युवा साथियो, कल्पना कीजिए—एक साधु शिकागो में मंच पर खड़ा है और दुनिया पहली बार भारत की आवाज़ को इस आत्मविश्वास के साथ सुनती है कि “तुम्हारा मार्ग भी अपना है, मेरा भी; लक्ष्य एक ही है।” धर्म संसद कोई एक घटना भर नहीं थी, वह पूरब-पश्चिम के बीच बना वह पुल थी जिस पर आज भी सभ्यताएँ एक-दूसरे से सीख रही हैं। स्वामी विवेकानंद पश्चिम को वेदांत का हृदय देकर लौटे तो बदले में संगठन, विज्ञान और कार्यकुशलता की धार लेकर आए—एक ऐसा सम्मिलन जिसने उनके भीतर बैठा कर्मयोगी जगा दिया। वे जानते थे कि तालियों का शोर नहीं, भारत की सोई हुई आत्मा को जगाना ही असली काम है।
विवेकानंद का जादू यह था कि उन्होंने वेदांत को गुफाओं के पार आम जीवन तक उतार दिया। उन्होंने कहा कि हम केवल शरीर नहीं हैं; हमारे भीतर एक अनंत, निर्मल चेतना है—उसी विराट सत्य की चिनगारी। इसे आज की भाषा में यूँ समझिए: ब्रह्मांड एक महान सर्वर है और हम सब उससे जुड़े टर्मिनल। हार्डवेयर और ऑपरेटिंग सिस्टम अलग-अलग हो सकते हैं, पर लॉग-इन करने वाला वास्तविक “यूज़र”—आत्मा—उसी सर्वर से जुड़ा है। जब यह बात भीतर उतरती है, तो पहला परिणाम होता है—आत्मविश्वास। “अहम् ब्रह्मास्मि”—मैं छोटा नहीं हूँ, मैं बंधा नहीं हूँ। विवेकानंद चेतावनी देते हैं—जिस क्षण तुम डरे, उसी क्षण तुम कुछ नहीं रहे। इसलिए गिरो तो भी शेर की तरह गिरो, उठो तो भी शेर की तरह उठो।
यही दर्शन जब व्यवहार में उतरता है तो वह ‘व्यावहारिक वेदांत’ बनता है—अपने भीतर की शक्ति पर विश्वास, और हर दूसरे इंसान में उसी शक्ति का दर्शन। किसी जूनियर को समझाना, किसी भूखे को खिलाना, किसी दुखी के कंधे पर हाथ रखना—यह सामाजिक सेवा नहीं, ईश्वर की पूजा है; यही “दरिद्र नारायण” का सत्य है। विवेकानंद कहते हैं—जिसे खुद पर विश्वास नहीं, वह सच्चे अर्थों में नास्तिक है। विश्वास वह मुख्य स्विच है जो ऑन हो जाए तो भीतर की पूरी वायरिंग रोशनी से भर जाती है।
लेकिन मंज़िल तक पहुँचने के रास्ते सबके लिए एक जैसे नहीं होते। किसी में काम की ज्वाला है, कोई प्रेम से पिघलता है, कोई तर्क से तपता है, कोई अनुशासन से खिलता है। सनातन परंपरा इसी विविधता को चार राजमार्गों में बदल देती है—कर्म, भक्ति, ज्ञान, राजयोग। कर्मयोग कहता है: परिणाम छोड़ो, अहं छोड़ो, कार्य को पूजा बनाओ। भक्ति कहती है: ईश्वर से अपना निजी रिश्ता बनाओ—माँ, पिता, सखा, प्रियतम—और प्रेम से बह जाओ। ज्ञानयोग विवेक की तलवार है—“यह नहीं, यह नहीं”—जब तक शुद्ध चेतना शेष न रह जाए। राजयोग मन का विज्ञान है—यम से समाधि तक, देह से श्वास और श्वास से ध्यान तक, एक व्यवस्थित चढ़ाई। विवेकानंद किसी एक में कैद नहीं थे; आदर्श मनुष्य वह है जिसमें चारों का संतुलन जगे—हाथ कर्मयोगी, हृदय भक्त, मस्तिष्क ज्ञानी और मन राजयोगी।
