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वेदों और उपनिषदों में पर्यावरण : प्राचीन भारत का पारिस्थितिक दर्शन

“Ancient Indian ecological philosophy illustrated through Vedic symbols — Earth as Mother, flowing rivers, sacred trees, rising sun, and Upanishadic sages meditating in harmony with nature, symbolizing the environmental consciousness present in Vedas and Upanishads.”

वेदों और उपनिषदों में पर्यावरण : प्राचीन भारत का पारिस्थितिक दर्शन

भारतीय ज्ञान परंपरा में पर्यावरण संरक्षण कोई आधुनिक गढ़ी हुई अवधारणा नहीं, बल्कि जीवन, संस्कृति, अध्यात्म और विज्ञान का मूलाधार रहा है। जिस समय दुनिया के अधिकांश समाज प्रकृति को जीतने, नियंत्रित करने और दोहन की वस्तु मानते थे, उस समय भारत में प्रकृति को चेतन सत्ता, देवत्व और परस्पर-निर्भर जीवन-संरचना के रूप में देखा जाता था। वेदों और उपनिषदों में प्रकृति मात्र बाहरी जगत नहीं—बल्कि मनुष्य की आत्मा का विस्तार है। यही कारण है कि भारतीय पर्यावरणीय दृष्टिकोण किसी कानून या नीति से नहीं, बल्कि मानवीय भावबोध और आध्यात्मिक कर्तव्य से उपजता है।

अथर्ववेद में पृथ्वी को माता कहकर संबोधित करना इस दर्शन की सबसे सुन्दर अभिव्यक्ति है—“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।” यह वाक्य केवल काव्यात्मक भाव नहीं, बल्कि पारिस्थितिक चेतना की नींव है। जब मनुष्य स्वयं को पृथ्वी का पुत्र मानता है तो उसका संबंध स्वामित्व का नहीं, बल्कि संरक्षण और कृतज्ञता का हो जाता है। इसी मातृभाव से एक ऐसी संस्कृति विकसित हुई जहाँ भूमि को पूजना, नदियों को जीवन-रेखा मानना, पर्वतों को देवता समझना और वनों को पवित्र मानकर संरक्षित करना सहज जीवनचर्या का हिस्सा था।

ऋग्वेद में जल को “आनंददायी, जीवनदायिनी” कहा गया। जल को प्रदूषित करना, अपवित्र करना या व्यर्थ नष्ट करना पाप स्वरूप माना गया। जल का यह आदर आज के “वॉटर एथिक्स” और “सस्टेनेबल वॉटर मैनेजमेंट” की अवधारणाओं से कितना मेल खाता है, यह किसी भी आधुनिक पर्यावरणविद् को आसानी से दिख सकता है। वायु को “प्राण” कहना और उसकी पवित्रता पर बल देना भी उसी प्राचीन वैज्ञानिक दृष्टि का विस्तार है जो आज वायु गुणवत्ता, प्रदूषण नियंत्रण और जलवायु स्थिरता के रूप में वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है। सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया—यह सौर ऊर्जा के महत्व को पहचानने की वह प्राचीन क्षमता थी, जो आज पुनः नवीकरणीय ऊर्जा क्रांति के केंद्र में है।

यदि वेद प्रकृति का प्रत्यक्ष गान हैं, तो उपनिषद उसका दार्शनिक सार हैं। उपनिषदों में प्रकृति और मनुष्य का संबंध केवल उपयोग और साधन का नहीं, बल्कि अस्तित्वगत एकत्व का है। ईशावास्य उपनिषद का उद्घोष—“ईशावास्यं इदं सर्वम्”—यह बताता है कि इस जगत का प्रत्येक कण ईश्वर से परिपूर्ण है। जब हर वस्तु में दैवीयता का निवास हो, तब प्रकृति को नष्ट करना केवल पर्यावरणीय अपराध नहीं, बल्कि आध्यात्मिक विसंवाद बन जाता है। यह दृष्टि मनुष्य को प्रकृति का स्वामी नहीं, उसकी चेतना का सहयात्री बनाती है।

उपनिषदों का अद्वैत सिद्धांत—“सर्वं खल्विदं ब्रह्म”—प्रकृति और मनुष्य को एक ही तत्त्व के विस्तार के रूप में प्रस्तुत करता है। यह वह सबसे ऊँची पारिस्थितिक नैतिकता है, जहाँ पर्यावरण संरक्षण किसी नीति का परिणाम नहीं, बल्कि ‘अपने विस्तार’ की रक्षा है। यदि प्रकृति ‘मैं’ का विस्तार है, तो उसके विनाश का विचार भी असंभव हो जाता है। तैत्तिरीय उपनिषद में ‘अन्नम् ब्रह्म’ कहना भोजन, कृषि, भूमि, जल और सूर्य—सभी को एक पवित्र श्रृंखला में जोड़ देता है। भोजन को ब्रह्म मानना कृषि-आधारित जीवन में गहन पर्यावरणीय संवेदना का प्रतीक है, जहाँ भूमि मात्र उत्पादन नहीं, बल्कि ईशत्व का माध्यम है।

वेदों और उपनिषदों का पर्यावरण विज्ञान आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों से दूर नहीं, बल्कि कई मायनों में उनका दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है। वेदों में 33 देवताओं का उल्लेख है, जिनमें अधिकांश प्रकृति-तत्व हैं—यह जैवविविधता की स्वीकृति और सम्मान की सबसे प्राचीन घोषणा है। उपनिषदों का “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा”—त्याग और संयम के साथ संसाधनों का उपयोग—ठीक वैसी ही चेतावनी है जैसी आज दुनिया ‘सस्टेनेबल कंजम्प्शन’ के नाम से देती है। वृक्ष काटने पर दंड, जल-भूमि-वायु के अपवित्रीकरण को सामाजिक एवं आध्यात्मिक अपराध की तरह देखना—यह सब उस प्राचीन ‘इको–एथिक्स’ का हिस्सा था, जिसमें मनुष्य अपनी सुविधा से पहले प्रकृति के संतुलन को प्राथमिकता देता था।

वेदिक मंत्रों में जल-शुद्धिकरण, वायु-शुद्धि, भूमि की उर्वरता और प्राकृतिक चक्रों के संरक्षण के तरीके भी मिलते हैं। आज जिस ‘एनवायर्नमेंटल इंजीनियरिंग’ को हम अत्याधुनिक विज्ञान मानते हैं, उसकी प्रारंभिक संवेदना उन्हीं वैदिक और उपनिषदिक चिंतन में निहित है।

इस entire वैदिक-उपनिषदिक दृष्टिकोण का सबसे बड़ा संदेश यही है कि प्रकृति को बचाना कोई बाहरी जिम्मेदारी नहीं—यह हमारे अस्तित्व की रक्षा है। जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, जैवविविधता ह्रास और प्राकृतिक आपदाओं के दौर में जब दुनिया एक टिकाऊ समाधान की खोज कर रही है, तब प्राचीन शास्त्रों का यह दृष्टिकोण न केवल प्रेरणा देता है, बल्कि जीवन का मार्ग भी प्रस्तुत करता है।

वेद और उपनिषद हमें बताते हैं कि पर्यावरण संरक्षण कोई तकनीकी कार्य नहीं—यह मनुष्य की आंतरिक संस्कृति है। प्रकृति से संघर्ष नहीं, सामंजस्य ही मानवता का भविष्य है। यही प्राचीन भारत का अनन्त पर्यावरणदर्शन है—सदैव प्रासंगिक, सदैव पथप्रदर्शक।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’

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