उत्सवों का देश: स्मृति से पुनर्जागरण तक
छठी शताब्दी से पहले और उसके आस-पास हमारे भू-भाग की पहचान आज के ‘इंडिया, हिंदुस्तान, भारत’ जैसे नामों से नहीं होती थी। हर्षवर्धन और समकालीन राजवंशों के समय चीन भारत को ‘यंतु’ कहता था—अर्थात चंद्रमा; जापान में भारत ‘नजिक’ था—स्वर्ग; और पूर्वी एशिया के देशों में ‘चियां–चुक’—स्वर्ग का केंद्र। तब यह धरती “सोने की चिड़िया” भी कहलाती थी, क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा केंद्र यही था। यह केवल नामों का वैभव नहीं था, यह सनातन संस्कृति की वह जीवंत विरासत थी जो प्रकृति के साथ उत्सव मनाती थी—इतने त्यौहार, इतनी परंपराएँ कि दूर-दूर की सभ्यताएँ भी हमें ‘स्वर्ग’ कहने लगें।
पर इक्कीसवीं सदी में यह धारणा क्षीण पड़ गई है, क्योंकि हम स्वयं अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटते चले गए। जीव-जंतुओं की जातियाँ, लोक-भाषाएँ, क्षेत्रीय पंथ—सबके विलुप्त होने की चिंता तो सुनते हैं, पर क्या हमने सोचा कि त्यौहार भी लुप्त हो रहे हैं? एक अनुमान है कि अलग-अलग प्रांतों के दो सौ से अधिक लोक-उत्सव अब लगभग विलुप्ति के कगार पर हैं—नई पीढ़ी उनके नाम तक नहीं जानती।
एक दिवस जिसे हमारे यहाँ अत्यंत शुभ माना गया—देव उठान एकादशी। मान्यता है कि भगवान विष्णु क्षीरसागर में चार महीनों के शयन के बाद आज ही जागते हैं; आज से ही विवाह और मंगलकार्य आरंभ होते हैं—शुभ दिन, शुभ घड़ी, शुभ मुहूर्त की शुरुआत। यह तुलसी-विवाह के उत्सव का दिन भ भी है—तुलसी का विवाह शालिग्राम (भगवान विष्णु के स्वरूप) से। कभी उत्तर भारत के अनेक प्रांतों में यह धूमधाम से होता था। मध्यप्रदेश में ‘देव उठनी ग्यारस’ मनती है—कई जिलों में सार्वजनिक अवकाश तक होता है। उत्तराखंड में इसी दिन ‘इगास’ (आकाश दीपावली/बूढ़ी दीपावली) आती है—दीपावली के ग्यारह दिन बाद, गाय-बैल की पूजा, गढ़वाल का पारंपरिक ‘भैलो’; और 2022 से वहाँ इस दिन सरकारी छुट्टी भी घोषित है—क्योंकि लोग इस पर्व को भूल रहे थे। दक्षिण में, विशेषकर केरल में ‘गुरुवायूर एकादशी’ पर विष्णु-पूजन; मिथिलांचल में ‘सामा-चकेबा’—रक्षाबंधन के समतुल्य एक बड़ा लोक-उत्सव—जो अब विलुप्ति की चौखट पर है।
प्रधानमंत्री मोदी कई बार आह्वान कर चुके हैं—लोक-उत्सवों को पुनर्जीवित कीजिए, उन्हें गर्व से मनाइए, विलुप्त होने से बचाइए। इसी भाव से उत्तराखंड सरकार ने ‘इगास’ पर अवकाश घोषित किया; दिल्ली में सांसद अनिल बलूनी के निवास पर ‘बूढ़ी दिवाली’ का आयोजन हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री भी शामिल हुए—संदेश स्पष्ट: लोक-नृत्य, लोक-भोजन, वेश-भूषा, रीति-रिवाज—सबको अगली पीढ़ी तक जीवित रखना होगा।
शोक यह कि ‘गोवर्धन’ जैसे त्यौहार अब सोशल-स्टेटस तक सीमित हो गए हैं। कभी हर घर में गाय के गोबर से गोवर्धन-आकृति बनती थी; आज न गोबर को हाथ लगाना गवारा, न आकृति बनाना आता है—पूजा कैसे होगी? कुछ दिन में यह पर्व भी किताबों में भर रह जाएगा। अनुमान है—रंग पंचमी, देव दीपावली, भाई दूज, देव उठनी ग्यारस, हरियाली तीज, गंगा दशहरा, नागपंचमी, हिंदू नववर्ष, गुरु पूर्णिमा, गोवर्धन पूजा, वट-सावित्री—सब बड़े स्तर से सिमटकर कुछ मुट्ठीभर घरों तक रह गए हैं; जो कल होली-दीपावली की समानान्तर भव्यता से मनते थे।
विरोधाभास देखिए—जिस देश में मान्यता है कि विष्णु आज निद्रा से जागे, वहीं अनिद्रा एक महामारी-सी है; सर्वे बताते हैं कि 60% लोग प्रतिदिन छह घंटे से भी कम सोते हैं, गहरी नींद दुर्लभ हो गई। संस्कृति के अनुष्ठानों से हमारा जैव-लय जो जुड़ता था, वह टूट रहा है।
