अध्याय : रिश्वतोपाख्यान — श्रीकृष्णार्जुन संवाद
प्रथम खंड
भगवतपुराण में ऐसे अनेकों प्रसंग निहित हैं जो केवल श्रुति परंपरा द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होते रहे हैं। इन अध्यायों को श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टादश अध्यायों में जानबूझकर सम्मिलित नहीं किया गया, क्योंकि इनका प्रकटीकरण कलियुग में मृत्युलोक में प्रकट होने वाले राक्षसी प्रवृत्तियों के विकराल स्वरूपों के संदर्भ में है। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्धस्थल में अर्जुन को पूर्वप्रसूचित कर दिया था कि ऐसे विषय-प्रसंग भावी युग में ही साकार होंगे। इसी श्रेणी में एक अप्रसिद्ध किन्तु अत्यन्त अर्थगर्भित अध्याय है — “रिश्वत”।
आइए, उस अलिखित अध्याय की एक दुर्लभ वार्ता को श्रवण करें — जो अर्जुन और श्रीकृष्ण के मध्य सम्पन्न हुई थी, और जो अद्यतन काल में अनायास लीक हो गई है।
अर्जुन संशयविह्वल है। वह संकोचवश श्रीकृष्ण से जिज्ञासा करता है —
“हे देवकीनन्दन! हे योगेश्वर! यह रिश्वत नामक तत्व क्या है? मृत्युलोक में इसकी गति और प्रवृत्ति कैसी होगी? कृपया इस विषय में मुझे विशद रूप से प्रकाश प्रदान करें।”
(कृष्ण उवाच —)
हे कौन्तेय!
मैंने तुमसे गीता के अठारह अध्यायों में जिन सत्यों का वर्णन किया, उनके अतिरिक्त भी कुछ उपाख्यान थे जिन्हें जानबूझकर लोकों से छिपाया गया — क्योंकि वे कलियुग की विभीषिका को सह नहीं पाते। रिश्वत का यह उपाख्यान उन्हीं में से एक है।
हे पार्थ!
कलियुग में जब अधर्म अपने चरम पर होगा, जब धर्म का स्वरूप वस्त्रों, प्रवचनों और उद्घोषणाओं में सीमित रह जाएगा, तब मृत्युलोक में एक दैत्य जन्म लेगा — जिसका नाम होगा रिश्वत। परन्तु ध्यान रहे हे धनुर्धर! वह अपने मूल नाम से नहीं, ‘सुविधा शुल्क’ नामक मायावी आवरण में प्रकट होगा।
(अर्जुन) — हे मधुसूदन! यह ‘सुविधा शुल्क’ नामक प्राणी क्या यथार्थ में रिश्वत ही है? और यदि है तो मनुष्य इसे सहजता से स्वीकार कैसे करेगा?
(कृष्ण मुस्कुराकर बोले) —
हे पार्थ! जैसे काल चक्र में युग-परिवर्तन निश्चित है, वैसे ही इस ‘रिश्वत’ की सत्ता भी कलियुग का अंग बन जाएगी। इसे न तो दंड से रोका जा सकेगा, न उपदेश से। यह वह दानव होगा जो देने वाले और लेने वाले दोनों की सहमति से पनपेगा — ठीक वैसे ही जैसे यज्ञ बिना आहुति के अधूरा होता है।
(अर्जुन) — हे केशव! यदि यह इतना व्यापक और भयंकर है, तो क्या इसकी उत्पत्ति कोई असुर या मायावी राक्षस है?
(कृष्ण) —
हे सव्यसाची!
धन रूपी माया जब मनुष्य को बाँधती है, तब उसकी चेतना विकृत हो जाती है। पहले यह रिश्वत केवल राजाओं के मध्य संधियों का माध्यम थी — पराजित राजा को विजेता द्वारा अभयदान तभी प्राप्त होता था जब वह पुत्री या बहन का दान तथा स्वर्ण मुद्राओं की आहुति देता। यही ‘रिश्वत’ की आदि उत्पत्ति थी।
हे धर्मज्ञ!
यह रिश्वत वाणी से भी दी जा सकती है — जब कोई जन अपने स्वार्थ हेतु चाटुकारिता करता है, मिथ्या प्रशंसा करता है, तब वह ‘वाणी की रिश्वत’ है। यह मधुरता मनुष्य को भीतर तक पुलकित करती है, वैसे ही जैसे सोने की थैली हाथ में आते ही आत्मा आह्लादित होती है।
(अर्जुन) — हे जनार्दन! क्या यह व्यवहार मनुष्य की विवशता है या कुटिलता? क्या हर रिश्वत देने वाला पापी है?
(कृष्ण) —
हे अर्जुन!
अब यह रिश्वत केवल बाध्यता नहीं, प्रवृत्ति बन चुकी है। थक चुके हैं लोग कार्यालयों की चौखटें नापते-नापते, झुका चुके हैं सर लम्बी कतारों में — अब उन्हें चाहिए शॉर्टकट और उसी से जन्म लेता है यह अघोषित संधि — तू दे, मैं ले लूँ।
हे पार्थ!
