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पानी है… मजा है! कहानी -बात अपने देश की

A symbolic digital painting of a barefoot child water-seller walking beside a train at a rural Indian station, under harsh summer sunlight, representing poverty, resilience, and unseen emotional thirst.

पानी है… मजा है!

कहानी:

उस दिन मैं पटना से अपने गांव की ओर लौट रहा था। जून की तपती गर्मी, ट्रेन की भीड़, और खिड़की के पास की मेरी सीट — तीनों मिलकर एक अजीब बेचैनी फैला रहे थे। लेकिन मन हल्का था, क्योंकि घर लौटने का सुकून अपने आप में सबसे बड़ी राहत होता है।

हर स्टेशन पर ट्रेन रुकती, और ठंडा पानी, जूस, चाय-समोसे बेचने वाले लड़कों की आवाज़ें गूंजने लगतीं।
“ठंडा पानी… दस रुपए में एकदम कड़क!”
“फ्रेश जूस… आम का स्वाद, ठंडक के साथ!”

मैं हर बार नज़रें घुमा कर देखता। कुछ चेहरे फुर्तीले होते, कुछ थके-हारे, पर ज्यादातर प्रोफेशनल लगते। साफ़ कपड़े, स्टील की बाल्टियाँ, प्लास्टिक की बोतलें, और दाँत निपोरती मुस्कुराहट।

लेकिन फिर एक छोटा सा स्टेशन आया। नाम मुझे अब तक याद नहीं, लेकिन वहाँ देखा वो चेहरा… जो शायद मैं ज़िंदगी भर नहीं भूल पाऊँगा।

वो लगभग नौ साल का बच्चा था
पैर में टूटी चप्पल, शरीर पर मिट्टी जमी हुई थी।
कंधे पर बोतल से भरा एक पुराना थैला लटका हुआ था।
चेहरे पर पसीना और आँखों में धूप से जलन… लेकिन फिर भी आवाज़ लगाता जा रहा था

“पानी है… मजा है! पानी है… मजा है!”

उसकी आवाज़ में वो आकर्षण नहीं था, जो बाकी लड़कों में था।
उसमें थी एक थकान, एक मजबूरी, और एक मासूम लाचारी।

मैंने उसे पास बुलाया।
उसने कांपते हाथों से बोतल आगे बढ़ाई
पानी गुनगुना था, बोतल साफ़ नहीं थी, पर उस लड़के की उम्मीदें चमक रही थीं।

मैंने पूछा, “पढ़ाई करते हो?”

वो बोला, “सुबह थोड़ा… फिर मम्मी बीमार हैं, इसलिए रोज़ यही करता हूँ।”

उसने जब “मम्मी” कहा — मेरा दिल अंदर से हिल गया।

मैंने दो बोतल लीं — एक उसके लिए भी।

वो चौंका, “मेरे लिए क्यों?”

मैंने कहा, “तू भी इंसान है न… जो दूसरों को पिलाता है, उसे भी हक है प्यास बुझाने का।”

वो हल्का सा हँसा — वो हँसी, जो दर्द की गहराई से निकली थी, और मेरी आत्मा को भिगो गई।

ट्रेन आगे बढ़ गई, वो हाथ हिलाता रह गया, अब भी आवाज़ लगाते हुए
“पानी है… मजा है!”

उस दिन मैंने पहली बार महसूस किया,
कि प्यास सिर्फ गले में नहीं होती… कई बार आंखों में भी होती है।
और पानी सिर्फ शरीर नहीं, रूह को भी ताज़ा करता है — अगर वो इंसानियत से भरा हो।

लेखक: वसीम आलम
(जिला: सिवान, राज्य: बिहार)

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