यह जीत सिर्फ क्रिकेट की कहानी नहीं, भारत की आत्मा का महाकाव्य है—और इसके नायिकाएँ हमारी वही बेटियाँ हैं जो रोज़ सुबह अपनी-अपनी पहचानों के साथ उठती हैं, पर मैदान में उतरते ही एक ही नाम पहन लेती हैं: इंडिया। सोचिए, कप्तानी सिख लड़की ने संभाली, सेमीफ़ाइनल क्रिश्चियन लड़की ने जिताया, बंगाली लड़की की पावर–हिटिंग ने स्कोरबोर्ड को तीन सौ के क़रीब पहुँचा दिया, जाटों की बेटी शेफ़ाली ने फ़ाइनल में ऐसा तूफ़ान चलाया कि Player of the Match की ट्रॉफ़ी मानो उसकी बैट की नोक पर लिखी थी, और ब्राह्मणों की दीप्ति ने पूरे टूर्नामेंट में अपनी सूझ-बूझ, न कि सिर्फ़ कौशल, से खेल को साधकर Player of the Tournament बनकर बताया कि क्रिकेट में दिमाग़ और दिल साथ-साथ जीतते हैं। अलग-अलग नाम, अलग-अलग पृष्ठभूमियाँ—पर एक धड़कन।
फ़ाइनल की सुबह एक बेचैन-सी शांति थी। टॉस फिर गया, जैसे अक्सर चला जाता है। पर इस बार किसी ने कंधे नहीं झुकाए। पहली गेंद से आख़िरी तक, लड़कियाँ ऐसे खेलीं मानो यह केवल मैच नहीं, एक पीढ़ी का आत्मविश्वास दाँव पर लगा हो। स्मृति ने खुलकर साँस दी, साझेदारी रफ़्तार पकड़ती गई। बीच में जब विकेट का सिलसिला थोड़ी देर थम-सा गया, दीप्ति ने वह काम किया जो आँकड़ों में कम और इतिहास में ज़्यादा दर्ज होता है—दबाव को अपने भीतर सोख लिया, स्ट्राइक घुमाई, गलत गेंद का इंतज़ार किया और फिर वही ‘एक’ शॉट जो इनिंग का स्पार्क बन गया।
और फिर आया वह लम्हा जो किसी भी फ़ाइनल को किंवदंती बना देता है—हरमनप्रीत का कैच। गेंद हवा में थी और समय जैसे एक धागे पर टंगा हुआ। स्टेडियम की साँसें ठहर गईं। कैच हाथ में जड़ते ही पूरा देश उछल पड़ा—क्योंकि हम जानते थे, खेल का पेंडुलम इसी पल भारत की ओर झुक गया है। वही हरमन, जो कभी मैदान पर जज़्बे की परिभाषा लगती हैं, उस एक पल में ‘जीत’ का पर्याय बन गईं।
शेफ़ाली—जिसे कभी टीम में जगह न मिलने की खबरों से लोग याद करते थे—फ़ाइनल में चौकों-छक्कों के ऐसे फ़व्वारे चलाती हैं कि विरोधी कैप्टन की फील्डिंग चार्ट एक-दो नहीं, बार-बार फाड़कर नया बनाना पड़े। और फिर गेंद हाथ में आते ही दो अहम विकेट; जैसे कह रही हों, “मैं आई हूँ, और कहानी बदलने आई हूँ।” रिचा घोष की 20-30 रन की वह तेज़-तर्रार पारी जो स्कोरबोर्ड पर छोटी दिखती है, पर मैच की धमनियों में ऑक्सीजन बनकर दौड़ जाती है; लॉन्ग-ऑन के ऊपर से निकला वह शॉट, लेग साइड पर पकड़ा गया वह बिजली-सा कैच—यही वे छोटी लहरें हैं जो मिलकर सुनामी बनाती हैं।
