भाग 1
कल्पना कीजिए आप भोर में उठते हैं, आकाश हल्का-सा नील पड़ रहा है, पक्षियों का कोरस अभी शुरू ही हुआ है, और आप अपने भीतर एक दृढ़ संकल्प के साथ दिन की पहली सांस लेते हैं—यही क्षण यजुर्वेद का है, जब जीवन को एक यज्ञ समझकर पहला कर्म किया जाता है। यजुर्वेद केवल वेदी, अग्नि और आहुतियों की तकनीकी निर्देशिका नहीं, यह तो जीवन-शैली का अलिखित अनुशासन है: क्या करना है, कैसे करना है, और सबसे बढ़कर—किस भावना से करना है। यजुस का तात्पर्य है समर्पण और वेद का तात्पर्य है ज्ञान; दोनों मिलकर बताते हैं कि कर्म तब ही सुफल देता है जब वह निस्वार्थता, सजगता और विधि के आलोक में किया जाए। आप पढ़ते हैं, पढ़ाने वाले हाथ से सीखते हैं, खेत में हल चलाते हैं, किसी का मन रख देते हैं, किसी की पीड़ा बाँट लेते हैं—ये सब यज्ञ हैं; अंतर बस इतना है कि कहीं घी और समिधाएँ अग्नि को छूती हैं और कहीं नीयत और परिश्रम लक्ष्यरूप देवता तक पहुँचते हैं। यही कारण है कि यजुर्वेद के मंत्रों में पद्य से अधिक गद्य की सघनता मिलती है—क्योंकि यह वेद केवल गाने का नहीं, करके दिखाने का आग्रह करता है; यह वाक्य-धारा क्रिया के साथ बहती है, जैसे कोई गुरु किसी शिष्य को एक-एक चरण समझाते हुए कह रहा हो: पहले यह करो, फिर यह, अब यहाँ रुककर साक्षी बनो, और अब आहुति दो।
यहाँ एक गहरी बात छुपी है: हर क्रिया का प्रतीक, प्रत्येक सामग्री का संकेत। अग्नि केवल ज्वाला नहीं; वह रूपांतरण की आश्वस्ति है—एक रूप से दूसरे रूप में, स्थूल से सूक्ष्म में, स्वार्थ से सेवा में। घी केवल द्रव्य नहीं; वह समर्पण का पिघला हुआ स्वर है। सामग्री केवल अनाज, जड़ी-बूटियाँ नहीं; वह हमारी आदतें, इच्छाएँ, और अहं तक है—जिन्हें हम सजग होकर वेदी पर रख देते हैं ताकि वे जलकर सुगंध बन जाएँ और अंतर को निर्मल कर दें। यजुर्वेद की यही दृष्टि हमें बताती है कि कर्म का सार केवल बाहरी निष्पादन से नहीं मापा जाता; उसकी नाभि में बैठा भाव उसे पवित्र या अपवित्र बनाता है। आप देर तक मेहनत करते हैं, पर मन में ऊहापोह और कुंठा पल रही है—तो वह कर्म बोझ बनता है; वही काम यदि कृतज्ञता और साक्ष्यभाव में किया जाए, तो वही तप बनकर कौशल और सौंदर्य को जन्म देता है। ऐसा नहीं कि यजुर्वेद बाहरी विधि का महत्व घटाता है—वह तो कहता है कि विधि ही वह नाव है, जो भावना को सुरक्षित पार लगाती है; बिना विधि के भावना बिखर सकती है, और बिना भावना के विधि खोखली हो सकती है।
