वोट से विष तक : नागों का लोकतांत्रिक सफर
देश त्योहारों, परंपराओं और रीति-रिवाजों का देश है। देवता, राक्षस, नाग, गंधर्व, किन्नर, चर-अचर—यहाँ कण-कण पूजा जाता है! अब तो गंधर्व भेष में गर्दभ भी पूजे जाते हैं, देवता के भेष में दानव भी, नर के भेष में नर-पिशाच भी—तो भला नाग क्यों नहीं पूजे जाएँगे!
पूजने और अगरबत्ती लगाने में हम देश के लोग माहिर हैं। जिस किसी को भी महानता की खुजली होती है, हम तुरंत मान लेते हैं, उसकी महानता की कीमत अदा करना चाहते हैं। उसे या तो इतिहास के पन्नों में छापकर भुला देंगे, या फिर उसने अपनी महानता को साबित करने में ज़्यादा ही उत्साह दिखा दिया तो आले में बिठा देंगे, मूर्ति बनाकर चौराहे पर स्थापित कर देंगे—एक आश्रय स्थल बना देंगे कबूतरों के लिए। हर साल माला, अगरबत्ती, भोग, नारियल चढ़ा देंगे, प्रसाद खा लेंगे उसके नाम का। उसका दिवस, सप्ताह, महीना, शताब्दी जैसा कुछ मना लेंगे—चाँदी या सोने जैसी जयंती मना लेंगे। यार, ऐसे मना लेने में बड़ा मज़ा है… अच्छा-खासा चाँदी या सोना काटा जा सकता है! यह वही बात हुई—देवता भले मानें और घर के पूए खाएँ!
इसी आवेश में अब नाग पंचमी भी हर साल आती है, नागों की पूजा होती है, नागों को दूध पिलाया जाता है। असली समस्या है ,दूध पिलाने की l नाग गायब हो गए हैं, छुप गए हैं, ढूँढे नहीं मिल रहे। नाग की पूजा तो सामर्थानुसार पत्थर, चाँदी, सोने से बनी मूर्तियों से कर लेंगे, पर दूध किसे पिलाएँ? नागों ने भी हड़ताल कर ली है। वे कहते हैं—”हमें अब कोई ज़रूरत नहीं। हमसे मुकाबले में अब ऐसे ‘नाग’ आ गए हैं, जिनसे हमें खुद डर लगने लगा है। हमारी जाति संकट में है! ऐसे ‘फेक नाग’ आ गए हैं, जिनके ज़हर ने तो हवा तक जहरीली कर दी है। समुद्र मंथन से निकले गरल से भी लाखों गुना ज़्यादा जहरीला!”
नाग पंचमी पर साँप मिल नहीं रहे। फॉरेस्ट विभाग वालों ने साँपों की सुरक्षा की कवायद कर दी है, सख्ती से कह दिया है कि साँपों को मत छेड़ो भाई, इन्हें दूध पिलाकर तुम मार रहे हो। इन्हें इंसानी दूध की कतई आवश्यकता न थी, न है। ये तो इंसान के पास आने से भी डरते हैं, ये तो अपने बचाव में कभी-कभी काट लेते हैं।
वैसे भी देश में दूध पिलाने की परंपरा सनातनी है। यहाँ तो भगवान की पत्थर की मूर्तियों को भी दूध पिलाया जाता है। फिर साँपों को दूध पिलाने की परंपरा तो हजारों सालों से रही है। महाभारत भी ऐसे ही थोड़ी गढ़ी गई! शकुनि को दूध पिलाया गया—तो उसने संपूर्ण कौरव वंश को डस लिया। दूध पीकर कई जयचंदों ने देश का राजनीतिक इतिहास बदल दिया। यहाँ मुगलों, हूणों, शक, खिलजियों, लोदियों, आततायियों को बुला-बुला कर दूध पिलाया गया—”आओ दूध पियो, हमें डस लो!”
नाग पंचमी तो रिमाइंडर है हम सभी दूध पिलाने वालों के लिए। देखिए आसपास, कितने साँप आपकी आस्तीन में पल रहे हैं! उन्हें दूध पिलाया जा रहा है। नेताजी हर 5 साल बाद आते हैं, उन्हें वोट रूपी दूध पिलाया जाता है। फिर 5 साल तक आपको डसने का काम वो बख़ूबी निभाते हैं।
आम जनता को गरीबी की बीन दे दी गई है—इस पर गरीबी की धुन बजाओ, साँप आने लगेंगे! अपने-अपने मुकुट पर नागमणि धारण किए हुए… नागमणि की चमक ऐसी कि साँप आस्तीन से निकलकर गले में लिपट जाएँगे, और आप गले का हार समझकर उन्हें धारण कर लेंगे।
साँप ढूँढने हैं तो अपनी आस्तीन ऊँची करो, वहीं मिलेंगे आपको साँप! कई छिटक जाएँगे। उनके काटे का कोई इलाज नहीं—कोई एंटी-वेनम नहीं बना! ये पिद्दे से सांप तो फिर भी बाँबी से बाहर निकल आते हैं… ये वो साँप हैं जो बाँबी से बाहर नहीं निकलते। अपनी केंचुली जब चाहें बदल लेते हैं, जब चाहें गिरगिट की तरह रंग बदल लें। भीड़ में छद्म भेष में ऐसे घूमते हैं कि आपके गले में पड़ेंगे तो भी आपको लगेगा जैसे मोतियों का हार पहन रखा है।
जहाँ देखो वहाँ कदमों में लिपटे मिलेंगे, रेंगते-रेंगते तुम्हारे गले तक पहुँच जाएँगे। ये अमरबेल की तरह अबाध बढ़ते हैं। कब संपोलों से नागराज बन जाएँ—पता ही नहीं चलता। कुंडली मारते हैं तो ऐसे कि कितने ही डंडे मार लो सीधे नहीं होंगे! तुम्हारी फाइलों पर कुंडली मारे बैठे मिलेंगे, तुम्हारी लोन की किश्तों पर, मुआवज़े की रकम पर—सब जगह!
