ट्रेडमिल : घर आया मेहमान
वज़न कम करने का ख़्याल अक्सर दिवाली की सफ़ाई या नए साल के रेज़ोल्यूशन की तरह आता है – बड़े जोश और बड़ी उम्मीदों के साथ। मेरे साथ भी यही हुआ। मोटापे की इस जंग में मैंने तय किया कि अब कोई कॉम्प्रोमाइज़ नहीं! न डाइटिंग के बेतुके नियम (जो आजकल हर दूसरे दिन बदलते हैं), न जिम के वो खूंखार ट्रेनर्स, जो यमराज से कम नहीं लगते। मैंने अपना पर्सनल ‘वज़न-विनाशक’ घर लाने का फ़ैसला किया – एक चमचमाता, अत्याधुनिक ट्रेडमिल!
मुझे लगा, बस ट्रेडमिल आ जाए, वज़न तो अपने आप कम हो जाएगा। जैसे घर में डॉक्टर की डिग्री टाँग दो, तो बीमारियाँ अपने-आप भाग जाएँ। ट्रेडमिल घर आया – वो दिन आज भी याद है। घर में ऐसा जश्न मना, जैसे कोई घर-जमाई आया हो। हम सबने उसे घेरा, उसकी चिकनी सतह को छुआ, पहले से ही फूले पेट को थोड़ा और फुला कर ,साथ में सीने को भी दो चार इंची फुलाकर ‘अधिकार’ जताया, दो-चार सेल्फी खींचीं और सोशल मीडिया पर डाल दीं। शाम तक इंतज़ार किया कि चार लाइक आ जाएँ, तो शायद वज़न को भी कोई ‘वजनदार’ चेतावनी मिल जाए, और इससे पहले कि हम वज़न को ट्रेडमिल में पीसकर सुखा-छुआरा निकालें, वह डर के मारे भाग जाए।
ट्रेडमिल को कहाँ रखें – यह एक ज्वलंत समस्या आ पड़ी। चार दिन ट्रेडमिल को इधर-से-उधर खिसकाने में बीते। इसी बीच, उसे सरकाने में लगे हमारे प्रयासों से हमें लगा कि हमारा वज़न कुछ कम हो रहा है। श्रीमतीजी चाहती थीं कि उसे किचन के पास रखा जाए, मैं कहता डाइनिंग रूम में, बेटा कहे स्टडी रूम में, और पापा बोले कि छत पर रख दो। धीरे-धीरे ट्रेडमिल, घर-जमाई से ‘बिन बुलाया अतिथि’ सा बोझ लगने लगा।
एक हफ़्ता निकल गया। ट्रेडमिल की ‘मुंह-दिखाई’ भी करा ली गई। पड़ोसियों-रिश्तेदारों को भी इसका फ़ायदा होने लगा – वो जलन से ही अपना वज़न कम महसूस करने लगे। दिन भर ट्रेडमिल की ‘मुंह-दिखाई’ चलती रही, जश्न का माहौल बना रहा। शाम तक ट्रेडमिल एक कोने में रखी, थकी-हारी सी लगने लगती। हम अपने तोंद पर हाथ फेरते, जैसे उसकी अंतिम विदाई दे रहे हों, और हमें लगता – सुबह तक तो तोंद ग़ायब हो जाएगी।
आर्थिक पहलू भी काफ़ी अहम भूमिका निभा रहा था। ट्रेडमिल आने से पहले ही श्रीमतीजी ने चेतावनी दे दी थी – “देख लेना कहे देती हूँ ,जो दो क़दम पैदल नहीं चलता, वह ट्रेडमिल पर क्या दौड़ेगा l अगर घर में एक दिन भी बिना चले पड़ी रही न…तो कबाड़ को बेच दूंगी l ‘ मैंने इतने दिनों से कहा कि मेरे लिए एक अंगूठी बनवा दो, वह तो नहीं बनी, और ट्रेडमिल मंगा ली!” उनके हिसाब से पतियों का वज़न घटाने का सबसे बढ़िया तरीक़ा है – बीवी को शॉपिंग कराते हुए उनके पीछे-पीछे बैग पकड़े चक्कर लगाना।
ख़ैर, ट्रेडमिल को ‘नॉन-परफ़ॉर्मिंग एसेट’ में शामिल होने से बचाने के लिए उसका रोज़ ‘दहन’ ज़रूरी था। हम रोज़ जोश से ट्रेडमिल के पास आकर ,उसका खरहरा करते हुए विनती करते कि,”शह- सवार को बीच मैदान में पटखनी मत दे देना ,”फिर उस पर सवार होते,मजबूती से उसके स्टार्ट और स्टॉप बटन वाले कान एंठते , उसकी स्पीड इतनी सेट करते कि बस हमारे रेंगते क़दमों से वह क़दम मिला सके। आपातकालीन स्थिति के लिए उसकी सेफ्टी-स्ट्रिंग वाली लगाम को हाथ में पकडे रहते ,कई बार लगाम खींचकर ट्रायल भी कर लेते की कही ट्रेडमिल बेलगाम तो नहीं हो रही l कुछ दिनों में पत्नी को मेरी फूली हुई तोंद जो की टस से मस नहीं हो रही थी ,को इन्चिटेप के शतमलव अंश से नापकर यह सुनिश्चित कर लिया की आर ओ आई (ROI) जीरो शतमलव ५ आ रहा है ,तो उन्होंने इसकी भरपाई के लिए उसका अतिरिक्त उपयोग शुरू कर दिया – अब बरामदे में डोरी पर कपड़े सुखाना बंद हो गया था। बच्चों के लिए वह एक नया झूला बन गया था – फिसलपट्टी की तरह उसका इस्तेमाल करते।