यही संतुलन समझाने के लिए परंपरा हमें कृष्ण और शुक्ल यजुर्वेद के दो मार्ग दिखाती है: एक में मंत्र और उनकी व्याख्या एक-साथ गुंथी हुई—जैसे चलती-फिरती वर्कशॉप में गुरु हाथ पकड़कर साथ चला रहा हो; दूसरे में मूल पाठ और उसका विस्तार अलग—जैसे पहले सूत्रों को आत्मसात करो, फिर मनन-चिंतन से उसकी परतें खोलो। दोनों मार्ग श्रेष्ठ हैं; मनुष्य-स्वभाव भिन्न हैं, इसलिए सीखने के ढंग भी भिन्न हैं। किसी को चरण-दर-चरण साथ चाहिए, किसी को मौलिक सूत्रों की उजास में स्वतंत्र खोज का अवकाश। यजुर्वेद कहता है—जो भी पथ तुम्हें सजग कर्म की ओर ले जाए, वही तुम्हारा धर्ममार्ग है। महत्वपूर्ण यह नहीं कि तुमने कौन-सी शाखा का श्लोक पढ़ा; महत्वपूर्ण यह है कि पढ़े हुए से हाथ कैसे चलने लगे, भाषा कैसे व्यवहार बनी, और संकल्प कैसे स्वभाव में बदल गया।
इसी से यज्ञ का अर्थ विस्तृत होता है। हवनकुंड से आगे बढ़कर हम देखते हैं—घर की चौखट, दफ्तर की मेज़, खेत की मेड़, अस्पताल का वार्ड, प्रयोगशाला की बेंच—हर जगह छोटी-छोटी वेदियाँ हैं जहाँ हम प्रतिदिन आहुति देते हैं: समय, श्रम, ध्यान, ईमानदारी, करुणा। देवता भी रूप बदल लेते हैं—कभी लक्ष्य, कभी समुदाय, कभी प्रकृति, कभी स्वयं की श्रेष्ठ संभावना। और अग्नि? वह एकाग्रता की, विवेक की, प्रयत्न की लौ है—जिसमें डाली गई हर आहुति कुछ न कुछ रूपांतरित करती है: आलस्य का घनत्व हल्का होता है, क्रोध का कालापन राख बनता है, मोह का धुंधलका साफ़ होता है। यजुर्वेद इस जीवन-शिल्प को विधियों, मंत्रों और दृष्टांतों से सींचता है ताकि मनुष्य कर्म के मैदान में बिखरे नहीं, बहके नहीं, थके नहीं—बल्कि अपने-अपने स्वधर्म में प्रसन्न, दृढ़ और उपयोगी बने।
इस समूचे ताने-बाने में मंत्र केवल शब्द नहीं, ध्वनि-रचनाएँ हैं—जिनमें उच्चारण का विज्ञान, श्वास का अनुशासन और मन-रचना का ध्यान गुंथा है। यजुर्वैदिक मंत्र क्रिया को प्राण देते हैं—मानो किसी काम से पहले कोई स्विच ऑन कर दिया गया हो, जिससे भीतर का नेटवर्क प्रकाशमान हो जाए। आप भी अनुभव करते हैं—किसी सार्थक वाक्य का प्रतिदिन जप, कोई सत्यवचन जिसे आप सुबह-शाम स्मरण करते हैं, कैसे दिन की दिशा बदल देता है। यही मंत्र का सिद्धांत है: अर्थ से पहले कंपन, कंपन से पहले सजग-श्वास, और इन सबके बाद निष्पक्ष साक्षी-भाव, जिसमें कर्म सहज हो जाता है। यहीं से यजुर्वेद का बड़ा वचन जन्म लेता है—फल पर नहीं, कर्म पर अधिकार; क्योंकि फल तो अनेक कारकों की संधि से बनता है, पर कर्म की शुद्धि अभी, इसी क्षण, आपकी मुट्ठी में है।

भाग 2
अब इस विचार को और भीतर ले चलें—जहाँ वेदी देह बन जाती है और अग्नि विवेक। यजुर्वेद का सबसे प्रखर रूप बाहरी वेदियों से भी सूक्ष्म है: वह आंतरिक यज्ञ, जिसमें हम प्रतिदिन अपने दुर्गुणों को पहचानकर, उन्हें ज्ञानाग्नि में समर्पित करते हैं। कोई तीखा शब्द जिह्वा की नोक तक आया और आपने उसे लौटा दिया—यह एक आहुति थी। कोई आसान-सा छल हाथ पकड़ रहा था और आपने ईमानदारी की ओर दृष्टि टिकाए रखी—यह दूसरी आहुति थी। कोई पुराना रोष स्मृति में उबलने लगा और आपने क्षमा का जल उंडेल दिया—यह तीसरी आहुति थी। इस अलक्षित वेदी पर ही चरित्र पकता है, और चरित्र ही कर्म का छुपा हुआ इंजिन है—जो दिशा भी देता है, गति भी। इसलिए यजुर्वेद केवल बाहर की व्यवस्था नहीं सिखाता, वह अंदर की व्यवस्था का आग्रह करता है—कि बुद्धि पुरोहित बने, प्राण ईंधन बनें, और मन एकाग्र, प्रसन्न, निर्मल साक्षी बनकर देखता रहे कि कौन-सा संसकार आग चाहता है और कौन-सा गुण रक्षा।
