कान-भरैयों का महाग्रंथ :बात आपकी, कथा इनकी—और बीच में कानों की चिल्लम
कान भरने वाले लोग ,अब क्या ही कहें मित्र ; ये समाज के अनौपचारिक, स्वयंभू, आजीवन-नियुक्त “तथ्य-विकृति विभाग” के महापंडित हैं जी । आज मन हुआ कि मैं भी आपके कान इन कान-भरैयों की कानों देखि आँखों सूनी बातों से ज़रा-सा भर दूँ । और जब तक आपकी श्रवण-नलिकाएँ हल्की-हल्की झनझना न उठें, तब तक मुझे चैन कहाँ?
ये कान-भरैया लोग दिन-दिहाड़े मेहनतकश मज़दूरों की तरह जुटे रहते हैं—वो भी बिना किसी दिहाड़ी के , पर श्रम ऐसा कि किसी कारखाने का कारीगर भी शर्मा जाए। बस कहीं किसी का कान दिखना चाहिए—घर का, मोहल्ले का, संस्था का, या मंदिर की परिक्रमा में मिला कोई भोला-भाला कान—ये तुरंत उसके पीछे लग जाते हैं। कई होते हैं जो किसी के काम में नाक घुसाते हैं ,ये अपने कान घुसाते हैं l उनका उद्देश्य होता है कि ऐसे प्रोस्पेक्टिव कान (जो कान के कच्चे होते हैं वो इनके स्थायी क्लाइंट) होते हैं कान के हर कोने में अपनी कहानी की चिल्लम भर दें। कौन-सा कान नरम है, किससे फायदा होगा, किससे आग तेजी से भड़केगी—इन सबकी इन्हें जन्मजात पहचान होती है। ये वही लोग हैं जो किसी भी सुनी-अनसुनी बात को खींच-तानकर, मोड़-मुरोड़कर ऐसा चटपटा मसाला बना देंगे कि सुनने के कान सुन्न हो जाएँ ?”
इनका व्यक्तित्व इतना विचित्र है कि दूसरे की बात सुनते समय लगता है जैसे पंचतंत्र का बाल-संस्करण पढ़ रहे हों, और सुनाने बैठते हैं तो महाभारत का दसवाँ खंड शुरू कर देते हैं—वह खंड जो न व्यास ने लिखा, न किसी प्रकाशक ने छापा, पर इनके दिमाग में गीजर की तरह उबलता रहा है।
ये संवाद के नहीं, संवाद के अवशेषों के विशेषज्ञ होते हैं। आपकी बात का आधा सुनेंगे, चौथाई समझेंगे, फिर जो बचा-खुचा है उसे अपनी कल्पना के दही में फेंटकर ऐसी लस्सी बनाएँगे कि बेचारा पीने वाला सोचता रह जाए—“मैंने तो सिर्फ़ ‘नमस्कार’ कहा था यार , इसमें ये साज़िश की बू कहाँ से आ गई?”
कान-भरैयों की कला का सबसे मजबूत हथियार है—निर्मम तोड़-मरोड़। आप कोई सीधी-सादी बात कह दें—“सेवा कार्य में सुधार की गुंजाइश रहती है।” बस! इनके सीने में तुरही बज उठती है। अगले ही पल ये किसी संस्था के भोले-भाले सदस्य से कहेंगे—“देखा? आपके सेवाकार्य को सीधे-सीधे कबाड़ घोषित कर दिया है।” बेचारा सामने वाला पहले तो दो-चार बार कान झटकता है, फिर सोचता है—“ना जाने कब, कैसे, किस संदर्भ में, किस वक़्त किसी ने मेरे पीछे छुरा घोंप दिया!”
