भारत के जनजातीय समुदायों की जीवन-गाथा को यदि एक वाक्य में समझना हो तो कहा जा सकता है—उन्होंने प्रकृति को कभी जीता नहीं, हमेशा जीया है। पहाड़ों, जंगलों, नदियों, घाटियों और मौसमों के साथ उनका रिश्ता ऐसा है, जैसे एक विद्यार्थी का अपने गुरु से। यह ज्ञान किसी पुस्तकालय में जमा नहीं, न किसी लैब में तैयार; यह तो मिट्टी की खुशबू, पत्तों की नमी, पशु-पक्षियों की चाल, और हवा की सरसराहट में घुला हुआ वह ज्ञान है जिसे हम आधुनिक दुनिया में “Traditional Ecological Knowledge—TEK” कहते हैं।
जनजातीय समाज प्रकृति को संसाधन नहीं, सहचर मानता है। वह जंगल को लकड़ी की दुकान नहीं समझता, उसे भोजनालय, औषधालय, विद्यालय और मंदिर—all in one—माना गया है। इसलिए उनका पर्यावरण विज्ञान केवल तकनीकी नहीं; यह भावनात्मक भी है, आध्यात्मिक भी और व्यवहारिक तो इतना कि आज की बड़ी-बड़ी शोध संस्थाएँ भी उनसे सीखने को आतुर हैं।
भारत की जनजातियाँ—भील, गोंड, संथाल, टोडा, नागा, बोडो, मुंडा—सबका अपना-अपना पर्यावरणीय अनुभव है, पर आश्चर्य यह कि निष्कर्ष प्रायः एक ही है: “प्रकृति संकेत देती है; जो उसे सुन ले, वही बचा रहता है।”
जनजातीय समाज प्रकृति के इन संकेतों को पढ़ने की अद्भुत क्षमता रखता है। बादलों के आकार से वर्षा का अनुमान लगाना, पत्तों के सिकुड़ने से आर्द्रता को पहचान लेना, कीटों के अचानक प्रकट होने को मौसम परिवर्तन का संकेत मानना, पक्षियों की उड़ान की दिशा से हवा के चक्र को भाँप लेना—यह सब आधुनिक मौसम विज्ञान के “डेटा” आने से हजारों साल पहले से वे करते आए हैं। नागा जनजाति की चींटियों की ऊँची पहाड़ियाँ देखकर मानसून का अनुमान लगाने की पद्धति आज भी वैज्ञानिकों को चकित करती है। गोंडों के लिए साँभर का जंगल छोड़कर गाँव की ओर बढ़ना लगातार भारी वर्षा का संकेत है। यह ज्ञान विज्ञान नहीं, अनुभव है—कई पीढ़ियों के अवलोकन का निष्कर्ष।
प्राकृतिक संसाधनों का उनका उपयोग भी उतना ही वैज्ञानिक है। वे जंगल को काटते नहीं; छाँटते हैं। पूरा पेड़ गिराना अपराध है—सूखी शाखाएँ लेना नियम है। फलदार पेड़ को छूना भी वर्जित है। इस प्रक्रिया में जंगल न केवल बचता है, बल्कि और घना, स्वस्थ और जैवविविध हो जाता है। यही नहीं, जनजातीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले पवित्र उपवन—sacred groves—भारत की जैवविविधता की जीवित प्रयोगशालाएँ हैं। इन 13,000 से अधिक उपवनों में पेड़ काटना मत ही कीजिए—ये देवताओं के घर माने जाते हैं, और देवताओं के घर को कोई कैसे नुकसान पहुँचा सकता है?