इसी आंतरिक साधना का विस्तार जब घर, मोहल्ले, नगर और राष्ट्र तक जाता है तो यज्ञ सामाजिक हो उठता है। कोई बोझ अकेला नहीं उठाया जाता; जैसे वेदी के पास अनेक हाथ मिलते हैं, वैसे ही समाज के कामों में अनेक भूमिकाएँ जुड़ती हैं—ज्ञान का यज्ञ, सेवा का यज्ञ, अतिथि-सत्कार का यज्ञ, प्राणियों के प्रति करुणा का यज्ञ। यहाँ यजुर्वेद हमें “हम” की व्याकरण सिखाता है—संगच्छध्वं, संवदध्वं—एक साथ चलो, एक साथ बोलो, अपने मनों को समस्वर बनाओ। एक राष्ट्र तभी फलता है जब ज्ञानी, शूर, किसान, श्रमिक, उद्यमी, कलाकार—सब अपने-अपने स्वधर्म में श्रेष्ठता की आहुति देते हैं। तब वर्षा समय पर होती है—केवल बादलों से नहीं, बल्कि मनुष्यों के परिश्रम-मेघ से; तब फसलें लहलहाती हैं—केवल खेतों में नहीं, नीतियों, संस्थाओं और संस्कृतियों में भी। यजुर्वेद इस नागरिक-धर्म को पवित्रता देता है: कर चुकाना, नियम निभाना, मत देना, वृक्ष लगाना, पानी बचाना—ये सब हवन की छोटी-छोटी हथेलियाँ हैं, जिनसे राष्ट्र-वेदी पर समिधाएँ चढ़ती हैं। जब हम स्वार्थ का धुआँ कम करते हैं और सहयोग की लौ बढ़ाते हैं, तब सार्वजनिक जीवन का वातावरण भी स्वच्छ होता है—मानो मंत्रोच्चार से पहले की गई वेदिव्यवस्था की तरह।
फिर भी, यजुर्वेद इतना भर पर रुकता नहीं। वह पूछता है—अंततः यह सारा कर्म किसलिए? उत्तर धीरे-धीरे ईशावास्य की उजास में खुलता है: संसार में जो कुछ गतिशील है, सबमें ईश्वर-व्यास है; इसलिए भोग भी करो, पर त्याग-भाव से; उपयोग करो, पर स्वामित्व-लोभ से मुक्त होकर। यह दृष्टि कर्म को आसक्ति से अलग करती है—मानो आप जीवन के ट्रस्टी हैं, मालिक नहीं। जब यह भाव मन में जमता है, तो लोभ, ईर्ष्या और भय के धुंधलके स्वयं छँटने लगते हैं। आप खूब काम करते हैं—क्योंकि कर्म आपका धर्म है—पर कर्तृत्व का अहंकार नहीं पालते; आप वस्तुओं का उपभोग करते हैं—क्योंकि शरीर और समाज की आवश्यकताएँ हैं—पर उनमें अपना स्वरूप नहीं खोजते। यही वह महीन रेखा है जहाँ कर्म मुक्तिद्वार बनता है। यजुर्वेद कहता है—सौ वर्षों तक कर्म करो, पर इस समझ के साथ कि तुम निमित्त हो, साधन हो; असली कर्ता वह व्यापक चेतना है, जो सबमें समान है। जब यह एकत्व-ज्ञान आँख में बसता है, द्वेष का विष उतर जाता है; तुम दूसरे में अपना प्रतिबिंब देखने लगते हो—और जहाँ अपना ही चेहरा दिखता है, वहाँ कठोरता कैसे टिके?