जो रिश्वत लेता है, वह भी कहीं विवश है — गृहिणी ने विवाह पूर्व ही जान लिया कि वह तो उच्च महकमे का अधिकारी है, जिस पर उपरी कमाई की कृपा सदा बनी रहेगी। गृह में कोना-कोना भविष्य की लालसा से सज्जित है — ऊँचा भवन, विलासित कार, अगली पीढ़ी की चाह। सब इस एक ‘उपरी’ स्त्रोत पर निर्भर।
(अर्जुन) — हे वासुदेव! क्या भगवान भी इस मायाजाल में जकड़े जाते हैं? क्या वे भी इस ‘रिश्वत’ के दोष से अछूते नहीं हैं?
(कृष्ण) —
परंतु सुनो हे अर्जुन!
भगवान भी अब इस चक्र में फँस चुके हैं। मंदिरों की हुंडियाँ अब काली कमाई से भरती हैं। दानदाता लो प्रोफाइल में आता है, नाम नहीं देता, पर करोड़ों छोड़ जाता है। न पूछो कौन — बस ईश्वर जानें या वह स्वयं।
हे धनुर्धर!
काली कमाई अब वंश परंपरा की भाँति संजोई जाती है — अपने लिए नहीं, आने वाली पीढ़ियों के लिए। कोई नाम नहीं लिखता, कोई कागज़ नहीं रखता — क्योंकि भय है, कहीं कालगति में धूल से भरी डायरी न खुल जाए, और फिर कोई पूछ बैठे — हे मनुष्य! ये धन किसका था?
हे पार्थ!
यह कलियुग की नियति है — जहाँ रिश्वत को ‘सुविधा’ और ‘दान’ के आवरण में ढँक कर समाज उसे सहज स्वीकार करेगा। इसलिए मैंने तुम्हें पूर्व ही सावधान किया, क्योंकि जब मूल्य ही मूल्यहीन हो जाएँ, तब नीति और धर्म केवल ग्रंथों में रह जाते हैं।
रिश्वतोपाख्यान – द्वितीय खंड
(अर्जुन) — हे माधव! यदि रिश्वत मृत्युलोक में कलियुग का स्थायी भाव बन गई है, तो क्या इसका विस्तार केवल दैनंदिन कर्मकांड तक ही सीमित है? या फिर यह महलों, राजसभाओं और राजनीति के गहन गह्वर में भी प्रविष्ट हो गई है?
(कृष्ण) —
“हे धनुर्धर!
जब भूमि पर पग धरने वाला ही दिशा भूल जाए, तब नक़्शों का अस्तित्व भी अर्थहीन हो जाता है।
राजनीति के रण में भी अब वैसी ही स्थिति उत्पन्न हो गई है — मार्गदर्शक ही मोहजाल में उलझ गए हैं, और जो पीछे चलने थे, वे दिशा दिखाने लगे हैं।”
हे पार्थ!
जब कोई कहे — “हम रिश्वत नहीं लेते” — तो तुम जान लेना कि वहाँ सुविधा शुल्क नामक दूसरा देवता आसीन है। हे कौन्तेय! राजनीतिक दल अब अपने चंदे को पार्टी फंड कहकर वैध बनाते हैं, परंतु उस द्रव्य की उत्पत्ति उसी अधर्म से होती है जिसे रिश्वत कहते हैं।
(अर्जुन) — हे पुरुषोत्तम! क्या इस अधर्म से उबरने का कोई उपाय नहीं?
(कृष्ण) —
हे सव्यसाची!
इस जाल से बाहर निकलना सरल नहीं, क्योंकि नीचे से ऊपर तक प्रत्येक स्तर पर कमीशन नामक दैत्य बैठा है — जिसकी जितनी बड़ी भूख, उतना बड़ा हिस्सा! अब तो घोषणापत्रों में उद्घोषणा होती है — “जिसका मुँह बड़ा, उसी को बड़ा निवाला!”
हे अर्जुन!
पर ध्यान रहे — रिश्वत तो अभी भी इस महासमर में निम्नतम स्तर का सिपाही है। असली युद्ध तो घोटालों के क्षेत्र में हो रहा है — वहाँ सिर्फ लेना है, केवल लेना — और वह भी करोड़ों में!
(अर्जुन) — हे केशव! तब क्या यह समझा जाए कि जो बड़ा घोटाला करता है, वह ही इस युग का यशस्वी योद्धा है?
(कृष्ण) —
ठीक यही हो रहा है हे कौन्तेय!
छोटे स्कैम अब समाचारों के योग्य नहीं। अब तो हज़ारों करोड़ों का खेल ही तुम्हें वी.आई.पी. श्रेणी में पहुँचा सकता है। वहाँ कोई CBI नहीं पूछती, न ED की झंकार सुनाई देती है। तड़ीपार होने के पहले ही विदेश गमन संभव है।
हे पार्थ!
घोटाले की पात्रता के पीछे भी रिश्वत का प्रथम खेल आवश्यक है — यह निवेश है, और निवेश का प्रतिफल है Return on Investment! यह अधर्मी ROI कलियुग का नया वेदवाक्य बन गया है।
(अर्जुन) — हे मधुसूदन! लेकिन जो जन सामान्य है, जो निम्न अधिकारी है, वह क्या सुख भोगता है इस ‘अधर्म’ से?
(कृष्ण) —
हे धर्मराज सुत!
जो रिश्वत लेता है वह स्वयं सदा भयभीत रहता है। इतना विनीत कि गिनने का साहस नहीं करता — सीधे जेब में रखवाता है या फाइलों के मध्य छिपवाता है। उसकी रात्रियाँ बेचैन हैं — रक्तचाप और मधुमेह उसके जीवनसाथी बन जाते हैं।
हे पार्थ!
गृहलक्ष्मी भी उसकी नींद को और खंडित करती है — “क्या हुआ इस बार? उपरी आय कम क्यों रही? बंगले की EMI बाकी है, वेतन तो कर-काट में चला गया!” और बेचारा गृहस्थ, रिश्वत लेने के नाम पर एजेंटों को नियुक्त करता है, जो आधी रकम गटक जाते हैं।
(अर्जुन) — हे जनार्दन! तब यह पथ कितना संकटमय है — क्या इसमें कोई भी सुरक्षित नहीं?
(कृष्ण) —
नहीं हे अर्जुन!
अब यह ‘खेल’ भी सुरक्षित नहीं रहा। छद्म वेशधारी गुप्तचर लिफ़्ट तक में घूमते हैं, कार्यालय और गृह – कोई स्थान अब निर्विघ्न नहीं रहा।
हे कौन्तेय!
यदि देखा जाए तो राज्य को इस रिश्वत को वैध मुद्रा की मान्यता दे देनी चाहिए। वेतन के स्थान पर ‘रिश्वत’ को ही आदान-प्रदान का माध्यम बना देना चाहिए। फिर विभागों में प्रतियोगिता हो — जो सबसे अधिक ले या दे सके, उसे पुरस्कार मिले!
(अर्जुन) — हे योगेश्वर! क्या यह विडम्बना नहीं कि जो अधर्म है, वही नीति का रूप लेता जा रहा है?
(कृष्ण) —
हे धर्मज्ञ!
यह कलियुग की नींव है — जिसमें रिश्वत ही भ्रष्टाचार की आधारशिला है। नेताओं की खरीद-फरोख्त, टेंडरों की स्वीकृति, ठेकेदारों के बिल, संपत्ति की रजिस्ट्री, जुर्मानों की मुक्ति — हर कार्य में इसी का डंका बज रहा है।
हे धनुर्धर!
भ्रष्टाचार की जो अट्टालिका खड़ी हो रही है, उसकी नींव में यही रिश्वत की ईंटें हैं। इतनी प्रखर और गाढ़ी दीवार कि व्यंग्य की कोई भी बाण इसे भेद नहीं सकता। परंतु स्मरण रहे — प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता।
(अर्जुन) —
प्रभो!
आपके अमृततुल्य वचनों से अब मेरा मोह भंग हुआ है। जो पहले असमंजस था, अब स्पष्ट दृष्टि में परिवर्तित हो गया है। मेरी चक्षुएं अब इस रिश्वत रूपी मायाजाल को भलीभाँति देख सकती हैं।
आपके चरणों में कोटिशः आभार समर्पित करता हूँ।
हे देवकीनंदन!
यदि कलियुग में यह रिश्वत रूपी राक्षस विकरालतम स्वरूप धारण कर ले — यदि वह धर्म, न्याय, नीति सबको निगलने लगे — तो कृपया पुनः अवतरण कीजिए प्रभो।
अधर्म के इस अंधकार में एक बार फिर आपके प्रकाश की परम आवश्यकता होगी।
रचनाकार — डॉ. मुकेश गर्ग

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
(लेखक, व्यंग्यकार, चिकित्सक)
मेरी व्यंग्यात्मक पुस्तकें खरीदने के लिए लिंक पर क्लिक करें – “Girne Mein Kya Harz Hai” और “Roses and Thorns”
Notion Press –Roses and Thorns
संपर्क: [email protected]
YouTube Channel: Dr Mukesh Aseemit – Vyangya Vatika
📲 WhatsApp Channel – डॉ मुकेश असीमित 🔔
📘 Facebook Page – Dr Mukesh Aseemit 👍
📸 Instagram Page – Mukesh Garg | The Focus Unlimited 🌟
💼 LinkedIn – Dr Mukesh Garg 🧑⚕️
🐦 X (Twitter) – Dr Mukesh Aseemit 🗣️
बहुत अच्छी बात