औषधीय पौधों की उनकी समझ अपने आप में विश्वविद्यालय है। जड़ से रस तक, पत्तों से छाल तक—हर भाग का एक उपयोग, एक विधि और एक उद्देश्य। शहरों के अस्पतालों और लैबों के बाहर जिस ज्ञान को “Ethnobotany” नाम दिया गया है, वह जनजातीय दुनिया में रोज़मर्रा की प्रैक्टिस है—पीढ़ियों से। आधुनिक फार्माको-इकोलॉजी का बड़ा हिस्सा इसी ज्ञान से उपजा है।
उनकी कृषि में भी आधुनिक “Climate-Smart Agriculture” की पूरी किताब छुपी है। बीजों को वे सिर्फ अनाज नहीं मानते; यह सांस्कृतिक धरोहर है। वे बीजों का पारंपरिक भंडारण करते हैं, मिश्रित खेती अपनाते हैं, और कीटनाशक के नाम पर नीम, लहसुन, धतूरा जैसे प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग करते हैं। इससे मिट्टी जिंदा रहती है, रसायनों से मुक्त रहती है और फसलें जलवायु के झटकों को भी सह लेती हैं। भील और गोंड समुदायों की “बारहमासी खेती” आज की research-based farming से कहीं अधिक व्यावहारिक और टिकाऊ है।
जल संरक्षण के प्रति उनकी सूझ-बूझ तो सचमुच अद्भुत है। जहाँ पहाड़ हैं, वहाँ नौले—भूमिगत जल-संग्रह के शाश्वत मॉडल। उत्तर-पूर्व में बाँस आधारित जल निकासी प्रणाली—zero cost engineering। मध्य भारत में नदी तट के प्राकृतिक तालाब, और राजस्थान में सुरंगनुमा जल-संग्रह तकनीकें—ये सब बिना मशीन, बिना ऊर्जा और बिना प्रदूषण के सदियों से काम कर रही हैं। आज के हाई-टेक वाटर हार्वेस्टिंग मॉडल भी कई बार इनके आगे फीके पड़ जाते हैं।
जनजातीय पर्यावरण विज्ञान का सबसे सुंदर पक्ष उसकी आध्यात्मिकता है। उनके लिए वृक्ष देवता हैं, नदी देवी है, पहाड़ पूर्वज हैं, सूर्य पिता है, चंद्रमा रक्षक है। जब प्रकृति देवत्व धारण कर लेती है, तो उसके प्रति मनुष्य का आचरण स्वतः ही नैतिक हो जाता है। किसी पवित्र वृक्ष को काटना केवल पर्यावरणीय अपराध नहीं, धार्मिक-नैतिक अपराध बन जाता है। यही ‘नैतिकता आधारित संरक्षण मॉडल’ आधुनिक दुनिया में सबसे अधिक प्रभावी साबित हो रहा है।
इस सबको आज विश्व-स्तरीय संस्थाएँ भी मान्यता दे रही हैं। IPCC कह चुका है कि जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन में पारम्परिक जनजातीय ज्ञान मानवता का सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ है। UNESCO इसे मानवता की अमूर्त धरोहर बताता है। शोधकर्ताओं का यह निष्कर्ष है कि जहाँ जनजातीय समाज रहते हैं, वहाँ प्रकृति की स्थिति स्थायी रूप से बेहतर है—यह तथ्य अपने आप में एक प्रमाण है कि उनकी विधियाँ न केवल नैतिक, बल्कि वैज्ञानिक रूप से भी सफल हैं।
निष्कर्ष स्पष्ट है—जनजातीय समुदायों का पारम्परिक पर्यावरण विज्ञान किसी लोककथा या पिछड़ेपन का प्रतीक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक अवलोकन, आध्यात्मिक भावबोध और सामुदायिक विवेक का ऐसा अद्भुत मिश्रण है, जो आधुनिक दुनिया को वह सब सिखा सकता है जिसे तकनीक और उद्योग ने भुला दिया है।
आज जरूरत इस बात की नहीं कि हम उनके ज्ञान को “रोचक” कहकर संग्रहालयों में रख दें। आवश्यकता यह है कि हम इस ज्ञान को जलवायु नीति, शिक्षा, कृषि और पर्यावरण प्रबंधन के केंद्र में स्थापित करें—क्योंकि वही ज्ञान भविष्य को बचा सकता है, जिसे हमारे पूर्वज बिना डिग्री, बिना शोध अनुदान और बिना लैब के, मात्र अपने अनुभव, अपनी परंपरा और प्रकृति के प्रति अपने प्रेम से साधते आए हैं।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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