स्मरणों की सरिता में एक दिन – लायंस क्लब सार्थक का अविस्मरणीय यात्रा-वृत्तांत
बीते दिन की हमारी वन विहार कार्यक्रम की यात्रा कोई साधारण आयोजन नहीं था। वह एक ऐसा अनुभव रहा जिसे शब्दों में बाँधना वैसा ही है, जैसे झरने की कलकल ध्वनि को किसी बोतल में बंद करने की कोशिश करना।
यूं तो वन विहार का अर्थ हम शहरवासियों के लिए यही रहा है कि घर से बने-बनाए अचार-परांठे का कंटेनर पकड़कर शहर के एकमात्र झरना-स्थली, पर्यटक स्थल, तीर्थ स्थल,जल-प्रपात —जो भी आप कहें—धुंधेश्वर धाम की ओर निकल जाएं। वहां जाकर अनधिकृत पार्किंग वालों को पचास रुपये की वसूली देकर, डरते-गिरते, फिसलते हुए, ऊँची-नीची सीढ़ियाँ पार करके झरने के पास पहुँचा जाए।
वहाँ पहले से झरने की एक धार से सराबोर होने के लिए पचास लोग लाइन में खड़े मिलेंगे, जो जैसे-तैसे फिसलन भरे पत्थरों पर पैर जमा कर झरने की धार में खुद को अधारावाहिक रूप से एक ही किश्त में बहे जाने से बचाते हुए, किसी तरह झरने के चंगुल से निकलकर बाहर आते हैं। फिर घर से लाए गए टिफिन को खोलकर, कुछ गीदे हुए बंदरों और कुत्तों की नज़र से बचाते हुए खा लेते हैं और घर चले आते हैं। और फिर श्रीमती जी से कहते हैं—“इस साल की रीरी (पिकनिक) समाप्त हुई, अब अगले साल ही बोलना।”
पर यही स्थान मेरे लिए एक बर्डिंग हेवन जैसा है, जिसे सिर्फ मैं ही मान्यता देता हूँ। पुजारी जी इस धाम के, कह-कह कर थक गए कि यह पुराना शिवलिंग है, जिसकी स्थापना हजारों साल पहले पांडवों के वनवास के समय हुई थी। उन्होंने कुछ समय यहाँ शरण ली थी। यह शिवलिंग भी उन्ही के द्वारा स्थापित हुआ है ! जो गौमुखी से जल धरा आती है ,यह गुप्त गंगा है ! इस देश का कोई भी उपेक्षित शिवलिंग यदि बचा हुआ है, तो वह एक पांडव-निर्मित कथा ,और उस पर गिर रही गुप्त गंगा की जलधारा के सहारे ही जीवित है।
पुजारी जी मुझसे खफा थे, क्योंकि मैं न तो किसी धार्मिक प्रयोजन से आता था, न ही शिवलिंग पर जला चढ़ाकर मुँह मांगा कार्य पूर्ण करता था, और न ही बदले में उन्हें कुछ दान-दक्षिणा देता था। इसलिए मैं पुजारी जी की नज़रों से बचकर ही, पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर के अहाते में फोटोग्राफी कर चुपचाप निकल जाया करता था।
वैसे भी शहर में सब जानते हैं, इसलिए कहीं छुप-छुपाकर पिकनिक करते हुए पकड़ा भी गया तो लोग यही कहेंगे—
“यार डॉक्टर साहब! आप भी?”
“आप क्या मरीज़ों को छोड़कर यहाँ पिकनिक मनाने आ गए? कम से कम ये जगह तो हमें आमजनों के लिए रहने दीजिए!”