यहीं से उनका सबसे सीधा, सबसे गरम लावा जैसा संदेश फूटता है—उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको। “उठो” यानी आलस्य और बहानों की रज़ाई फेंक दो। “जागो” यानी अपने भीतर के सोए हुए वज्र को पहचानो। “मत रुको” यानी एक विचार पकड़ो, उसे रगों में दौड़ा दो, उसे जीओ—और फिर पीछे पलट कर मत देखो। डिग्रियाँ दीवारें सजाती हैं, पर चरित्र इतिहास लिखता है। इसलिए वे शिक्षा को परिभाषित करते हैं—जो चरित्र गढ़े, मन को शक्तिशाली बनाए, बुद्धि को पैना करे और मनुष्य को अपने पैरों पर खड़ा कर दे। पाँच स्व-रत्न वे बार-बार थमाते हैं—आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मसंयम, आत्मत्याग, आत्मज्ञान। यह पाँच मिलकर किसी भी युवा को लोहे की नसें और मोम का हृदय देते हैं—दृढ़ता भी, करुणा भी।
फिर भी, विवेकानंद केवल ‘मैं’ से ‘हम’ तक की यात्रा को अधूरा नहीं छोड़ते। उनका नारा है—नर सेवा, नारायण सेवा। अगर ईश्वर हर हृदय में है, तो भूखे को दर्शन समझाना उसकी भूख का अपमान है। पहले रोटी, फिर रोशनी। इसी सोच से रामकृष्ण मिशन जन्मा—“आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च”—अपनी मुक्ति और जगत के कल्याण, दोनों साथ-साथ। अस्पताल, विद्यालय, आपदा-राहत—यह सब उन्हें साधु का नहीं, साधन का विस्तार लगते हैं। सेवा में अहं का स्थान नहीं; अवसर मिला है तो कृतज्ञ रहो—तुम दाता नहीं, पुजारी हो।
और तब आती है वह शाम, 4 जुलाई 1902—जब बेलूर मठ की निःशब्दता में एक गहरी श्वास के साथ उनका पार्थिव अस्त होता है, पर एक अमर उदय शुरू होता है। वे चले नहीं जाते—उनकी आवाज़ चलती रहती है: “एक और विवेकानंद चाहिए”—अर्थात् हर युग को अपने भीतर का विवेकानंद जगाना है। उनकी विरासत तीन धाराओं में बहती है—आत्मविश्वास जो पराजित राष्ट्र को भी सीना तानना सिखाए, व्यावहारिक वेदांत जो पूजा को सेवा में बदल दे, और सभ्यताओं का सेतु जो सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाए। जीवन की लंबाई नहीं, गहराई मायने रखती है—उन्होंने यही सिखाया और जाकर भी यही छोड़ गए।
अब सवाल हमारी ओर मुड़ता है। तुम, जो यह पंक्तियाँ पढ़ रहे हो—क्या तुम अपने भीतर की महाशक्ति पर भरोसा करने को तैयार हो? क्या तुम अपने लिए एक ऐसा विचार चुनोगे जो केवल कैरियर नहीं, करुणा भी है; केवल कमाई नहीं, कमाई की सही कमाई—सेवा—भी है? सोशल मीडिया की चमक तुम्हें कमजोर दिखाती है; विवेकानंद का आईना तुम्हें विराट दिखाता है। सुबह उठो, शरीर को साधो—क्योंकि कमजोर देह में मजबूत मन नहीं टिकता। दिन के बीच अपने लक्ष्य पर काम करो—फल की चिंता बिना। रात को दस मिनट अपने भीतर झाँको—आज कितनी प्रगति, कहाँ सुधार, किसकी मदद?
यह लेख कोई उपदेश नहीं, एक निमंत्रण है—अपने भीतर के शेर को जगाने का। जब भी हताशा घिरे, आँखें बंद करके अपने आप से कहो—मैं अनंत हूँ, मैं शक्तिशाली हूँ, मैं नहीं रुकूँगा। और अगली बार जब सेवा का अवसर दिखे, उसे “काम” मत समझो—यह पूजा है। यही विवेकानंद का दर्शन है—युवा को सिर्फ प्रेरित नहीं करता, उसे दिशा भी देता है। तो चलो, आज एक निर्णय पक्का करते हैं—हम लक्ष्य चुनेंगे, अनुशासन में ढलेंगे, चरित्र गढ़ेंगे, और रास्ते में मिलने वाले हर मनुष्य में नारायण का दर्शन करके आगे बढ़ेंगे। बाकी सब बातें बाद में; अभी तो बस एक ही शोर—उठो, जागो… और जब तक लक्ष्य न मिले, तब तक मत रुको।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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