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स्वाभिमान का स्वर: 150 वर्ष वंदे मातरम्

“अमूर्त रेखाचित्र में एक उजली धरती के रूप में भारत, जिसके केंद्र से उठती है लाल और केसरिया रंगों की श्वास-जैसी लहर — जो ‘वंदे मातरम्’ के स्वर का प्रतीक है।”

वंदे मातरम्—यह केवल दो शब्द नहीं, एक दीर्घ श्वास है जो इस उपमहाद्वीप की नसों में आज भी बहती है। सवा सौ बरस का सफ़र पूरा करते हुए यह गीत हमें फिर-फिर याद दिलाता है कि भारत केवल भौगोलिक रेखाओं का जोड़ नहीं, एक जीवित अनुभूति है—सुजलाम-सुफलाम, शस्य-श्यामलाम मातृभूमि की अनुभूति। कल्पना कीजिए: उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में एक युवा अफ़सर-कवि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय अपने समय की अपमानजनक गुलामी से आहत होकर काग़ज़ पर झुकते हैं, और शब्दों में एक मां की प्रतिमा आकार लेने लगती है—मां जो नदी की तरह बहती है, खेतों की तरह लहलहाती है, और चंदन-बयार की तरह शीतल है। यह कोई राजनीतिक नारा नहीं था; यह आत्म-सम्मान का उत्तर था, स्वाधीन मनुष्य की पहली स्पष्ट ध्वनि—“वंदे मातरम्”।

कहानी यहीं से तेज़ होती है। 1882 में ‘आनंदमठ’ के पृष्ठों पर यह गीत प्रकाशित हुआ और उसने साहित्य से सीधे राजनीति तक छलांग लगा दी। 1896 में कोलकाता अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे सुर दिया, तो लगा मानो शब्दों को पंख मिल गए हों। उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम—यह धुन रेलगाड़ियों की सीटी, खेतों में बजते ढोल, विद्यालयों की घंटी और नमक-सत्याग्रह के पदचाप के साथ मिलकर एक विराट राग बन गई। 1905 में बंग-भंग हुआ तो विभाजन की रेखा से पहले “वंदे मातरम्” की आवाज़ पहुँची; सड़कें, गलियाँ, पुस्तकालय, अखाड़े—हर कहीं यह मंत्र जप की तरह गूंजा। ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध लगाए, जुलूस रोके, कंठों पर पहरे बिठाए—लेकिन कौन-सी सरकार किसी मां की पुकार को कै़द कर पाई है? जहाँ-जहाँ मनुष्यता ने घुटनों के बल बैठना अस्वीकार किया, वहाँ-वहाँ यह गीत खड़ा रहा—कभी ध्वज की पट्टी बना, कभी क्रांतिकारियों के होंठों की ज्वाला।

सच तो यह है कि “वंदे मातरम्” ने आज़ादी के आंदोलन को शाब्दिक ऊर्जा दी। यह गीत राजनीतिक रणनीति का उपकरण नहीं, जन-भावना का अनुवाद था। शब्दों में जल और फल के प्रतीक सिर्फ़ प्रकृति-वर्णन नहीं, एक आर्थिक-सांस्कृतिक घोषणापत्र थे—कि यह भूमि समृद्धि, संतुलन और सौंदर्य की जन्मदात्री है; और जो राष्ट्र अपनी भूमि को ‘मां’ मान ले, उसके नागरिकों के लिए नैतिकता कोई बाहरी क़ानून नहीं, आंतरिक अनुशासन बन जाती है। इसलिए तो यह पंक्तियाँ केवल सुनाई नहीं देतीं—महसूस होती हैं: “शुभ्रज्योत्स्ना-पुलकित-यामिनीम्… सुहासिनीम्, सुमधुर भाषिणीम्, सुखदाम, वरदाम”—जैसे कोई विराट आशीष, जो घबराई हुई पीढ़ियों की पीठ ठोंक कर कहता है: “डरो मत, चलो।”

फिर 24 जनवरी 1950 आया—गणराज्य बनने से जरा-सा पहले। संविधान-सभा ने “वंदे मातरम्” को राष्ट्रीय गीत का गौरव दिया। यह कोई औपचारिक ‘टिक-मार्क’ नहीं था; यह स्वतंत्र भारत का प्रण था कि जिसे गुलामी ने दबाया, वही स्वर अब नागरिकता का श्रृंगार बनेगा। “जन गण मन” और “वंदे मातरम्”—दोनों एक ही दीप के दो शिखर ठहरे: एक संस्थागत राष्ट्र-चेतना का, दूसरा मातृ-भाव की आत्मीय दीप्ति का। एक हमें कतार में खड़े नागरिक की तरह अनुशासित करता है, दूसरा भीड़ में खड़े इंसान की तरह बांहों में भर लेता है।