हर साल दो-चार मनचले नौजवान ,बिगडैल बच्चे अपनी उद्दंड और उच्छृंखल प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए हाथ-पैर तुड़वाकर मेरे पास आते हैं, तो मुझे लगता है कि झरना अपने पूरे शबाब पर है।
ख़ैर, हम बात कर रहे हैं अपने यात्रा-वृत्तांत की—एक दिन की हमारे संस्था लायंस क्लब सार्थक की वन विहार यात्रा, जो आयोजित की गई सीता माता मंदिर, सवाई माधोपुर के पास।
खूबसूरत यात्रा… पिकनिक का मज़ा यात्रा के दौरान ही आने लगा। जब यात्रा खूबसूरत हो, तो मंज़िल की जुस्तजू क्यों करे? रास्ता भी आनंदमय रहा – और यात्रा की परिणति अंत्याक्षरी, संगीत और नृत्य में हुई।
अंत्याक्षरी में महिला और पुरुष वर्ग दो खेमों में बंट गए। दोनों ही पक्ष पूरी तैयारी के साथ आए थे। मतलब अपने मोबाइल से लेस और फुल नेटवर्क के साथ l गूगल बाबा से पूछ-पूछकर गानों के बोल जतन से इकट्ठे कर लिए थे। एक ही गाने को दो बार गाकर, चार बार पेश कर एक ग्रुप ने दूसरे ग्रुप की स्मृति का परीक्षण लिया कि यह गाना पहले हो चुका है या नहीं। चल गया तो तीर, नहीं तो तुक्के का सहारा तो है ही!
पुरुष वर्ग ने अपनी बेईमंटी खाने की नैसर्गिक प्रतिभा, जो स्कूली जीवन से अर्जित की थी, का शानदार प्रदर्शन किया। जिसे संज्ञान में लाकर महिलाओं ने कानाफूसी करते हुए इसे निहायत ही घोर स्त्रीविरोधी गतिविधि बताया। उन्होंने शोर मचाकर, नोकझोंक करके और “घर पर चलो, वहाँ बताते हैं कौन जीता कौन हारा है!” जैसी धमकियों से अपनी जीत दर्ज करवाई।
अब आई नृत्य कला के प्रदर्शन की बारी।
शादी की बारात की भीड़ और चलती बस में नृत्य प्रदर्शन में कला के अप्रतिम, अनूठे सौंदर्य की जड़ छुपी है। यह कला नैसर्गिक प्रतिभा होती है – भीड़ में डांस तो फिर भी आप अपने आसपास अपनी कोहनियों की मार से जगह बनाकर कर ही लेते हैं। आप एक पैर या दूसरे पर खड़े होकर, या दोनों पैरों को हवा में करके ,लंगड़ाते हुए, गिरते-संभलते, हाथ-पैर मारते, जैसे डूबते पानी से खुद को बचा रहे हों – वैसे भी डांस कर ही लेते हैं।
लेकिन चलती बस में बिना लुढ़के-कूदे, ऊपर-नीचे गिरे बिना, दूसरों पर न चढ़ते हुए, हाथ-पैरों को बस के धक्कों से भी बचाते हुए और उन्हीं को नृत्य के लिए यथोचित उपयोग में लाना – यह एक साहसिक कार्य था, जिसे कुछ नृत्य-सम्राटों ने बखूबी अंजाम दिया।
नाश्ते में मूँग का हलवा और पकौड़ी के साथ सवाई माधोपुर की मसालेदार कचौरी थी। मसालेदार का मतलब खूब मिर्चीदार ! वह कचौरी नहीं थी – स्वाद का एक तीर्थ था! जब तक सरकार समोसे के साथ कचौरी पर भी “लीगल एडवायजरी” का बोर्ड नहीं टंगवा देती, तब तक उसका कोई मुकाबला नहीं।
