कल्पना कीजिए—सुबह का झुटपुटा है, दूर कहीं मंदिर की घंटियाँ धीरे-धीरे गूँज रही हैं, हवा पत्तों से लिपटकर एक मद्धिम सरसराहट रच रही है, और आपके भीतर कहीं बहुत गहरे एक अनजाना-सा सुकून उतर रहा है। क्यों? क्या केवल इसलिए कि आपने कुछ “सुना”? या इसलिए कि उस ध्वनि ने आपके भीतर की किसी पुरानी तार को छुआ, उसे कंपन में ला दिया, और आप अचानक अपने आप से थोड़े और निकट हो गए? यही तो सामवेद का चमत्कार है—शब्दों को सुर देकर उन्हें केवल सूचना से अनुभव में, और अनुभव से साधना में बदल देना। ऋचा के ज्ञान को जब स्वर का पंख मिलता है, तो वह मात्र पंक्तियाँ नहीं रहतीं—वह स्पंदन बन जाती हैं, जिसमें ब्रह्मांड की वही मूल लय प्रतिध्वनित होती है जो सूर्य के उदय-अस्त में, नदियों के बहने में, हृदय की धड़कन में और श्वास के उठान-पतन में गुप्त स्वरूप से बजती रहती है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने ज्ञान को केवल याद रखने की वस्तु नहीं माना; उन्होंने उसे जिया, गाया, साधा—और इस तरह वेद केवल ग्रंथ न रहकर त्रिकाल-सत्य का श्रुति-संगीत बन गए।
सामवेद इसी संगीत-संस्कार की नाभि है। यह बताता है कि शब्द अकेले पर्याप्त नहीं; शब्द सही स्वर में, सही लय में, सही विराम के साथ मिलें, तभी अर्थ अपनी पूरी आभा में खिलता है। शांति बोल देने से जितनी शांति नहीं आती, शांति को एक गहरे, दीर्घ आलाप में तराश देने से उतनी शांति आती है, मानो कोई अदृश्य हाथ आपके विचारों की धूल झाड़ गया हो। सामगान का विज्ञान इसी समझ से उपजा: उदात, अनुदात और स्वरित—तीन आधार-स्वर जिन पर आगे चलकर भारतीय संगीत की सात-सुरी माला की थिरकन रची गई। यह केवल गले का अभ्यास नहीं, यह तो चेतना का व्यायाम है; सांस को साधे बिना स्वर कहाँ टिकता है, और ध्यान को साधे बिना स्वरों का अर्थ कहाँ खुलता है! इसलिए उद्गाता केवल गायक नहीं, वह एक योगी है—जो ध्वनि के पुल पर खड़ा होकर देह और दैव, दृश्य और अदृश्य, जप और अनुभव के बीच आवाजाही कराता है।
वेदकाल की यज्ञ-परंपरा में यही ध्वनि-सेतु सबसे निर्णायक थी। होता ऋग्वेद के मंत्रों से ज्ञान का आह्वान करता, अध्वर्यु यजुर्वेद के विधान से कर्म का, और उद्गाता सामवेद के सुरों से भाव का—ज्ञात, कर्ता और रस, तीनों ध्रुव एक भूमि पर। अग्नि की ज्वाला, हवन की सुगंध, आकाश की ओर उठता धूम, और उनके ऊपर एक स्वच्छ, ऊर्ध्वगामी धुन—यह बहुध्वनी संयोजन सामूहिक मन को एक लय में बाँध देता। यही तो ‘यज्ञ’ का नाभि-संगीत था, जो देवताओं को बुलाने का रूढ़ अर्थ छोड़िए, हमारे भीतर के इंद्र, अग्नि और सोम को जगाता था—इंद्र यानी साहस और इंद्रियनिग्रह; अग्नि यानी तेज, विवेक और रूपांतरण; सोम यानी निर्मल आनंद, रचनात्मकता और शांतिकल्लोल। जब भीतर का इंद्र जागता है, कातरता पीछे हटती है; जब अग्नि प्रज्वलित होती है, जड़ता और अज्ञान भस्म होते हैं; जब सोम उतरता है, मन रेशमी हो जाता है, कल्पनाशक्ति नदियों की तरह बहने लगती है। सामवेद का न्यौता यही है—खुद को सुर में लाओ ताकि जीवन राग बने, शोर नहीं।
नाद-ब्रह्म का सूत्र इस पूरे अनुभव का दार्शनिक हृदय है: ध्वनि ही दिव्य है। सृष्टि किसी नीरव रिक्ति से नहीं, किसी आदिम स्पंदन से चली—उसे आप बिगबैंग कहें या ‘ओंकार’ की व्यापक ध्वनि, सार एक ही है: जो कुछ है, कंपन में है। यही कारण है कि ओंकार के उच्चारण में ‘अ’ से ‘उ’ और ‘म’ तक की यात्रा देह के विभिन्न केंद्रों को छूती हुई अंत में मौन में विलीन हो जाती है—और वही मौन असल लक्ष्य है, वही समाधि का द्युतिमान तट। कितना अद्भुत विरोधाभास है कि ध्वनि हमें ध्वनिहीनता तक ले जाती है! जैसे काँटे से काँटा निकाला जाता है, वैसे ही सुर से भीतर के कोलाहल को, विचारों के असंख्य टुकड़ों को, अहं के आरोपित शोर को धीरे-धीरे बाहर किया जाता है—जब तक कि शुद्ध निस्तब्धता शेष न रह जाए, जहाँ सुनाई देता है ‘अनहद’—वह जो बिना आघात के बजता है।
