Login    |    Register
Menu Close

परम्परागत ज्ञान की अवधारणा : एक गहन और रोचक विश्लेषण

an abstract, richly detailed, intellectual illustration symbolizing Traditional Ecological Knowledge (TEK). Show a tribal elder observing the sky, reading signs from birds, clouds, and wind, while holding a bowl of earth. Surround him with symbolic elements: ancient stepwells, terraced fields, sacred groves, community water bodies, and a glowing tree representing spiritual ecology. Blend modern lab symbols—microscopes, data charts—fading into the background to contrast modern science with traditional wisdom. Visual tone: earthy, mystical, scholarly, Indian eco-philosophy.”

परम्परागत ज्ञान की अवधारणा : एक गहन और रोचक विश्लेषण

वैश्विक पर्यावरणीय विमर्श में आज जिस शब्द ने सबसे अधिक ध्यान खींचा है, वह है—परम्परागत पर्यावरणीय ज्ञान। आधुनिक विज्ञान की प्रयोगशाला-केंद्रित दृष्टि जहाँ प्रकृति को विश्लेषणात्मक घटकों में बाँटती है, वहीं परम्परागत ज्ञान प्रकृति को एक जीवित, धड़कती, संवेदनशील और सह-अस्तित्व पर आधारित इकाई की तरह देखता है। यह ज्ञान अचानक नहीं जन्मता, और न ही किसी एक व्यक्ति की खोज का परिणाम होता है। यह सदियों की सामूहिक बुद्धि से उपजता है—निरंतर अवलोकन से, पीढ़ियों की अनुभूतियों से, और प्रकृति के साथ एक अनकहे लेकिन गहरे संवाद से।

जब किसी समुदाय का जीवन मौसम, मिट्टी, वनस्पति, पशु और जल स्रोतों के साथ प्रत्यक्ष रिश्ता रखता है, तो प्रकृति उसके लिए विषय नहीं, बल्कि शिक्षक बन जाती है। यही शिक्षक समय के साथ वह ज्ञान देता है जिसे हम आज “Traditional Ecological Knowledge – TEK” कहते हैं। यह ज्ञान लिखा नहीं जाता, बल्कि जीया जाता है; यह अनुदेशों का पाठ नहीं, बल्कि अनुभवों का प्रवाह है। इसी कारण UNESCO इसे “समुदाय आधारित, सांस्कृतिक रूप से निहित, और स्थानीय पर्यावरणीय अनुभव से जन्मा ज्ञान” कहता है।

परम्परागत ज्ञान की सबसे अद्भुत विशेषता यही है कि वह हवा के तेज़ झोंके में भी संदेश ढूंढ़ सकता है। किसी जनजाति का विशेषज्ञ यह पहचान सकता है कि बादलों की आकृति किस ओर से बदल रही है, किस प्रकार की हवाएँ किस प्रकार की वर्षा को बुलाती हैं, और पक्षियों का असामान्य व्यवहार किस मौसम का संकेत देता है। राजस्थान के रेतीले इलाकों में जब ऊँट अचानक बेचैन होकर एक दिशा में झुकने लगते हैं, तो बुज़ुर्ग मान लेते हैं कि रेगिस्तानी तूफान आने वाला है। उत्तराखंड में ‘नौला’ के जलस्तर को देखकर लोग वर्षा की अनिश्चितता का अनुमान वर्षों से लगाते आए हैं। यह किसी विज्ञान लैब की रिपोर्ट नहीं—प्रकृति की भाषा का दीर्घकालिक अध्ययन है, जिसे समुदाय बिना किसी लिखित रिकॉर्ड के संरक्षित रखता है।

परम्परागत ज्ञान स्थिर नहीं होता; वह समय के साथ बदलता है, परिस्थितियों से सीखता है, और समाधान के नए रास्ते बनाता है। यही अनुकूलन इसकी जीवन शक्ति है। भारत के सूखे इलाकों ने जोहड़, तालाब, और बावड़ियाँ विकसित कीं; पहाड़ी क्षेत्रों ने सीढ़ीदार खेती और जल संचयन के नौले बनाए; भारी वर्षा वाले क्षेत्रों ने नालों और ऊँचे घरों की संरचना विकसित की। यह तकनीकें न तो इंजीनियरिंग की किताबों में लिखी थीं, न ही किसी विश्वविद्यालय ने इन्हें विकसित किया था—ये प्रकृति और मनुष्य के सह-अस्तित्व की साझी रचना थीं।