जिस दिन कचौरी को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक जैसे कंटीले वाक्यों से बदनाम किया जाएगा—वह दिन गंगापुरीवासियों के लिए शर्म से डूब मरने वाला दिन होगा। कचौरी का न होना, उनके जीवन से जान निकल जाने जैसा है। वहीं मूँग का हलवा और पकौड़ियाँ चहक-चहक कर गालों से होकर दिल तक जा पहुँचीं।
ज़मीन पर जाजम बिछाकर महफ़िल दोबारा सज गई। बैनर लगाकर फोटो खिंचवाने के बाद अगले पड़ाव की तैयारी हो गई—यानी झरने में नहाने का आनंद।
मौसम ने भी जैसे इस उत्सव में भागीदारी निभाई। रेड अलर्ट के बावजूद बारिश ने सहमति की मुहर लगाई—मानो बादलों ने कर्फ़्यू तोड़कर हमें अनुमति दे दी हो। झरना एकदम सुरक्षित था—फिसलन की संभावनाएं नगण्य थीं। वैसे भी, वहाँ फिसल कर गिरा नहीं जा सकता था। पहली बात तो यह कि भीड़ इतनी थी कि आप ढंग से फिसल भी नहीं सकते!और अगर फिसलने का मन हो भी तो आप इससे पहले की फिसल कर नीचे जाएँ ,कोई न कोई आत्मा शरीर रूप धारण करके आपके मंसूबों पर पानी फेर ही देगीl
यह निर्णय भी अत्यंत उपयुक्त रहा कि हमने सवाई माधोपुर के उन कुख्यात झरनों के बजाय इस सीता माता वाले शीतल, निर्मल और सौम्य झरने को चुना।
बाक़ी झरने अपने प्रबल प्रवाह, फिसलन भरे रास्तों और दुर्गमता के कारण बदनाम थे। इस समय वहाँ आदमखोर टाइगरों की कुछ चर्चित घटनाएँ और कुछ अफवाहें उन स्थानों को और भयावह बना रही थीं। वैसे भी, ये अन्य झरने इस मामले में विशेष कुख्यात हैं कि हर साल एक-दो नरबली ये झरने अपनी खुराक में लेते ही हैं। और इस मान्यता को पुष्ट करने के लिए कुछ युवा साथी, कुछ ख़ास दिखाने के जोश में, वहाँ जाकर सुरक्षा निर्देशों की अवहेलना करते हुए ‘शहीद’ हो जाते हैं।
हमने इसलिए सीता माता मंदिर स्थल को ही चुना।
वहाँ पहुँचने पर भीड़ अच्छी-खासी थी—रविवार था, सावन का महीना था, और बारिश नहीं थी—इसलिए भीड़ का होना स्वाभाविक था।
स्थल के अहाते में टिपिकल अस्थायी मेले जैसा माहौल था,कुछ चद्दर और बल्लियों के सहारे खडी हुईदुकानों में तेल जैसे खाद्य पदार्थों में पकौड़ियाँ तली जा रही थींl छुट- कर सामान बेचने वाले ठेले भी अपनी दुकानदारी में व्यस्त थे। वहीं कुछ लंगूरों के झुंड भी श्रद्धालुओं के हाथों चने चबाकर पुण्य लाभ दे रहे थे।
हमारे देश की खासियत है , यहाँ पिकनिक स्पॉट भी मात्र पिकनिक स्पॉट नहीं होते, वे श्रद्धा के केंद्र होते हैं। हर पिकनिक स्थल पर एक मंदिर, शिवालय, कुछ भिखारी, कुछ अस्थायी दुकानदार, और आपके पुण्य कार्य को भगवान तक पहुँचाने वाले ‘एजेंट’ मिल ही जाते हैं—जिनमें पुजारी के साथ-साथ लंगूर, कुत्ते, कौवे आदि भी शामिल होते हैं।
कई दुकानदारों ने लंगूरों से गठजोड़ कर रखा था—उन्होंने अपनी दुकान के पास ही उन्हें बिठा रखा था, ताकि उनकी दुकान से ही चना खरीदा जाए और वहीं से लंगूर को खिलाकर पुण्य अर्जित किया जाए। पुण्य लाभ की ऐसी ‘डोर डिलीवरी’ आपको कहाँ मिलेगी?