देवउठनी ग्यारस की स्मृति में घर-आँगन की चित्रकारी—पुणे (अन्न) और पानी से बने देव-चित्र, बरामदे में घर के पुरुषों के पाँव की छाप, मिट्टी के चूल्हे पर देव बनाना, संध्या को उस पर जल-फल-गन्ना-अक्षत समर्पित करना, परिवार का घेरा बनाकर ‘देव उठाने’ के गीत—आज ढूँढ़ने पड़ते हैं। दशहरे पर धरती पर रावण, उसके इर्द-गिर्द राम-लक्ष्मण का चित्र; हरियाली तीज पर पेड़ों पर झूले, मंगल-गीत, हरितिमा का जश्न—अब पेड़ कट गए, घर फ्लैट हो गए, झूले और गीत स्मृतियों में हैं। मकर-संक्रांति—दक्षिण में पोंगल, पंजाब में लोहड़ी—पतंगें, अलाव, लोकगीत; पर अब मेलों की जगह मॉल ने ले ली। लोकधुनें धीमी हैं, रस्में ‘इवेंट’ हो गई हैं।
सांस्कृतिक क्षरण का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव—सामाजिक ताने-बाने का शिथिल होना। पचास साल पहले शहरों में बसे लोग भी त्यौहारों पर सप्ताह की छुट्टी लेकर गाँव लौटते थे—पूरा परिवार साथ बैठकर प्रसाद बनाता, रसोई में गरम-गरम व्यंजन, सब मिलकर अनुष्ठान; किसी सदस्य की छुट्टी पूरी होकर लौटने पर घर उदास हो जाता—त्यौहारों में आत्मा बसती थी। आज भागदौड़ ऐसी कि छोटे-छोटे त्यौहार पीछे छूट गए, और दुख भी नहीं—क्योंकि जानकारी ही नहीं। 2022 के एक सर्वे में 60% लोगों ने कहा—उन्हें भारत के इतिहास, संस्कृति और त्यौहारों की पृष्ठभूमि का पता नहीं। जब चेतना ही शून्य हो, तो अस्तित्व कैसे सुरक्षित रहेगा? धनतेरस को ‘धन-दिवस’, दिवाली को ‘शॉपिंग-फेस्ट’ बना देने की प्रवृत्ति बताती है—हम कथाओं, प्रतीकों, विधियों का अर्थ भूल चुके हैं।
देव उठान की कथाओं में शंखचूड़/शंखासुर-वध के प्रसंग मिलते हैं—विष्णु के योग-निद्रा में जाने और आज के दिन जागने की परंपरा जुड़ी है। पर विडंबना यही कि कथाएँ सुनाने वाले दादा-नानी, बुआ-मौसी की सीखने-सिखाने वाली परंपरा भी विरल होती गई। उधर आज से 16 दिसंबर के बीच 48 लाख शादियों का अनुमान है—करीब 6 लाख करोड़ रु. का व्यय; प्रति-शादी औसत 12.5 लाख—जबकि औसत वार्षिक आय चार लाख के आसपास भी नहीं। अनुष्ठान का अर्थ ‘औचित्य’ है, ‘आडंबर’ नहीं; पर हमने उत्सव को उपभोक्तावाद का पर्याय बना दिया।
फिर भी आशा जीवित है। उत्तराखंड का ‘इगास’ अवकाश, दिल्ली में ‘बूढ़ी दिवाली’ का लोक-आयोजन, केरल की गुरुवायूर एकादशी, मिथिला का सामा-चकेबा—ये सब पुनर्जागरण के संकेत हैं। आवश्यकता बस इतनी कि हम ‘परिवार’ को फिर से त्यौहार का केंद्र बनाएँ—आँगन की मिट्टी से देव उकेरें, गोवर्धन की आकृति अपने हाथों बनाएँ, झूला किसी पेड़ पर नहीं तो बालकनी में ही बाँध दें, एक लोकगीत मोबाइल के स्पीकर पर नहीं, अपने गले से गाएँ, बच्चों को एक कथा हर उत्सव पर सुनाएँ। तभी ‘स्वर्ग का केंद्र’ कहलाने की वह प्राचीन स्मृति वर्तमान की धड़कन बनेगी—यंतु, नजिक, चियां–चुक—इन नामों की उजास फिर हमारी आँखों में लौटेगी।
त्यौहार पैसों से नहीं, परंपराओं से मनते हैं; रोशनी बिजली से नहीं, स्मृति से जलती है। आइए, देव उठान की इस घड़ी में हम भी जागें—और अपनी अगली पीढ़ी के हाथ में मिट्टी, गोबर, रंग और कथा की वह थाली सौंप दें, जिसमें संस्कृति का चाँद—यंतु—आज भी वैसा ही चमकता है। स्वस्ति।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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