**दिवाली के बाद**
दिवाली अभी पूरी तरह से आयी भी नहीं, और उससे पहले ही “दिवाली के बाद” का स्वर चारों ओर गूंजने लगता है। शादी, ब्याह, गौना, सगाई, पढ़ाई, लिखाई, लड़की दिखाई, उधारी की उगाही, निराई, गुड़ाई, सुबह की घुमाई (मॉर्निंग वॉक), बिल की भरपाई, किश्त चुकाई, नैन लड़ाई… जो भी करने से रह गया या जो करने का मन नहीं है—सबके लिए एक ही बहाना: “अब तो दिवाली के बाद।”
घर में बच्चों की नयी-पुरानी फरमाइशों को रोकने के लिए, पति अपने सीमित बजट में से घूमने के प्लान को स्थगित करने के उद्देश्य से, और पत्नी अपनी गृहस्वामिनी की धौंस को बनाए रखने के लिए बस यही कहते नजर आएंगे, “अरे, देखते नहीं दिवाली सर पर है, अब दिवाली के बाद।”
और हां, याद रखें, पति देव को खास हिदायत: दिवाली के टेस्ट मैच का अभी ड्रेस रिहर्सल चल रहा है—मसलन साफ-सफाई, रंगाई-पुताई। और तुम हो कि बिस्तर पर औंधे मुंह पड़े बीवी को हिदायत दे रहे हो, “डार्लिंग, आज खाने में पनीर टिक्का बन जाए तो…।” कसम से हमें वहीँ से गरिया देना अगर यह सुनने को न मिले, “तुम्हें शर्म नहीं आती… पनीर टिक्का सूझ रहा है? देखते नहीं, साफ-सफाई में तुम्हारी श्रीदेवी फूलन देवी बन गई है। यूँ तो नहीं, थोड़ा हाथ बंटाओ, जाओ चढ़ो ऊपर ताक पर, झाड़ू लो हाथ में, और हां, खाना मंगवा लो होटल से। अब जो भी फरमाइश है तुम्हारी, सब ‘दिवाली के बाद’।”
अभी दिवाली के पटाखे-फुलझड़ियों की दुकानें सजनी बाकी हैं, मिठाइयों के थाल सजने बाकी हैं, लेकिन “दिवाली के बाद” के पटाखे-फुलझड़ियां चलना शुरू हो गए हैं। ‘दिवाली के बाद’ के रैपर में सजी बहानेबाज मिठाइयां लोग एक-दूसरे के मुंह में डालकर मानो उनके मुंह बंद कर देना चाहते हैं।
जैसे ही दिवाली नज़दीक आती है, बहानों के धुरंधर योद्धाओं को मानो अमरत्व की पुड़िया मिल जाती है। जो लोग कर्ज़ लेते हैं, उनकी असली दिवाली तभी आती है। यही वो समय होता है जब वे निश्चिंत, निर्भीक और निडर होकर बाजार में घूम सकते हैं। उन्हें कोई फ़िक्र नहीं, और अगर कर्ज़ देने वाला गलती से पैसे मांगने की गुस्ताखी कर भी बैठे, तो जवाब मिलेगा, “भाई, शर्म नहीं आती… दिवाली सामने है, पैसे मांगते हो? अभी इस मामले में कोई बात नहीं होगी, दिवाली के बाद देखेंगे।” मतलब, अब हमसे पैसे मांगने का काम मत करो, बल्कि तुम्हें सोचना चाहिए कि दिवाली हमारी भी ठीक से मने, तो थोड़ा और पैसा अपनी अंटी से ढीला करो।
बेचारा कर्ज़ देने वाला सोचता रह जाता है कि उसकी दिवाली का क्या… वो गई तेल लेने। पर दिवाली की रंगीनियत और मिठास तो बस कर्ज़ लेने वालों के ही हिस्से में आती है। दुकानदार भी इंतजार में रहते हैं कि दिवाली के बाद शायद उधारी की लिस्ट से कुछ उधार उतर जाए। दुकानदार के यहां रिश्ते और व्यवहारिकता का विनिमय होता है, और खरीदार के द्वारा “दिवाली के बाद” का चेक हमेशा गिरवी रखा जाता है।