बस दूध का कटोरा हाथ में रखो—दूध पिलाना तुम्हारा कर्तव्य नहीं, मजबूरी बन गई है। पहले तो तुमने शौक-शौक में पिलाया, अब इन्हें आदत लग गई!
जनता जान दे दे, पर परंपरा नहीं छोड़े — उसे हर हाल में परंपरा निभानी है। जनता की परंपराओं के लिए नाग विभिन्न रूपों में आ गए हैं। सरकार भी भरसक प्रयास कर रही है कि नागों की कमी न आए। हर जगह बिठा दिए गए हैं—दफ्तरों में, संस्थाओं में, मंत्रालयों में, कोर्ट-कचहरी, संसद, विधायिका—सब जगह। नाम बदल दिए गए हैं, तो क्या? फितरत तो एक-सी ही है। केंचुली बदलने की, गिरगिट के रंगों की तरह खुद को बदलने की, मौका मिलने पर डसने की, दूध पीने की, ज़हर उगलने की, रेंगने की… सबकी है। रीढ़ की हड्डियाँ होती नहीं इनमें, कई बार तो केंचुए की तरह नज़र आते हैं!
अलग-अलग वेशभूषा में जमे हुए हैं, अपने सिर पर अफसरशाही की नागमणि धारण किए हुए, अपने विष के दांतों को छुपाए हुए, बस जीभ दिखाते हैं। दोमुंही जीभ, दोमुखी बातें — लालचाए जीभ सब कुछ कहती है, लेकिन दांत नहीं दिखाती।
हर कोई इन्हें पूज रहा है, अपने-अपने नागों को। कई नाग तो एक से ज़्यादा जगहों पर पूजे जा रहे हैं। जो नाग किसी खेमे में पूजे नहीं जा रहे, वे अपनी केंचुली बदल लेते हैं तुरंत — दूसरे खेमे में जा घुसते हैं। अपने-अपने खेमों पर नागराज कुण्डली मारकर बैठे हैं। जैसे ही संख्या बल कम होता है, दूसरे खेमे के नागों को पाँच सितारा होटलों में ठहराया जाता है, वहाँ उन्हें बढ़िया दूध पिलाया जाता है!
साँप बनना आसान नहीं है, साहब! ज़मीन पर रेंगना पड़ता है, बिलों में छुपना पड़ता है, रंग बदलना पड़ता है। ज़मीन पर रेंगते हैं तो बिल्कुल ऐसे कि पता ही नहीं चलता — कब रेंगते-रेंगते आस्तीन में छिप गए, फिर वहीं पलते रहते हैं, मौका तलाशते हैं कि कब डसें और कब खुद नागराज बन जाएं।
ये खेल चलता रहता है। आम जनता अपने खून-पसीने की कमाई से इन्हें दूध पिला रही है। मध्यमवर्गीय टैक्सपेयर इन्हें टैक्स के रूप में दूध पिला रहा है। ये घोषणाएं करते हैं कि हमें पिलाने के लिए दूध का इंतज़ाम भी खुद ही करेंगे — बस आप हमसे दूध लो और हमें ही पिलाओ।
ये दूध उत्पादन की योजनाएँ बनाते हैं, लंबी-चौड़ी स्कीमें बांटी जाती हैं। जनता को दूध उपलब्ध कराने के लिए दूध की फैक्ट्रियाँ बनाई जाती हैं, टेंडर निकाले जाते हैं, दूध की बंदरबांट की जाती है। जनता से कहा जाता है कि तुम्हें मेहनत करने की ज़रूरत नहीं, ये दूध तुम्हारे किसी काम का नहीं, इसलिए हमने ही बाँट लिया।
थोड़ा बहुत दूध रबड़ी के नाम पर जनता को दे दिया जाता है। और जनता उसी से खुश। वही ,सरकार देखो हमारे बारे मं भी कितना सोचती है ,हमें रबड़ी खिला रहे हैं, और ये खुद दूध पी रहे हैं। क्या हुआ, पाँच साल में एक बार खाने को मिली है , लेकिन रबड़ी तो मिली न! जनता है कई बार मचल जाती है दूध्पीते बच्चे की तरह ढिठाई से — “दूध हमें भी पीना है, दूध हमें भी चढ़ाना है।”
वैसे भी नाग पंचमी नज़दीक आ रही है।तो जनता की मांग बढ़ गयी l सरकार नकली दूध उपलब्ध करा रही है। नकली दूध बनाने वालों को आगे किया जाता है। खूब सारा नकली दूध बन रहा है। जनता को तो बस सफेद रंग चाहिए — वही उसे दूध लग रहा है, चाहे नकली हो, चाहे दूध के रूप में ज़हर ही क्यों न हो! जनता सब पचा लेती है। असली दूध तो वैसे भी सिर्फ ये असली नाग ही पचा सकते हैं।
यह नागों का लोकतांत्रिक सफर है — बस ऐसे ही रेंगता रहेगा। फिर आप कैसे पहुँचेंगे 2047 के “नए भारत” में? मित्रा आपकी तो राम ही जाने!
रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित
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