आधुनिक प्रयोगशालाओं की भाषा में कहें तो साइमेटिक्स दिखाता है कि ध्वनि पदार्थ में आकृतियाँ बना सकती है; न्यूरोसाइंस बताता है कि लयबद्ध जप मस्तिष्क-तरंगों को शांति-दायक अल्फा/थीटा अवस्था में ले जाता है; मनोविज्ञान समझाता है कि संगीत अर्थ की चौखट से आगे बढ़कर सीधे अवचेतन के आँगन में प्रवेश कर जाता है। ऋषियों ने इस त्रयी को जीकर जाना, हमने उसे यंत्रों से नापा—पर निष्कर्ष एक ही: सही स्वर-संयोजन से मन विन्यस्त होता है, ऊर्जा संतुलित होती है, दृष्टि निर्मल होती है। मंत्र इसलिए काम करते हैं कि वे अर्थ से पहले कंपन हैं; अर्थ बाद में खुलता है, पहले ध्वनि शरीर और चेतना पर अपना संयम रचती है।
प्रकृति के साथ सामवेद का संवाद इसी कारण इतना स्वाभाविक लगता है। ऊषा के गीत में भोर की कोमलता है, मध्याह्न के स्वर में सूर्य का दहकता उत्साह, संध्या के राग में थकान हरती शीतलता। पत्तों की खड़खड़, झरने की कल-कल, बारिश की टप-टप—ये सब किसी दूरस्थ उपासना के नहीं, हमारे अपने नाड़ी-संगीत के प्रतिबिंब हैं। जब जीवन अपनी लय से हटता है—शहरों के कंक्रीट, समय की दौड़, इच्छाओं की गर्द—तो मन बेसुरा हो जाता है, और फिर हम किसी भी आवाज़ को ‘शोर’ समझने लगते हैं। सामवेद सिखाता है: पहले सुनो—बिना निर्णय के, बिना लेबल के—बाहर की ध्वनियों को, फिर धीरे-धीरे अपनी श्वास को। यह सुनना ही पहली साधना है; इसी से एकाग्रता का बीज फूटता है, इसी से भीतर का संगीत थिरकता है।
आज की तेज़, तिक्त, डेडलाइन-चालित दुनिया में सामवेद का उपदेश आश्रम की दीवारों तक सीमित उपदेश नहीं; यह एक व्यावहारिक दिनचर्या बन सकता है। सुबह का पाँच मिनट का राग—कोई भी, जो आपके मन को निर्मल करे—दिन भर के भाव-संतुलन की धुरी बन सकता है। थकान के समय का दो मिनट का आलाप—गुनगुनाहट भर—आपके तनाव को हल्का कर सकता है। रोज़ के शब्दों में थोड़ी सजगता, थोड़ी कृतज्ञता—“मैं शांत और सक्षम हूँ”, “मैं हर दिन थोड़ा बेहतर हो रहा हूँ”—यह आपके अवचेतन की रेखाओं को नए, सकारात्मक वक्र दे सकता है। यह कोई रहस्यवाद नहीं; यह स्वर, श्वास और भावना का अनवरत संयोजन है, जो धीरे-धीरे आदत बनकर स्वभाव में ढल जाता है।
और अंत में, वही मूल सीख जो सामवेद अपनी संपूर्णता में फुसफुसाता है—आपका जीवन स्वयं एक रचना है। आप इसके उद्गाता भी हैं और श्रोता भी। आपकी सांसें इसकी लय हैं, आपकी धड़कन इसकी ताल है, और आपके भाव इसके सुर। क्रोध, ईर्ष्या, भय—ये सब बेसुरी जोड़ हैं; प्रेम, करुणा, आनंद—ये सब सम सुर। चुनाव प्रतिदिन आपका है: क्या आप अपने भीतर के कोलाहल को बढ़ाएंगे, या उसे स्वर-साधना में ढालकर एक गीत बनाएँगे? जब काम को आप लय देते हैं, वह यज्ञ बन जाता है; जब संबंधों में आप संवाद का संगीत घोलते हैं, वे उत्सव बन जाते हैं; जब प्रकृति के साथ आप सुनने का रिश्ता बनाते हैं, वह गुरु बन जाती है।
सामवेद का संगीत बाहर से शुरू होकर भीतर के परम मौन तक जाता है—सुर से समाधि तक। यह यात्रा बताती है कि अध्यात्म सूखी विरक्ति नहीं, सजग सौंदर्य-रस है; यह अपने को दंडित करने की नहीं, अपने को सुरबद्ध करने की विधि है। बस इतना कीजिए—दिन में कुछ पल सुनने के, कुछ पल गुनगुनाने के, कुछ पल कृतज्ञ होने के रखिए। शब्दों को सजग बनाइए, श्वास को सधा कीजिए, प्रकृति को गुरु मानकर उससे फिर से बातें करिए। तब आप पाएँगे—जो गीत आप इतने समय से बाहर ढूँढ़ रहे थे, वह तो भीतर ही धीमे-धीमे बज रहा था, आपकी प्रतीक्षा में।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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