लेकिन TEK का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि यह सामुदायिक है। इसमें कोई आविष्कारक नहीं, कोई मालिक नहीं, कोई कॉपीराइट नहीं। ज्ञान पूरे समुदाय का होता है और उसी के जीवन में प्रसारित होता है। बीज चयन हो या जलस्रोतों का संरक्षण—निर्णय सामूहिक होते थे। पवित्र वन पूरे गाँव की जिम्मेदारी थे, और जलस्रोतों को दूषित करना सामाजिक अपराध से भी बड़ा पाप माना जाता था। आधुनिक दुनिया जहाँ निजी स्वामित्व की सीमाओं में बँटी है, वहाँ परम्परागत समुदाय “हम” की भाषा में निर्णय लेते थे, “मैं” की नहीं।

इस सामुदायिकता को आध्यात्मिकता का भी आधार मिला हुआ था। परम्परागत समाज प्रकृति को चेतन मानता था—वृक्ष देवता थे, नदियाँ माता थीं, पहाड़ पवित्र स्थल, और पशु सहजीवी साथी। यह आध्यात्मिक संरचना केवल धार्मिक भावनाओं का विस्तार नहीं, बल्कि पर्यावरणीय सुरक्षा कवच थी। जिस वस्तु को “पवित्र” माना जाए, उसके दोहन या विनाश की संभावना स्वतः कम हो जाती है। यह दृष्टि आधुनिक कानून से कहीं अधिक प्रभावी प्रतिबंध लगाती थी, क्योंकि इसका आधार नैतिकता था—not enforcement.

जब हम परम्परागत और आधुनिक ज्ञान की तुलना करते हैं तो दोनों की कार्यप्रणाली स्पष्ट अलग दिखाई देती है। परम्परागत ज्ञान प्रकृति को एक जीवंत समग्र प्रणाली समझता है—जहाँ मिट्टी, पानी, हवा, पशु, पौधे और मनुष्य सब एक-दूसरे के सहायक और संरक्षक हैं। आधुनिक विज्ञान प्रकृति को सूक्ष्म भागों में विभाजित कर उसका अध्ययन करता है—और अक्सर इस प्रक्रिया में समग्रता खो जाती है। TEK दीर्घकालिक अनुभव पर आधारित है, जबकि आधुनिक विज्ञान तात्कालिक प्रयोगों और आँकड़ों पर। परम्परागत ज्ञान स्थानीय संसाधनों से सरल समाधान देता है, जबकि आधुनिक विज्ञान अक्सर महँगी तकनीक पर निर्भर करता है। और शायद सबसे महत्वपूर्ण अंतर—परम्परागत ज्ञान प्रकृति में नैतिकता खोजता है, जबकि आधुनिक विज्ञान उसका उपयोग खोजना चाहता है।

लेकिन आज दुनिया समझने लगी है कि तकनीक अकेले पर्यावरण को बचा नहीं सकती। अमेज़न के जनजातियों का वनों का ज्ञान, ऑस्ट्रेलिया के एबोरिजिनल समुदायों की आग-नियंत्रण तकनीक, अफ्रीका के मासाई चराई-प्रणाली, जापान के आयनू की वन-परंपराएँ और भारत के भील, गोंड, संथाल, नागा जैसी जनजातियों की पारिस्थितिक समझ—ये सब आधुनिक अनुसंधान का विषय हैं। IPCC भी यह स्वीकार करता है कि TEK जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन का वैश्विक स्तम्भ है।

परम्परागत ज्ञान हमें सिखाता है कि प्रकृति का संरक्षण केवल तकनीक से नहीं, बल्कि संस्कृति से होता है। यह भावनाओं, व्यवहारों, सामूहिक जिम्मेदारियों और नैतिकता का परिणाम है। यह बताता है कि पर्यावरण नीति केवल सरकारी दफ्तरों में नहीं बनती—वह खेतों, जंगलों, नदियों, तालाबों, गाँव चौपालों और जनजातीय परंपराओं के भीतर जन्म लेती है। यही कारण है कि परम्परागत ज्ञान केवल अतीत की धरोहर नहीं—भविष्य की आवश्यकता है। यह ज्ञान हमें चेतावनी देता है कि यदि मनुष्य ने प्रकृति को संसाधन की तरह देखना नहीं छोड़ा, तो प्रकृति मनुष्य को चेतावनी देने से आगे बढ़कर सज़ा देने लगेगी।

अंततः TEK का मूल संदेश यही है:
प्रकृति को बचाना कोई तकनीकी परियोजना नहीं—यह एक सांस्कृतिक कर्तव्य है।
प्रकृति हमारे बाहर नहीं—हमारे भीतर है।

Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *