पालतू कुत्ता — इंसान का आख़िरी विकास चरण
कभी सुना था — “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।”
पर अब लगता है, मनुष्य धीरे-धीरे “पालतू प्राणी” बन गया है — पट्टा अब सिर्फ कुत्ते के गले में नहीं, बल्कि मनुष्य की ईएमआई और सोशल मीडिया की आदतों में भी बंधा हुआ है।
आज का मनुष्य अपने “पालतूपन” की पराकाष्ठा पर है। उसे पालने के लिए अब किसी कुत्ते की ज़रूरत पड़ती है — और यह कुत्ता भी उसके जीवन में यूँ ही नहीं आता। यह आता है अधूरी महत्वाकांक्षाओं के बीच भावनात्मक खालीपन भरने के लिए।
जहाँ पहले लोग बच्चे पालते थे, अब “टॉमी” और “ब्रूनो” पालते हैं — क्योंकि बच्चों की जगह अब डॉग-फूड के पैकेट ने ले ली है।
शादी की परिभाषा भी अब बदल चुकी है — “दोनों जॉब करते हैं, तो डबल इनकम। किड? नो बाबा!”
कहने को ये “नई सोच” है, पर असल में ये “नई बचत योजना” है — बच्चों से बचत की, जिम्मेदारियों से बचत की, और फिर अचानक जब लगता है कि ज़िंदगी में कुछ भावनात्मक स्पाइस की कमी है, तो सोचते हैं — “चलो, एक कुत्ता पाल लेते हैं।”
और यहीं से शुरू होता है भूमिका का उलटफेर — जिसे पालना था, वही अब पालने वाले का स्वामी बन बैठता है।
अब घर में दो नहीं, तीन सदस्य हैं — बस फर्क इतना कि तीसरा बोलता नहीं, पर खर्च उतना ही करता है।
कुत्ते की बर्थडे पार्टी, वेट विज़िट, बिस्किट ब्रांड, डॉग-स्पा — सब कुछ ऐसा जैसे “टॉमी” नहीं, स्विस बैंक अकाउंट हो।
अब तो उसे “पालतू” कहना भी रिस्की है — कहीं कोई “टौमी राईट एसोसिएशन ” अदालत में भावनात्मक क्षति का दावा न ठोंक दे! इसलिए मालिक नहीं, “अडोप्तिव पेरेंट्स ” कहलाइए।
मनुष्य ने जब-जब अपनी अधूरी भावनाएँ किसी और पर डाली हैं — उसने अपनी सारी कमज़ोरियाँ भी उसी में ट्रांसफर कर दी हैं।
भगवान से लेकर कुत्ते तक, हर जगह अब इंसानी असुरक्षाएँ और पालतू आदतें बस गई हैं।
कुत्ता अब कुत्ता नहीं रहा — उसकी अपनी “डॉग-डिग्निटी” भी गुम है। वो अब इंसानी परफ्यूम, डियो, मेकओवर और बिस्कुट ब्रांडों के नीचे दबा पड़ा है।
जो कभी सड़क पर भूखा घूमता था, अब ए.सी. की हवा में डॉग-बिस्किट चबाता है।
और जो मनुष्य दिन में बारह बजे तक सोया रहता था, अब सुबह पाँच बजे उठकर पहले खुद टॉयलेट जाता है, फिर अपने “कुत्ता महाराज” को पोटी करवाने लेकर निकलता है।
कभी मोहल्ले में बच्चों की आवाज़ें गूंजती थीं — अब टॉमी और ब्रूनो की भौंक सुनाई देती है।
माँ-बाप अपने बच्चों को बाहर भेजने से डरते हैं, पर कुत्ता बिना पट्टे के घूमता है।
पीछे से मालिक कहता है — “घबराइए मत, काटता नहीं है।”
पर यह बात कुत्ते को पता है या नहीं — इसकी कोई गारंटी नहीं।
लगता है, अब “पालतू कुत्ता” नहीं, “कुत्तानुकरण काल” चल रहा है।
घर के अंदर टॉमी के लिए ए.सी. चलता है, बाहर मजदूर पसीने में तरबतर।
कुत्ते की स्कूल फीस ₹12,000 महीने — जहाँ वो “दौड़ना” सीखता है!
और इंसान सोचता है — “ग्लोबल वॉर्मिंग बच्चों से बढ़ती है, कुत्ते के कूलर से नहीं!”
आज का नारा साफ़ है — “बच्चे नहीं पालेंगे, पर कुत्ता पालेंगे।”
क्योंकि बच्चा बड़ा होकर सवाल पूछता है — “पापा, आपने मेरे लिए क्या किया?”
और कुत्ता उम्र भर एक ही जवाब देता है — “वॉव!”
शायद इसी “वॉव” में आज का समाज अपने विकास का सबसे कुत्तानुमा सुख ढूँढ़ रहा है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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