बॉलिंग में रेनुका की नपे-तुले रन-अप से आती धार, राधा यादव की चतुर उड़ती गेंदें, स्नेह राणा के स्पेल जो ‘कंट्रोल’ का पाठ पढ़ाते हैं—और अमनजोत की फुर्ती… हर ओवर में योजनाएँ बदलतीं, एंगल बदलते, फील्डिंग पोज़ीशन किसी शतरंज की बिसात-सी सधी हुई। यह सिर्फ़ प्रतिभा की बात नहीं थी; यह तैयारी, टिकाऊपन और अपने ऊपर अटूट भरोसे की बात थी।
सबसे ज़रूरी बात? इन खिलाड़ियों की व्यक्तिगत कहानियाँ मैदान से कहीं बड़ी हैं। कोई लड़की कभी लड़कों की अकादमी में बाल छोटे कराके घुसती है, कोई स्कूल के मैदान में ‘थ्रो’ के एक कमेंट से क्रिकेटर बनती है, किसी के घर के बरामदे में प्लास्टिक की गेंद से शुरू होता है सपना, तो कोई टीवी पर कपिल देव का कप उठाते देख तय करती है कि अगला फ़्रेम महिलाओं का होगा। ये लड़कियाँ सिर्फ़ ट्रॉफ़ी नहीं उठा रहीं; वे उन लाखों बच्चियों के लिए खिड़कियाँ खोल रही हैं जो अपने मोहल्ले के मैदानों में अभी भी संकोच से बैट पकड़ती हैं। आज उन्होंने बता दिया—क्रिकेट ‘उनका’ भी है, उतना ही जितना कभी ‘हमारा’ कहा गया था।
अब आइए उस सवाल पर जो जीत के शोर में भी हमारे कानों में धीरे-धीरे बजता रहा—जब इन्हीं अलग-अलग पहचानों ने मिलकर हमें विश्वविजेता बनाया तो हम विकास और राष्ट्रनिर्माण के नाम पर इन्हीं पहचानों को दीवार क्यों बना लेते हैं? टीम इंडिया की ड्रेसिंग रूम में किसी का ‘सरनेम’ नहीं, सबका ‘इंडिया’ चलता है। वहाँ सिख की दहाड़, क्रिश्चियन की प्रार्थना, बंगाली की धुन, जाटनी की जिजीविषा और ब्राह्मण कन्या का संयम—सब एक ही धागे में पिरोए नज़र आते हैं। यही मॉडल बाहर भी चाहिए: अलग-अलग सुर, पर एक ही राग।
2 नवंबर 2025 की यह तारीख़ कैलेंडर की सिर्फ़ एक पन्नी नहीं, भारतीय समाज के लिए एक कोमल-सा, पर दृढ़ संदेश है—कि तरक्की का असली शॉर्टकट ‘हम’ है, ‘मैं’ नहीं। इन लड़कियों ने दिखा दिया कि हौसले की कोई जात नहीं, सपनों का कोई धर्म नहीं, और जीत का कोई क्षेत्र नहीं होता। देश तभी आगे बढ़ता है जब पहचानें टकराती नहीं, संगत में बजती हैं; जब फ़ील्डिंग की तरह हर कोई अपनी पोज़ीशन ईमानदारी से निभाता है; जब कप्तान का निर्णय सामूहिक विश्वास बन जाता है।
आज, ट्रॉफ़ी की चमक हमारी आँखों में जितनी देर रहे, उससे ज़्यादा देर यह विचार रहे—कि अगर भारत की बेटियाँ ‘भारत’ बनकर जीत सकती हैं, तो हम सब मिलकर भारत को हर दिन थोड़ा और बेहतर क्यों नहीं बना सकते? बल्ले की वह आख़िरी ‘कड़क’ और स्टंप्स की मीठी ‘टक’ हमें याद दिलाती रहे—यह घड़ी हमारी है, और यह सपनों का मैदान भी। लड़कियों, तुमने सिर्फ़ मैच नहीं जीता—तुमने हमें हमारा सर्वश्रेष्ठ बनने का तरीका भी सिखा दिया।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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