इन लोगों को मूल वाक्य का पोस्टमार्टम करना ऐसे आता है जैसे कोई फॉरेंसिक विशेषज्ञ मिक्रोटोम चलाता हो। बाल की खाल ही नहीं, खाल की कोशिका निचोड़ ले जाएँ। इनका ध्वनि-विस्तार तंत्र इतना शक्तिशाली है कि आपकी कम-एम्प्लीट्यूड वाली इन्सिग्निफ्केंट बात को भी loudspeaker बनाकर अगले के कान के पिन्ना से लेकर मस्तिष्क की आखिरी नस तक हिला डालते हैं। झूठ हो या आधा-सच—बस इन्हें फैलाने का मौका मिलना चाहिए।
ये अफवाहों की खेती भी करते हैं—बिना बीज, बिना पानी, सिर्फ़ अपनी धृष्टता की खाद से ऐसी बम्पर फसल तैयार कर देते हैं कि समूचा समूह रात भर मच्छरदानी के छोटे छेद से गुज़रते विवादों की भनभनाहट में सो ही नहीं पाता। ये हर संवाद को दंगल में बदलने में माहिर हैं। समूह इनके लिए आपसी विश्वास का स्थान नहीं, बल्कि कच्चा माल है—जहाँ हर शब्द से नया मसाला तैयार किया जा सकता है।

सबसे खतरनाक है इनकी उकसाने की कला। यह कला उतनी ही पुरातन है जितना कि अनपढ़ों का आत्मविश्वास। ये फोन करते हैं, मैसेज भेजते हैं, स्क्रीनशॉट लहराते हैं—“देखो! तुम्हारे खिलाफ झंडा उठ चुका है!” और सामने वाला बेचारा हैरान—“मैं तो कभी इस व्यक्ति से मिला तक नहीं—ये आग अचानक कहाँ से भड़क उठी?”
समस्या यह है कि आजकल लोग कथ्य नहीं सुनते, भावनाएँ तलाशते हैं। और कान-भरैया इन्हीं भावनाओं के सरकारी ठेकेदार हैं। कोई भी सामान्य वाक्य इन्हें इतना भावनात्मक बना देना आता है कि सुनने वाला काँप जाए—“अरे! ये तो सीधे मुझ पर वार है!”
इन्हें रोकना असंभव है। ये समाज के आत्मघोषित “तथ्य-विकृति समिति” के स्थायी सदस्य हैं—न इनकी सदस्यता समाप्त होती है, न कार्यकाल। ये सुधरते नहीं, बस पहचान कर किनारे रखे जाते हैं—ठीक वैसे जैसे गरम पकौड़े से निकलने वाला अतिरिक्त तेल। दिखता है ज़रूर, पर खाया नहीं जाता।
समाधान सरल है—
कान-भरैयों को वही तवज्ज़ो दीजिए जो खाली बोतल को दी जाती है।इन्हें थोथा चना मानिए आप l या इन्हें बिल्ली का वो अवशिष्ट पदार्थ भी मान सकते हैं जिसके बारे में कहा गया है की ..ना लीपने का ,ना पोतने का l
।
और सबसे बड़ा बचाव यह कि किसी भी बात पर निर्णय लेने से पहले सीधे उस व्यक्ति से पूछ लें—“भाई, तुमने कहा भी था क्या?” वरना इनका कूड़ा-कचरा आपके कानों में भरकर आपकी समझ की नसों को भी स्थायी नुकसान पहुँचा देगा।
क्योंकि कान भरने की कला तो सदियों पुरानी है,
पर कान न भरवाने की कला
अभी हम सबको सीखनी है।
इसलिए बोलिए, लिखिए, सुझाव दीजिए—
पर कान-भरैयों को सिर्फ़ मुस्कान दीजिए।
उन्हें इससे ज़्यादा चिढ़ किसी और बात से नहीं होती।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
मेरी व्यंग्यात्मक पुस्तकें खरीदने के लिए लिंक पर क्लिक करें – “Girne Mein Kya Harz Hai” और “Roses and Thorns”
Notion Press –Roses and Thorns
संपर्क: [email protected]
YouTube Channel: Dr Mukesh Aseemit – Vyangya Vatika
📲 WhatsApp Channel – डॉ मुकेश असीमित 🔔
📘 Facebook Page – Dr Mukesh Aseemit 👍
📸 Instagram Page – Mukesh Garg | The Focus Unlimited 🌟
💼 LinkedIn – Dr Mukesh Garg 🧑⚕️
🐦 X (Twitter) – Dr Mukesh Aseemit 🗣️