ट्रेडमिल अपनी उपयोगिता के हिसाब से घर में एक ‘मल्टी-पर्पज़ आइटम’ बन चुका था। वज़न घटाने का उपकरण होकर भी, वह कपड़े सुखाने की स्टैंड,बाबूजी की छड़ी के लिए हुक और बच्चों के खेल का मैदान बन गया था।
लेकिन यह जोश ज़्यादा दिन नहीं टिका।
पहला महीना ख़त्म होते-होते, ट्रेडमिल से मेरी मुलाक़ातें कम होती गईं। पहले दिन में तीन बार, फिर दिन में एक बार, फिर हफ़्ते में एक बार… और फिर बस यूँ ही, जब कमरे से गुज़रते हुए उस पर एक नज़र डाल लेता, जैसे किसी पुरानी प्रेमिका से बाज़ार में अचानक मुलाक़ात हो जाए।
रात को खाना खाने के बाद अघाया अलसाया सा मैं और मेरे पीछे साए की तरह पडी मेरी तोंद अक्सर यह बातें करते.. – “चिंता मत करो सुबह ले जायूँगा तुम्हे थोडा हल्का करने !” लेकिन सुबह उठते ही, नींद और बिस्तर का प्यार, ट्रेडमिल के फ़ायदे पर भारी पड़ जाता।
धीरे-धीरे, ट्रेडमिल घर का एक सजावटी सामान बन गया। उस पर मेरी जैकेट टंगने लगी, पत्नी ने उस पर अपनी साड़ियाँ सुखाना शुरू कर दीं, और बच्चों ने उसके हैंडल पर अपने खिलौने लटका दिए। जिस ट्रेडमिल को वज़न घटाने के लिए लाया गया था, वह अब वज़न ढोने वाला बन गया था!
इन्ही दिनों सोशल मीडिया के जरिये कई ट्रेडमिल धावकों की वज़न घटाने की यात्रा के अंतिम यात्रा बन जाने की खबरें आने लगी , यह सुनकर मन को एक अजीब-सा सुकून मिला – हमें तो पहले ही पता था, इसलिए हमने ट्रेडमिल के इन ‘काले मंसूबों’ से खुद को बचा लिया।
अब समस्या यह थी कि इस ट्रेडमिल का करें क्या? दान करने के लिए दिल बड़ा नहीं था , और रखने के लिए घर छोटा पड़ने लगा । बेचने की सोची, लेकिन ‘नाक’ का सवाल आड़े आ गया – जिसका ढिंढोरा पूरे मोहल्ले में पीट चुके, उसकी बिकवाली? नतीजा, वह अब भी मेरे घर में है – स्टोर रूम में, अंधेरे में, उम्र-क़ैद की सज़ा काट रहा है। मेरी तोंद और वह – दोनों इस अधूरे मिलन के विलेन – मुझे और श्रीमतीजी को मन-ही-मन कोस रहे हैं।
लेकिन तोंद तो चूंकि तोंद तो अपनी द्वारा पाला हुआ चिराग है ,उसे मैंने समझाया, उसे दुनिया-दारी के रीति-रिवाज बताए, गीता के कर्मफल सिद्धांत बताये, जो आया है उसे एक दिन जाना ही है …आज नहीं तो कल..उसका ‘मोराल बूस्ट’ किया और खूब चॉकलेट खिलाईं – आखिर कहते हैं न, चॉकलेट तनाव कम करती है।
अब घर में शांति है। मेरी पत्नी अभी भी मिलिंद सोमन को फॉलो करती हैं। मेरे पेट घटाने का एकमात्र कारण उनके लिए यही था कि मेरी तोंद के ‘स्पेशल इफ़ेक्ट’ के कारण उन्हें हमारी युगल-तस्वीरों में जो शर्मिंदगी झेलनी पड़ती थी ,वहा काबिले-बर्दाश्त नहीं थी । इसका भी मैंने तोड़ निकाल लिया है – अब फोटो ऐसे एंगल से खिंचवाता हूँ कि मेरे हाथों और श्रीमतीजी के पीछे मेरी तोंद छिप जाए। इस तरह ट्रेडमिल पर किए गए खर्च की भरपाई हो जाती है।
जहाँ तक तोंद का सवाल है… यह तो सरकार की रिश्वत की तरह है – जब तक यह शरीर रूपी ‘महकमा’ रहेगा, यह फलती-फूलती ही रहेगी।लेकिन फिर भी वज़न घटाने की यात्रा अभी भी जारी है,ऐसी यात्रा जिसमें मंजिल की जुस्तजू नहीं ,बस यात्रा में बने रहना है..एकला चालवा रे . के भाव से बिना ट्रेडमिल का सहारा लिए ! सच कहूँ तो, ट्रेडमिल के बिना मैं ज़्यादा ‘हल्का’ महसूस करता हूँ ,कहते हैं न किसी भी यात्रा पर बिना बोझ के निकलेंगे तो यात्रा सुखद रहेगी – कम से कम उसे देखकर अपराधबोध का बोझ तो नहीं ढोना पड़ता ।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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