एक सज्जन ने जब दूसरी दुकान से चना लाकर झुंड में बैठे लंगूरों को खिला दिया, तो दुकानदार बिफर गया। वह उस ग्राहक और लंगूरों की इस बेवफाई से आहत हुआ और दोनों के पीछे लाठी लेकर दौड़ पड़ा!
इधर हम झरने की ओर निकल चुके थे।
झरने पर माहौल में शोर-शराबा चरम पर था। झरने की आवाज़ को दबाने के लिए झरना-प्रेमी गला फाड़कर चिल्ला रहे थे! धक्का-मुक्की, आगे निकलने की होड़, सेल्फी का उन्माद, और झरने की प्रत्येक बूँद को फोटोजेनिक बनाने की अकथनीय लालसा—सब कुछ वहाँ मौजूद था। लगता था मानो हर कोई झरने की एक-एक बूँद को अपनी आत्मा में समाहित कर लेना चाहता है।
हमारा समूह इस दृश्य से भयाक्रांत था। पहले तो नीचे के छोटे-से कुंड में डुबकी लगाकर कार्यक्रम को सरकारी औपचारिकता जैसा रूप देने की सहमति बनी। लेकिन फिर कुछ सदस्यों ने झरने के उद्गम स्थल का पता लगाने के लिए ऊपर चढ़ने की ठानी।
बाकी साथियों ने भी हिम्मत दिखाई और थोड़ी ही देर में हमने खुद को झरने के नीचे पाया। साथियों ने हाथ पकड़कर हमें झरने के अंदर खींच लिया।
ऊपर से गिरता पानी इस कदर तड़ातड़ मार कर रहा था जैसे सिर पर हथौड़े चल रहे हों। हमें लगा, कहीं हमारा सिर ही अलग न हो जाए! हम अपनी गर्दन के नीचे अपने शेष बचे शरीर को खींचते हुए लाये ,इस तरह सिर को सहारा देने की कोशिश की।
थोड़ी ही देर में हमारे साथियों ने पूरे झरने को जैसे हाईजैक ही कर लिया। “जय बोल बंसीवारे की जय!” से माहौल गूँज उठा—यही नारा हमारे लिए असंख्य घड़ियाल, दुंदुभि जैसा है जिसकी सहायता से हम किसी भी अद्रश्य दुश्मन को ,जो की गंगापुर शाहर के बाहर का है ,उसे बिना बात के ,या बात बात पर ललकार सकते हैं ।”सावधान… गंगापुरीया आ चुके हैं!”
जहाँ कहीं भी शहर के चार लोग किसी रैली, सत्संग, शादी के तोरण-द्वार या सामूहिक आयोजन में मिल जाएँ, तो अपनी छाप छोड़ने का यही तरीका होता है l
कुछ देर के अंतराल में हम झरने में नहाते रहे। बाकी समय पास ही ऊबड़-खाबड़ चट्टानों की सिलाओं पर निचुड़ते रहे।
कुछ झरना-प्रेमी, अपने प्रेम के आभामंडल को और विस्तृत करने हेतु प्रेमपूर्वक अंग-प्रदर्शन भी कर रहे थे। झरने के पास ही पत्थरों की चट्टानों पर लंबवत लेटकर, किसी जीवंत गैलरी की भांति, अपनी संवरी हुई देहयष्टि को ऐसे सजाए बैठे थे जैसे खेतों में डराने के लिए बनाए गए बिजूके हों ।
उनकी बल्लीनुमा जैसे सींकिया बॉडी पर एकमात्र चड्ढी लटक रही थी। एक हाथ सिर के नीचे और दूसरा हाथ अपनी नवपल्लवित मूँछों को ताव दे रहा था – और उससे प्रेम का खुला निमंत्रण देते हुए दृश्य ऐसा रचा गया था कि मुझे टाइटैनिक फ़िल्म का वह प्रसिद्ध दृश्य याद आ गया – जहाँ हीरोइन को पेंटिंग के लिए ठीक इसी तरह लेटाया गया था।
