विवेकानंद और आधुनिक प्रायोगिक वेदान्त की प्रासंगिकता
स्वामी विवेकानंद केवल एक साधु या दार्शनिक नहीं थे, वे भारतीय आत्मा की वह ज्वाला थे जिसने अंधकार में डूबे देश को आत्मबोध की रोशनी दी। उन्होंने वेदान्त को ग्रंथों से निकालकर जीवन के हर क्षेत्र में उतारा—कर्म, शिक्षा, समाज, राजनीति और आत्मविकास तक। उनके “प्रायोगिक वेदान्त” का अर्थ था– वेदान्त केवल बोलने या पढ़ने की वस्तु नहीं, बल्कि जीने की पद्धति है। उन्होंने कहा, “यदि वेदान्त सत्य है तो उसे प्रयोग में लाओ, और यदि प्रयोग में नहीं ला सकते तो उसे मानने का कोई अर्थ नहीं।” यही विचार आज के युग में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है।
वेदान्त कहता है कि प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा का ही प्रतिबिंब है। विवेकानंद ने इसी को आधुनिक सामाजिक भाषा में रूपांतरित करते हुए कहा– “मनुष्य की सेवा ही ईश्वर की पूजा है।” धर्म को उन्होंने कर्म से जोड़ा, पूजा को उन्होंने सेवा में बदला और ध्यान को उन्होंने करुणा में परिणत किया। इस दृष्टि से वेदान्त अब केवल उपनिषदों का विषय नहीं रहा, बल्कि खेतों, कारखानों, विद्यालयों और अस्पतालों में भी उसका सजीव रूप दिखाई देने लगा। जब वे युवा भारत को संबोधित करते थे, तो उनके शब्द केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि क्रांतिकारी भी होते—“उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य न मिल जाए।” यह आह्वान किसी साधु का नहीं, एक जाग्रत मानव का था जो यह विश्वास दिलाना चाहता था कि हर व्यक्ति के भीतर दिव्यता है।
यदि हम आज के समाज को देखें तो विवेकानंद का यह प्रायोगिक वेदान्त हर स्तर पर आवश्यक प्रतीत होता है। शिक्षा का क्षेत्र हो तो उनका पहला सिद्धांत यही है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण है। उन्होंने कहा था, “शिक्षा वह है जो मनुष्य के भीतर पहले से विद्यमान पूर्णता को प्रकट करे।” आज की प्रतिस्पर्धा, रटंत व्यवस्था और डिग्रियों की दौड़ में हम इस मूल उद्देश्य को भूल गए हैं। विवेकानंद हमें याद दिलाते हैं कि शिक्षा का केंद्र ‘अंतर्निहित शक्ति का जागरण’ होना चाहिए, न कि केवल जानकारी का संचय। यदि यह विचार व्यवहार में आ जाए तो स्कूल केवल परीक्षा केंद्र नहीं, बल्कि आत्म-विकास के मंदिर बन जाएँ।
सामाजिक जीवन में विवेकानंद का वेदान्त समानता और करुणा की नींव रखता है। उन्होंने जाति, धर्म, भाषा और वर्ग की सीमाओं को अस्वीकार करते हुए कहा—“हम एक ही ईश्वर की संतान हैं।” यह वाक्य महज धार्मिक नारा नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता की घोषणा है। आधुनिक भारत में जब विभाजन की दीवारें बढ़ रही हैं, तब विवेकानंद का यह संदेश किसी प्रकाशस्तंभ की तरह खड़ा है। उन्होंने कहा था कि जिस समाज में सबसे कमजोर व्यक्ति को सम्मान न मिले, वह समाज धर्मात्मा नहीं हो सकता। यही भावना आज सामाजिक न्याय, समान अवसर और मानवीय अधिकारों की बुनियाद बन सकती है।
राजनीति में विवेकानंद का दृष्टिकोण भी उतना ही प्रायोगिक था। उन्होंने कहा था कि राष्ट्र केवल सीमाओं से नहीं बनता, वह अपने लोगों की आत्मा से बनता है। उन्होंने भारतीय राजनीति को शक्ति और नैतिकता के सम्मिलन का मार्ग दिखाया। वे कहते थे—“हमारा देश तब तक नहीं उठेगा जब तक हर व्यक्ति यह न समझ ले कि वह देश का उत्तरदायी अंग है।” आज जब राजनीति अवसरवाद और स्वार्थ के जाल में उलझी है, तब विवेकानंद का यह विचार एक शुद्ध दिशा देता है—कि सत्ता सेवा का माध्यम है, न कि स्वार्थ का साधन। उनका “आत्मनिर्भर भारत” का विचार आज के किसी भी सरकारी नारे से दशकों पहले ही स्पष्ट रूप में सामने आया था—“भारत को अपने पैरों पर खड़ा होना होगा, किसी दूसरे के दान या तकनीक से नहीं, बल्कि अपने श्रम और विश्वास से।”