मैं ओपीडी में बैठा हूं, मरीज़ों की कतार लगी है। लक्ष्मी की कृपा से दिवाली के समय हमारे यहां भी मरीज़ों की संख्या बढ़ जाती है। ऐसा मेरा नहीं, बल्कि यहां आए मरीज़ों का मानना है। साफ-सफाई, रंग-रोगन के दौरान, फिसलने, छत से गिरने या पेड़ टूटने से फ्रैक्चर के मरीज़ों की संख्या अचानक बढ़ जाती है।
वैसे तो बहानों की कभी कमी नहीं होती—’दिवाली के बाद’, ‘चुनाव के बाद’ जैसे बहाने, जो सैकड़ों दरख्वास्तों को धूल में ही पड़े रहने देते हैं। अधिकारी भी हर काम को चुनावी संहिता खुलने के बाद टालते रहते हैं, जैसे फाइलें सिसकते हुए उनके बहानों का बोझ सहती रहती हैं। किताब का प्रकाशन टल जाता है और प्रकाशक का भी वही बहाना रहता है—’दिवाली के बाद देखेंगे’।
ऐसे ही एक मरीज़ को न जाने मैंने कौन सी दुर्गति दे दी थी कि एक्स-रे देखकर फ्रैक्चर बता दिया। मरीज़ का गुस्सा मुझ पर फूट पड़ा, “डॉक्टर साहब, आपको शर्म नहीं आती? फ्रैक्चर बता दिया! दिवाली सामने है, और आप फ्रैक्चर बता रहे हैं? आपसे यह उम्मीद नहीं थी।”
“अच्छा, मान लिया कि फ्रैक्चर है, पर तुम क्या सोचते हो, हम प्लास्टर लगवा लेंगे? प्लास्टर लगवाकर लक्ष्मी पूजेंगे? बताओ ज़रा, कितना बड़ा अपशकुन है! घर में प्लास्टर जैसी अपशकुनी चीज़ को लेकर जाएंगे क्या?”
किसी तरह मैंने उसे समझाया कि प्लास्टर लगाना ज़रूरी है। मरीज़ मान भी गया, लेकिन फिर भी कहने लगा, “डॉक्टर साहब, उधारी कर लेना, दिवाली के समय लक्ष्मी घर से चली जाए, ऐसी बात नहीं है। दिवाली के बाद हम पैसों का हिसाब करेंगे, तब दे देंगे।”
पास की पड़ोसन मुस्कुरा रही है, और मैं इसी उलझन में हूं कि इस मुस्कान का जवाब अभी दूं या दिवाली के बाद। घरवाली दिवाली की शॉपिंग की लिस्ट तैयार कर रही है, और दिवाली के धमाकेदार ऑफ़रों की गूंज घर में गूंजने लगी है।
सरकार और कोर्ट ने भले ही दिवाली पर पटाखों पर बैन लगा दिया हो, लेकिन इन ऑफ़रों के धमाकों पर कोई रोक नहीं लगी है। ये तो सही नहीं है, असली धमाके तो यही हैं, जो घर में घुसते ही जेब पर आतंक मचाते हैं, भाई।
घर में टीवी पर न्यूज़ और अखबार में सेल ऑफ़र के धमाके चलते हैं, और मेरा हाथ बरबस अपनी जेब पर चला जाता है। शायद जमाने भर की हिम्मत जुटाकर एक बार बीवी से कह सकूं, “डार्लिंग, दिवाली पर लक्ष्मी घर से जाने नहीं चाहिए, यह अपशकुन होता है। इसलिए इस बार दिवाली की खरीदारी दिवाली के बाद करेंगे।”
यूँ तो “नए साल में करेंगे” यह बहाना सर्वभौमिक है, लेकिन यह अक्सर रिज़ॉल्यूशन के लिए आरक्षित होता है। चाहे वो जिम जॉइन करना हो, वजन घटाना हो, या कोई नई हॉबी सीखनी हो, लोग अक्सर इस बहाने का सहारा लेते हैं। आलसी लोगों के लिए यह बहाना किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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