और अब 150 वर्ष। डेढ़ सदी में बहुत कुछ बदला: राजनीति की भाषा, अर्थव्यवस्था की आकृतियाँ, तकनीक की गति—पर जो नहीं बदला, वह है इस गीत का भाव-भार। हर पीढ़ी ने इसमें अपना समय पढ़ा। स्वदेशी में यह बहिष्कार की टंकार था; स्वतंत्रता के बाद यह पुनर्निर्माण का प्रेर-गीत बना; आज यह विविधता में एकता की साझा सांस है। शहर के किसी मेट्रो स्टेशन पर हड़बड़ी में भागता युवक जब किसी स्कूल-बैंड को “वंदे मातरम्” बजाते सुनता है, तो उसकी दौड़ की ताल बदल जाती है—उसे दोनों हाथों में छिपी हुई वह पुरखाई ताकत याद आती है, जिसे किताबें ‘सभ्यता’ कहती हैं और दादी ‘संस्कार’। यही तो इस गीत का कमाल है—यह हमें ‘नागरिक’ से फिर ‘मनुष्य’ बना देता है।

इस बीच, बहसें भी हुईं—कौन-सी पंक्तियाँ, किस समारोह में, कैसे गाई जाएँ? लोकतंत्र में प्रश्न जरूरी हैं, किंतु याद रहे: “वंदे मातरम्” किसी संकरे आग्रह का गीत नहीं, प्रकृति और संस्कृति की संयुक्त आराधना है। इसमें मां दुर्गा की तेजस्विता भी है, सरस्वती की वाणी भी, लक्ष्मी का प्रसाद भी—पर सबसे बढ़कर इसमें खेत की महक, नदी की कलकल और आकाश की नीलिमा है। जो इसे केवल ‘राजनीतिक’ चश्मे से देखते हैं, वे गीत को नहीं, अपने लेंस को पढ़ रहे होते हैं। यह गीत राजनीति से ऊपर उठकर नागरिक-धर्म का गान है—एक ऐसा धर्म जो मनुष्यता को श्रेष्ठ मानता है, और मातृभूमि को ‘भूमि’ से ‘मां’ बना देता है।

सोचिए, 150 साल बाद इसका अर्थ क्या होना चाहिए? क्या केवल भावुकता का उत्सव? नहीं। “वंदे मातरम्” का आज का अर्थ है पृथ्वी-सेवा—नदियों को साफ़ रखना, खेतों की मिट्टी बचाना, पहाड़ों का संतुलन समझना; भाषा-सेवा—एक-दूसरे की बोली को स्नेह से सुनना; समाज-सेवा—असमानता की हर दीवार पर हाथ रखकर कहना, “यह भी मेरी मां का आंगन है।” जब बंकिम ने ‘मातरम्’ लिखा, तो वह कोई पूजा की थाली नहीं थमा रहे थे; वे जिम्मेदारी का थाल हमारे हाथ रख रहे थे—कि अगर मां ‘सुखदा’ और ‘वरदा’ है, तो बेटे भी ‘कर्तव्यदा’ हों।

इसीलिए, जब अगली बार यह धुन कानों में उतरे, तो हम केवल खड़े न हों—हम भीतर भी उठें। अपने-अपने पेशों, शहरों, भाषाओं, मतों और मतभेदों के बीच हम एक छोटी-सी जगह बनाएँ, जहाँ “वंदे मातरम्” का अर्थ नारे से आगे जाकर ‘निरंतर सेवा’ बन जाए। किसी बच्चे की पाठशाला पहुँच, किसी बूढ़े की दवा, किसी नदी का किनारा, किसी कचरा-ढेर की सफाई—जो भी हमारे वश में है, वही आज का सच्चा वंदन है। मां को फूलों के हार अच्छे लगते होंगे—पर उससे बेहतर तब लगेगा जब हम उसके आंगन से काँटे समेट लें।

डेढ़ सदी पहले लिखा यह गीत, हर युग में नया हो उठता है, क्योंकि मां कभी ‘पुरानी’ नहीं होती। वह हर सुबह उतनी ही उजली होती है जितनी चांदनी की ‘शुभ्रज्योत्स्ना’; वह हर बरसात में उतनी ही उदार होती है जितनी नदी की नीलिमा; वह हर फसल में उतनी ही आश्वस्ति देती है जितनी खलिहान की खुशबू। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे पास ऐसे दो शब्द हैं जो थके हुए समय की कलाई पकड़ लेते हैं—वंदे मातरम्। इन्हें केवल गाइए मत; इन्हें जीकर देखिए—आप पाएँगे, 150 साल किसी गीत की उम्र नहीं, एक राष्ट्र के आत्मविश्वास की धड़कन है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’

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