हम उस ज़माने के थे…
हम उस ज़माने के थे, मित्र l जब “लोकेशन ऑन करो” का मतलब होता था — “अरे, किसी को भेज दो देखने कहाँ गया है!” और “ब्लिंकइट” जैसी कोई चीज़ थी ही नहीं l अगर कुछ झट से मिलता था तो बस वो था पड़ोसी का ताना या मास्टरजी का थप्पड़ l हमारे बस्ते में सरई पत्ते से बने दोनों में बिकती गंगा-इमली, तेंदू, चार, कोसम, बोड़ा, कैथ — ये सब थीं हमारी “नेचुरल मॉल” की रैक पर रखी वस्तुएँ l किसी ऐप का डिस्काउंट कूपन नहीं था, बस रामदीन काका के बाग़ में खुद ढूँढने का रोमांच था — फ्री के अमरूद, इमली, आँवला, करोंजे और कच्चे आम — वही असली “फ्री डिलीवरी” थी l
तुम्हारी पीढ़ी तो स्विमिंग पूल में नाक से बुलबुले बनाकर “डाइविंग” सीखती है l हमें तो तालाब, पोखर, डबरों और नालों ने सिखाया तैरना — और बताया कि कीचड़ में फिसलना भी जीवन का हिस्सा है l नंगे पैर धूप में झुलसकर हमने मिट्टी की असल गंध महसूस की — जिसे आजकल की परफ्यूम इंडस्ट्री “अर्थी टोन” कहकर बेच रही है l
तुम्हें नहीं मालूम फाख्ता, बटेर, तीतर का फर्क — सब “बर्ड्स” हैं तुम्हारे लिए बस l नहीं देखी तुमने आँगन में फुदकती गौरैया, छानी के फूंस में घर बनाते चिड़ा-चिड़िया l नानी के मुँह से सुनी गई दुखांत ट्रेजडी वाली चिड़ा-चिड़िया की लव स्टोरी, जिसे सुन-सुनकर ढेरों आँसू बहाते थे हम लोग l
छानी पर चढ़ी नार के सफेद और पीले फूलों को देखकर अब तुम फर्क नहीं कर पाओगे कि ये करेले के हैं या तुरई के, कुंदरू के या लौकी के l इन पत्तों को देखकर भी तुम अंदाज़ा नहीं लगा पाओगे कि सेम की फली चपटी होगी या गोल, सफेद होगी या हरी — क्योंकि तुमने कभी अपनी बाड़ी में बीज बोए ही नहीं l
बाजरे की ठस्स, सीधी खड़ी बालियों और ज्वार की ढीली, हवा में बिखरती बालियों में अंतर बताना आसान है l पर ये सादगी अब तुम्हारे लिए अबूझ पहेली बन गई है — क्योंकि तुमने खेतों में कदम ही नहीं रखा l तुम कैसे पहचानोगे धान, रागी या कोदो की फसलें? कैसे जानोगे अरहर, उड़द, मूंग और लाखड़ी की एक-सी फलियों में फर्क?
हवाओं में घुली तीखी-मीठी खुशबू से भी तुम अब नहीं समझ पाओगे कि कहुआ, महुआ, निबौंदी, जामुन या गूलर का मौसम आ गया है — क्योंकि तुम्हारा रास्ता अब जंगलों से नहीं, बस एसी वाले कमरों से होकर गुजरता है l
हमारा मौसम विभाग आसमान था l जब पंछी नीचे उड़ें, तो बारिश तय l चींटियाँ तेज़ी से बिल में घुसें, तो छाता निकाल लो l और तुम्हारा मौसम विभाग गूगल का “रियल टाइम वेदर अपडेट” — जो कभी रियल नहीं निकलता l
तुम्हें तारों की चाल से दिशा बताने की कला भी नहीं आएगी l क्योंकि तुमने कभी आँगन में खाट डालकर रात नहीं गुज़ारी, न आसमान को ओढ़कर नींद ली, न चाँद-सितारों से बातें कीं l हम उस ज़माने के थे जब रातें आँगन में खाट पर बीतती थीं l हवा का रुख समझने के लिए रेत उड़ाई जाती थी, न कि ऐप में “एयर क्वालिटी इंडेक्स” देखा जाता था l हम जानते थे कि पछुवा चल रही है — और अब की पीढ़ी समझती है “पछुवा” शायद कोई नया स्नैक ब्रांड है!

अब तुम बस दीवारों में घिरे रह गए हो…
अब तुम बस दीवारों में घिरे रह गए हो — धरती, हवा, आसमान और फसलों के रिश्ते से दूर l जैसे आदमी होते हुए भी प्रकृति से अनजान हो गए हो l
हमारे जंगल पलाश, सागौन, शीशम से भरे थे l अब तुम्हारे जंगल “कुर्सियों” और “टेबलों” में बदल गए हैं — लकड़ी की पहचान अब किसी डिज़ाइन कैटलॉग से होती है l
गरबा-नाइट्स और हैलोवीन मनाने वालों को ये बात अजीब लगेगी कि कभी तीज, हरेली, भोजली, पोला भी हमारे “फेस्टिवल सीज़न” का हिस्सा थे l उस समय रिवीलिंग आउटफिट नहीं, पीले कपड़े और हरियाली की माटी पहनी जाती थी l
ठेठरी, खुरमी, फरा, बफौरी — ये हमारे “स्नैक्स” थे बेटा l और इन्हें खाने के बाद हमें पेट नहीं, आत्मा भर जाती थी l अब तो तुम्हारा पेट स्टारबक्स की कॉफी फ्लेवर और मॉकटेल्स के नाम सुनकर ही खुश हो जाता है — मगर आत्मा के लिए कोई रिचार्ज प्लान नहीं!
