्हारे प्रति वफ़ादारी का प्रतीक है — देखो कितना स्नेह कर रहा है तुमसे” l
मेरा दिमाग सुन्न हो गया; पता नहीं क्यों मुझे उस वफ़ादारी से कतई खुशी नहीं हुई, बल्कि सोच रहा था कि अब तो नंगे पैर घर तक जाना पड़ेगा l कैसे अगली बार इन महाशय से मॉर्निंग वॉक के दौरान कन्नी काटी जाए ताकि इनका कुत्ता पुराण दुबारा हमें आकर्षित न कर सके l बड़े बेमन से महाशय की कुटिल, स्वच्छन्द हँसी में हमारी लाचारी की थोथी हँसी मिलती रही l जैसे ही महाशय ने अपनी फीकी चाय का आख़िरी घूँट लिया, कुत्ते के मुंह से चप्पल हम लगभग छीनते हुए दौड़े — एक आशंका थी कि कहीं महाशय अपने टमी द्वारा हमारी तरफ़ वफ़ादारी का एक और नमूना न दिखा दें, और क्या पता वह नमूना हमें पीछे से पायजामा पकड़कर काटने जैसा ही हो l

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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