आप तो बस लिखते रहिए…
गर्ग साहब! आप सच में क्या लिखते हैं! आपकी कलम में जैसे पुरखों का बकाया बारूद भरा है। लोग कहते हैं—“वाह भाई, बड़ा बोल्ड लिखते हो… इतनी हिम्मत कहाँ से लाते हो?” और यह कहते हुए ऐसे देखते हैं जैसे आपको किसी पहाड़ की चोटी पर तिरंगा फहराने भेजा जा रहा हो।
अब यह अलग बात है कि ये वही लोग हैं जो रात को टीवी का रिमोट भी काँपते हाथों से पकड़ते हैं, क्योंकि चैनल बदलते समय भी इन्हें लगता है कि कहीं घर में ‘गृहयुद्ध’ न छिड़ जाए।
आप लिखते हैं तो ये लोग अचानक आपके भीतर सरदार भगत सिंह की परछाईं उगते हुए देखने लगते हैं। देह में हलचल, चेहरे पर क्रांतिकारी चमक और दिल में यह विश्वास कि देश बदलने की कुंजी इन्हीं के बगल वाले तकिए के नीचे रखी है। बस इंतज़ार है—कोई आए और इनके हक की लड़ाई लड़ दे।
ये महानुभाव मोहल्ले की टूटी सड़क देखकर ऐसे कुढ़ते हैं जैसे राष्ट्र की रीढ़ ही टूट गई हो। बिजली के तार शिखंडी की भांति अधर में झूल रहे हैं, वाटर सप्लाई हफ्तों से ‘छुपम–छुपाई’ खेल रही है, बम्बों के गले सूखे पड़े हैं और गली में अंधेरा चील-कौवों की अध्यक्षता में लोकतंत्र लागू किए बैठा है।
इन सब पर इनका आक्रोश ऐसा भड़कता है कि लगता है अभी धरना दे देंगे। पर करते क्या हैं? टीवी का रिमोट उठाते हैं… और चैनल बदल लेते हैं। यही है इनकी क्रांति।
और जैसे ही इन्हें सुनाई देता है कि मोहल्ले में कोई ‘कलमधारी क्रांतिकारी’ आ गया है—इनकी सूनी आँखों में आशा की बिजलियाँ कौंध पड़ती हैं।
“लो जी… आ गया हमारा नायक! अब सब ठीक हो जाएगा!”
ये सोचते हैं—आ गया वो आदमी जिसके कंधे पर क्रांति की बंदूक रखी जा सकती है, जिसके पीछे छिपकर दुश्मनों पर वार किया जा सकता है।
पर मित्र, आप किसी गलतफहमी में न रहें—ये आपके ‘सगे’ तब ही होते हैं जब अंधेरा होता है। दुश्मन को पता चल गया कि आप इनके हैं, तो सारी सेटिंग गड़बड़ा जाएगी। इसलिए आते हैं रात के अँधेरे में चुपचाप—आपके कंधे पर बारूद भरी बंदूक रख जाते हैं—
“लो… अभी मत चलाना। पहले हमें निकल लेने दो। कहीं वो देख न ले कि हमने ही रखवाई थी!”
दुश्मन सामने हो तो ये आपको पहचानेंगे भी नहीं। इनकी मजबूरी है।
आप ठहरे खांटी लेखक—‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर वाले ।
पर इन्हें तो सभी को साधना होता है—इनके गरदन पर बैठा उल्लू जो हमेशा तिरछा रहता है, उसे सीधा करना है। इसीलिए इनकी उल्लू-सी आँखें दुश्मन का आभास मिलते ही फेर लेती हैं।
जब आप कहते हैं—
“अरे शर्मा जी, वर्मा जी, रस्तोगी जी, फलाना जी… बदलाव खुद से शुरू होता है!”
तो ये तुरंत शरमाकर, करुणा के पुतले बनकर अपने धँसे पड़े हथियार दिखाते हैं—
“खुद से? नहीं-नहीं… वो तो नहीं हो पाएगा भैया! लेकिन हम आपके लिए तालियाँ बजाएँगे। कमेटी से कहकर कोई पुरुष्कार-वरुष्कार दिलवा देंगे। हाँ, उन दुश्मनों को भी दिलवा देंगे जिन पर हम वार करवाना चाहते हैं।
चलो, इतना तो कर ही सकते हैं कि आपके लिखे को एक–एक ग्रुप में फॉरवर्ड कर देंगे। बड़ा काम है ये भी!”
और तभी पहुँच जाते हैं आपके घर बब्बन चाचा—“हैं हैं ” करते हुए।
“गर्ग साहब… हैं हैं … ये मेरा लड़का है। अभी नौकरी में नया है। प्रोबेशन पर है। अफसर बड़ा भ्रष्ट है। मोटा माल वसूलता है। आप तो बोल्ड लिखते हो… कहीं लिख दो न उसके बारे में ताकि सुधर जाए!”
आप पूछते हैं—“आप खुद विरोध क्यों नहीं करते?”
तो वे दाएँ-बाएँ देखते हुए धीमे स्वर में—
“हैं हैं … लड़के की नौकरी का सवाल है। हाथ बँधे हैं। आप जैसा बोल्ड हम कहाँ?”
फिर शिकायतों के पुलिंदे आपके घर फेंकते हुए—
“लो लिखो… जमकर लिखो।
ये नगर पालिका का सैनिटरी इंस्पेक्टर—हमारा बहनोई लगता है, पर हरामी है साला । इस पर लिखो!
और ये विधायक… हमारी ही जात का है। चुनाव में 100 वोट दिलवाए थे हमने। पर चुनाव जीतते ही हमें ऐसे फेंक दिया जैसे दूध से मक्खी। इस पर लिखो!
हम समझते हैं आपकी हिम्मत को… इसलिए कह रहे हैं—बस लिखते रहो!”
और फिर निर्णय सुनाते हैं—
“आप हैं न हमारे लिए… लड़ते रहिए।
हम पीछे से सपोर्ट देंगे।
ज़रूरत पड़ी तो रात में आपके घर आकर ताली भी बजा देंगे।”
आप सोचते हैं—“ठीक है, लड़ाई लड़ लूँ। पर आप लोग क्या करेंगे?”
तुरंत जवाब—
“हम? हम तो समय आने पर चुपचाप निकल जाएँगे।
घर-परिवार वाले हैं भई… दुनियादारी आती है हमें।
आपका क्या—लेखक तो जीते-जी अपना पिंडदान कर देता है!”
ये मान चुके हैं कि आप उनके भाड़े के टट्टू हैं—जो उनकी संघर्ष-रेस जीतेंगे।
इन्होंने दाँव लगा दिया है आप पर।
खुद तमाशा देखते हैं—दुश्मनों के साथ बैठकर ताली बजाते हुए…
और मौका पड़ा तो रेस के घोड़े बदलने में भी देर नहीं लगाएँगे।
और आप?
आप तो बस लिखते रहते हैं…
और वे ‘क्रांति’ के नाम पर अपनी शाम की चाय में बिस्कुट डुबोते रहते हैं।
बस, आप लिखिए—क्योंकि ये आपका फैसला है ,सर आपने ही ओखली में डाला है तो मूसल से क्या डरना ।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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