शादी की बात छेड़ो तो हमारे यहाँ “चुलमाटी, मंगरोहन, परछन, टिकावन” जैसी रस्में थीं — जो अब “रिंग सेरेमनी” और “कॉकटेल नाइट” के प्रोजेक्ट में आउटसोर्स हो गई हैं l
हमारे खेल भी सादगी में परिपूर्ण थे — कंचे, फुगड़ी, पिट्ठुल, भौरा, गुल्ली-डंडा l अब की पीढ़ी टर्फ ग्राउंड में “पेमेंट बाय द ऑवर” करके खेलती है, जैसे खुशी भी अब किराए पर मिलती हो l
नहीं कर पाओगे यक़ीन, बेटा — कि साल में बस एक बार खाई जाने वाली बस्तरिया करीएल यानी बाँस की नर्म कलियों की सब्ज़ी, तुम्हारे एप्पल साइडर विनेगर से कहीं ज़्यादा सेहत देती है l
तुम्हारे हेल्थ ब्लॉग्स और फिटनेस इंफ्लुएंसर्स इस पर रिसर्च पेपर लिखने से पहले ही डिस्काउंट कूपन कोड डाल देंगे l पर वो नहीं जान पाएँगे कि इस करीएल में जंगल की मिट्टी की खुशबू, बाँस की भीनी नमी और मेहनत की चुटकी नमक बनकर घुली होती है l
गेंगरवा यानी केंचुआ, ततैया, और ‘रामजी का घोड़ा’ — जिसे तुम डरकर टिड्डी कहते हो — ये सब बस कीड़े नहीं हैं, बेटा l ये जंगल की खाद्य-श्रृंखला के कवि हैं, धरती के रसायनज्ञ l गेंगरवा मिट्टी को उपजाऊ बनाता है, ततैया फसलों का प्रहरी है, और टिड्डी… वो भी बस उतनी ही विनाशक है जितना कोई लोभी इंसान, अगर उसे मौका मिले l
पर तुम्हें ये सब कैसे समझ आएगा, जब तुम्हारा “नेचर कनेक्शन” बस स्मार्टवॉच की स्क्रीन पर मापे गए “स्टेप काउंट” से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाता है l
और हाँ, तुम चाइनीज़ “ईविल आई” अमेज़ॉन से मंगाते हो, हमें तो घर की दादी की नज़र ही काफ़ी थी — जिसकी एक घूरन से पूरा घर नेगेटिव एनर्जी फ्री हो जाता था l
तुम नहीं जानोगे मन की नजर उतारना, मिर्ची की धूनी देना, हर शनिवार को बैसंडर पर गंधक की धूनी — (गाय के गोबर के कंडे को जलाकर उस पर गंधक की धूनी देना) l
बेटा, तुम मशीन लर्निंग, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और असाइनमेंट्स में डूबी जेन ज़ी हो — और हम मिट्टी, हवा, नदी और लोकगीतों में पले-बढ़े l फर्क इतना है कि हमें दुनिया समझने के लिए “डेटा एनालिटिक्स” नहीं चाहिए थी l हम हवा की गंध, मिट्टी की नमी और चिड़ियों की आवाज़ से ज़िंदगी पढ़ लेते थे l
ढाई, डेढ़ और पौन जैसे शब्द न समझने वाली इस पीढ़ी को बचाने का बोझ अब सिर्फ़ माँएँ कैसे उठाएँ, सोचो ज़रा l जिसने कलेजे की माटी गूँथकर बच्चे में ममता का घड़ा बनाया, वही अब ‘मैथ बेसिक्स’ का ट्यूटोरियल भी बन गई है l
वो समझाए तो कैसे कि “डेढ़ रोटी” का मतलब कोई कैलोरी यूनिट नहीं होता, और “पौन घंटा” कोई ऐप नोटिफिकेशन नहीं, बल्कि रसोई में चूल्हे की आँच और घड़ी की टिक-टिक के बीच बीतता हुआ समय होता है l
अब माँ कहे — “ढाई बजे लौट आना” तो बेटा मोबाइल देखकर बोले — “माँ, वो तो टू थर्टी होता है ना?” l
माँ मुस्कुरा देती है, लेकिन भीतर कहीं जानती है कि उसकी भाषा का सूरज ढल रहा है, और इन शब्दों की गरमी से जो संस्कृति पकी थी, वो अब फ्रिज में रखे ठंडे टिफिन जैसी हो गई है l
और सच कहूँ — वो नेट कनेक्शन कभी डिस्कनेक्ट नहीं हुआ था l

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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