व्यक्तिगत जीवन में विवेकानंद का वेदान्त सबसे गहरा प्रभाव डालता है। उन्होंने कहा—“हर आत्मा संभावित रूप से दिव्य है; उस दिव्यता को प्रकट करना ही जीवन का लक्ष्य है।” आधुनिक व्यक्ति जिस मानसिक तनाव, असुरक्षा और अस्तित्व संकट से जूझ रहा है, उसका समाधान इसी सूत्र में छिपा है। जब मनुष्य यह समझ ले कि उसके भीतर अनंत शक्ति है, तब भय, हीनता और अवसाद का कोई स्थान नहीं रह जाता। विवेकानंद का जीवन स्वयं इसका उदाहरण था—उन्होंने गरीबी, आलोचना और अस्वीकृति सब कुछ झेला, पर अपनी आत्मशक्ति में अडिग रहे। यही उनका प्रायोगिक वेदान्त था—जीवन को संन्यास नहीं, संघर्ष बनाना; निराशा में भी उत्साह बनाए रखना।
उन्होंने पश्चिमी सभ्यता से भी वही ग्रहण किया जो उपयोगी था—कर्मठता, अनुशासन और तर्कशीलता—परन्तु साथ ही वे चेताते भी रहे कि केवल भौतिकता से मनुष्य पूर्ण नहीं होता। उन्होंने कहा था, “पश्चिम ने बाहरी विकास किया है, हमें भीतर का विकास करना है।” आज के उपभोक्तावादी युग में जब मनुष्य के मूल्य लाभ-हानि में तौले जा रहे हैं, तब विवेकानंद का यह संतुलित दृष्टिकोण अत्यंत उपयोगी है। उन्होंने दिखाया कि आध्यात्मिकता और आधुनिकता विरोधी नहीं, पूरक हैं।
विवेकानंद का प्रायोगिक वेदान्त आज पर्यावरण से लेकर आर्थिक नीति तक हर क्षेत्र में नई व्याख्या चाहता है। यदि हम ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ को व्यवहार में उतारें, तो प्रकृति के प्रति हमारा दृष्टिकोण भी श्रद्धामय होगा। तब जंगल केवल संसाधन नहीं रहेंगे, बल्कि सृष्टि के अंग बनेंगे। राजनीति में यह दृष्टि सेवा का रूप लेगी, शिक्षा में यह दृष्टि मूल्यबोध का रूप लेगी, और व्यक्तिगत जीवन में यह दृष्टि शांति का रूप लेगी। यही वेदान्त का ‘प्रायोगिक’ स्वरूप है—विचार को कर्म में बदल देना।
विवेकानंद ने अपने जीवन से यह सिद्ध कर दिया कि वेदान्त केवल सन्यासियों का विषय नहीं है। उन्होंने वेदान्त को युवाओं का, कर्मियों का, वैज्ञानिकों का और समाजसेवियों का दर्शन बना दिया। उनके लिए ध्यान केवल मौन में नहीं, बल्कि श्रम में था; पूजा केवल मंदिर में नहीं, बल्कि मानवता में थी; और ईश्वर केवल आकाश में नहीं, बल्कि हर भूखे, हर निराश, हर पीड़ित व्यक्ति में था।
आज जब मानवता फिर से दिशा खोज रही है—टूटते रिश्तों, खोखले आदर्शों और आत्महीनता के युग में—तब विवेकानंद का प्रायोगिक वेदान्त एक प्रकाश की तरह सामने आता है। यह हमें याद दिलाता है कि मनुष्य का उद्धार किसी बाहरी शक्ति से नहीं, उसके अपने भीतर से संभव है। उन्होंने जो सूत्र दिया था, वही आज भी उतना ही सत्य है—“अपने भीतर की शक्ति को पहचानो, वही तुम्हें ईश्वर तक ले जाएगी।”
विवेकानंद का यह वेदान्त आज के युग का आह्वान है—कि धर्म कर्म बन जाए, अध्यात्म व्यवहार बन जाए, और ज्ञान करुणा बन जाए। यही उनके संदेश की अमरता है, यही उनकी आधुनिक प्रासंगिकता है। वेदान्त अब केवल उपनिषदों की पंक्तियों में नहीं, बल्कि हर जागरूक मनुष्य के हृदय में जीवित है—जो स्वयं को पहचानने की राह पर चल पड़ा है।
डॉ. मुकेश ‘असीमित’

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