आधुनिक जीवन में यह सब कोई असंभव तप नहीं; यह तो साधारण-सी आदतों का परिष्कार है। दिन की शुरुआत दो मिनट की कृतज्ञ-श्वास से—मानो पहली आहुति आ पहुँची। काम से पहले एक स्पष्ट, सच्चा संकल्प—आज सत्य बोलूँगा, समय पर पहुँचूँगा, ध्यान से सुनूँगा—मानो दूसरी आहुति दी गई। दोपहर में एक छोटा-सा विराम—मन के तापमान को देखना, उबल रहा हो तो शीतलता की छींटें मारना—तीसरी आहुति। शाम को थोड़ी करुणा की मशक—किसी अनदेखे जीव के हिस्से के लिए जल, दाना, दुलार—चौथी आहुति। रात को आत्मावलोकन—आज किस दुर्गुण की राख बनी, किस गुण ने चिंगारी पकड़ी—पाँचवीं आहुति। यह किसी ग्रंथ की कठिन परीक्षा नहीं; यह यजुर्वेद का रोज़मर्रा का व्याकरण है, जो कर्म को पूजा और जीवन को उत्सव बना देता है।
और जब कभी मन डगमगाए—फल की चिंता, तुलना का कसाव, असफलता का कोलाहल—तब वही मूल वचन स्मरण हो: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म पर है; फल प्रकृति के निश्चेतन नहीं, चेतन समीकरणों से जन्मता है, समय लेता है, मार्ग चुनता है। तुम्हारा काम है आहुति शुद्ध रखना—नीति, नीयत और निपुणता की त्रिवेणी से। जो शुद्ध रखा गया है, वह कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में प्रकाश ही देगा—कभी अभी, कभी आगे, कभी तुम्हारे पास, कभी किसी अनदेखे के हाथ। यही यजुर्वेद का भरोसा है—कि कर्म जब यज्ञ बनता है, तो उसका प्रसाद केवल करने वाले तक सीमित नहीं रहता; वह वातावरण, समुदाय और आने वाले समय तक पहुँचता है।
अंत में बस इतना—यजुर्वेद तुम्हें जंगल नहीं भेजता, जीवन में टिकाता है; वह भागने का नहीं, रूपांतर का वेद है। वह कहता है: जहाँ हो, वहीं वेदी है; जो कर रहे हो, वही आहुति है; जैसे कर रहे हो, वही तुम्हारा सत्य है। यदि तुमने नीयत की लौ जलाए रखी, विधि की नाव संभाले रखी, और भीतर के पुरोहित—बुद्धि—की सलाह मानते हुए आगे बढ़ते रहे, तो न तुम्हें कर्म बाँधेंगे, न फल भ्रमित करेंगे। तुम काम करोगे, दुनिया का रस लोगे, पर भीतर एक अचल मौन से जुड़े रहोगे—और वही मौन तुम्हारी अग्नि को लगातार शुभ्र, उज्ज्वल और उदार बनाए रखेगा। यही यजुर्वेद की दीक्षा है: कर्म को करुणा से, करुणा को कौशल से, और कौशल को समर्पण से बाँधो—देखोगे, जीवन स्वयं महायज्ञ बन उठेगा, और तुम—अपने ही हाथों निर्मित प्रकाश में—नए, हल्के, गाढ़े अर्थ से भरते चले जाओगे।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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