इस सौंदर्य-दर्शन का लाभ काफी देर तक लिया गया।
इस प्रकार झरनों के बीच दो घंटे की जलविहार यात्रा – कलकल बहती निर्मल सरिता के बीच, ठंडे जल से संघर्ष करते, छींटे मारते, गिरते-पड़ते, गलियाते , हँसते-हँसाते कब बीत गई – पता ही नहीं चला।
वहाँ से निबटकर हम मंदिर में सिर झुकाकर, दो-चार फोटो श्रीमती जी के साथ और वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य के संग खिंचवाकर नीचे पहुँचे, जहाँ भोजन की तैयारी चल रही थी।
पानी में नहाने का श्रम एक अलग ही थकान देता है – और हमने तो जल-क्रीड़ा की थी, तो थकावट स्वाभाविक थी। और इस जल-क्रीड़ा में पेट में पड़ा नाश्ता भी पूरी तरह खप चुका था, इसीलिए भूख अलग ही अंगड़ाई ले रही थी।
हम जैसे कई पार्टियाँ वहाँ पहले से मौजूद थीं, जिन्होंने अपने-अपने जाजम बिछाकर स्थान सुरक्षित कर रखा था। भोजन-स्थल पर दस-बारह भट्ठियाँ जल रही थीं – पूरे वातावरण में पकते भोजन की मोहक सुगंध तैर रही थी। हमारे दल के रसोइयों के द्वारा दाल-बाटी-चूरमा पूरे उत्साह से कूटा जा रहा था। भूख इस सुगंध से और बढ़ चुकी थी।
तभी हमारे एक साथी, किसी दुसरे दल के भोज्य-कार्यक्रम से कुछ गरम पूए उठा लाए – यह एक प्रकार से ‘एपेटाइज़र’ था। गुलगुले देखकर कौन परहेज़ करता?
इसी बीच हमने बैनर पर नज़र डाली कि दो-चार फोटो और समूह-चित्र लिए जाएँ, लेकिन बैनर नदारद था। पूछताछ करने पर ज्ञात हुआ कि किसी दल ने उसे अपने नितंबों को शरण देने के लिए जाजम की तरह उपयोग में ले लिया था।
फिर दाल-बाटी-चूरमा आ चुका था। सबने चाव से भोजन किया। थकान अब पूरी तरह हावी थी – अब बस चारपाई की ही दरकार थी। सभी के मन में यही चल रहा था कि कोई चारपाई मिल जाए तो वहीं पसरा जाए।
मुझे यूसुफ़ जी की एक रचना याद आ गई –
“इंडिया में कोई भी फर्नीचर ऐसा इजाद नहीं हुआ जो बैठने और सोने – दोनों का काम एक साथ नहीं कर सके।”
इसलिए कुर्सियाँ हमारी संस्कृति की देन नहीं हैं। हमने चारपाई इजाद की!
ख़ैर, क्या कहें – कुछ साथी जाजम पर ही लुढ़ककर सुस्ताने लगे। तभी बस वाले ने इस आराम में खलल डालते हुए सबको बस में बैठने की गुहार लगाई।
आते वक्त जो धमाचौकड़ी मची थी, जाते समय वही धमाचौकड़ी अपने पैर समेटे, लुटी-पिटी इज़्ज़त लिए, बस के कोने में दुबकी पड़ी रही। नींद भरी थकी आँखें और झुकी पलकें, इस मधुर यात्रा के मधुर संस्मरणों की फ्लैशबैक में खोई हुई थीं।
“उतरो-उतरो, गंगापुर आ गया है!” — इस घोषणा के साथ हमारी यह यात्रा समाप्त हुई।
यह कोई साधारण पिकनिक नहीं थी – यह ‘एक दिन, एक जीवन’ जैसा अनुभव था। ऐसी स्मृतियाँ जीवन में बहुत कम आती हैं। और जब आती हैं, तो केवल संजोने के लिए नहीं – साझा करने के लिए भी होती हैं।
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