सच्ची दोस्ती की कड़ियाँ — एक अद्भुत बंधन की बुनावट

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 3, 2025 Important days 2

जीवन की उलझनों के बीच, यह कहानी एक ऐसे मित्र की है, जिसकी उपस्थिति पुराने स्कूल दिनों की मासूमियत और बेलगाम हँसी की याद दिलाती है। ये दोस्ती समय और दूरी से परे, एक ऐसा रिश्ता है जो सामाजिक मुखौटों को हटाकर आत्मीयता की गहराइयों में उतरता है। चाहे टमाटर चुराना हो या किराए के कमरे में फिल्में देखना, हर स्मृति इस बंधन को अमूल्य बनाती है। यह मित्र न सिर्फ सहारा है बल्कि आत्मीयता का प्रतीक भी है — एक ऐसा रत्न जो दुनिया की हर दौलत से अनमोल है।

हारे हुए प्रत्याशी की हाल-ए-सूरत-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 3, 2025 व्यंग रचनाएं 0

चुनाव हारने के बाद नेताजी के चेहरे की मुस्कान स्थायी उदासी में बदल गई। कार्यकर्ता सांत्वनाकार बन चुके हैं, बासी बर्फी पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, और भैंस का उदाहरण देते हुए आलाकमान ने नेताजी को समझाया — “राजनीति भी दुधारु भैंस है, एक दिन बाखरी होनी ही पड़ती है।”

रेवड़ी की सिसकियां-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 2, 2025 व्यंग रचनाएं 0

"रेवड़ी की सिसकियां" एक व्यंग्यात्मक संवाद है उस 'जनकल्याणकारी नीति' की आत्मा से, जिसे अब राजनैतिक मुफ्तखोरी की देवी बना दिया गया है। लेख में रेवड़ी देवी स्वयं अपने नाम पर हो रहे राजनैतिक तमाशे से व्यथित हैं — उन्हें ग़रीबों की सहायक बनने के बजाय वोट हथियाने का औज़ार बना दिया गया है। मुफ्त योजनाओं की बाढ़ में मेहनत, करदाता और योग्यता हाशिए पर चले गए हैं। लेख एक गहन कटाक्ष है उस लोकतांत्रिक दिशा पर, जहां वादों की फेहरिस्त में 'काम' नहीं, 'फ्री' है।

राग दरबारी- एक अनवरत बजता भारतीय राग 

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 2, 2025 शोध लेख 1

"राग दरबारी कोई उपन्यास नहीं, भारतीय लोकतंत्र की एक्स-रे प्लेट है। श्रीलाल शुक्ल की यह कृति व्यवस्था के सड़ांधभरे तंत्र पर तीखा व्यंग्य करती है। शिवपालगंज की गलियों से लेकर विश्वविद्यालयों, संस्थानों, और मीडिया तक—हर जगह इस रचना के पात्र जीवित प्रतीत होते हैं। खन्ना मास्टर, वैद्यजी, रामाधीन — ये नाम नहीं, व्यवस्था के प्रतीक हैं। रचना की वन लाइनर्स आज भी उतनी ही प्रासंगिक और तीखी हैं, जितनी 60 वर्ष पूर्व थीं। ‘राग दरबारी’ हर पीढ़ी के लिए नया पाठ है—हँसाने के बहाने सोचने पर मजबूर करता हुआ।"

मुंशी प्रेमचंद जी की कुर्सी-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Jul 31, 2025 People 0

मुंशी प्रेमचंद की ऐतिहासिक कुर्सी अब एक प्रतीक है—सच्चे लेखन, मूल्यों और विचारों की अडिगता का। पर आज का लेखक इस कुर्सी की स्थिरता नहीं, उसकी रिवॉल्विंग खोजता है—जो सत्ता, समीक्षकों और विमोचन मंडलियों की दिशा में घूम सके। प्रेमचंद की फटी चप्पलें तो स्वीकार हैं, पर उनकी कुर्सी का सीधा-सरल डिज़ाइन नहीं। आज की कुर्सियाँ चिपकने वाली हैं, घूमने वाली हैं, कई पहियों वाली हैं। लेखक का संघर्ष अब सृजन का नहीं, कुर्सी को हथियाने और बचाने का हो गया है। प्रेमचंद की कुर्सी आज भी अडिग है—क्योंकि उसमें गोंद नहीं था, केवल आत्मा थी।

मेरी बात हो गई है ऊपर-व्यंग्य रचना

Pradeep Audichya Jul 31, 2025 व्यंग रचनाएं 2

नेता जी ने बचपन में ही तय कर लिया था कि वह सिर्फ नेता बनेंगे। अब जनसेवा के नाम पर वह चाय की दुकानों पर घूमते हैं, उधारी बढ़ाते हैं और हर बात में कहते हैं – "मेरी बात ऊपर हो गई है।" कार्यकर्ता जेल में हो या शहर अधर में – समाधान ऊपर तय होता है।

संस्था का स्वयंवर: ‘योग्यता’ नहीं, ‘जुगाड़’ की वरमाला!

डॉ मुकेश 'असीमित' Jul 30, 2025 व्यंग रचनाएं 6

संस्था अब कोई विचारशील मंच नहीं, एक शर्मीली दुल्हन बन चुकी है, जिसका स्वयंवर हर दो साल बाद होता है। यहां वरमाला योग्यताओं पर नहीं, जुगाड़ और सिफारिशों पर डाली जाती है। मंच सजे हैं, दूल्हे कतार में हैं—किसी के पास डिग्री, तो किसी के पास 'ऊपर' तक पहुंच। पढ़िए, जब संस्था के मंडप में लोकतंत्र लपका बनने निकल पड़ा!

वोट से विष तक : नागों का लोकतांत्रिक सफर

डॉ मुकेश 'असीमित' Jul 29, 2025 व्यंग रचनाएं 6

यह रचना नाग पंचमी के बहाने लोकतांत्रिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। इसमें नाग रूपी नेताओं की तुलना असली साँपों से करते हुए बताया गया है कि किस तरह जनता अपने वोट, टैक्स और परंपरा से इन नागों को दूध पिलाने का काम करती है, जो बाद में उसे ही डसते हैं। यह व्यंग्य परंपरा, राजनीति और नकली महानताओं का आइना है।

‘डिजिटल इंडिया’ से ‘डिजिटल असमानता’ तक : क्या सबको मिल रहा है बराबरी का लाभ?

Dr Shailesh Shukla Jul 29, 2025 समसामयिकी 1

डिजिटल इंडिया के दस वर्षों बाद, आज़ादी और समानता का वादा अधूरा प्रतीत होता है। ग्रामीण भारत अब भी डिजिटल संसाधनों की कमी, तकनीकी अक्षमता और भाषा बाधाओं से जूझ रहा है। सरकारी ऐप्स और योजनाएं केवल कागज़ों में प्रभावी हैं, ज़मीनी स्तर पर आमजन तकनीकी अंधेरे में हैं। क्या यह समावेशी सशक्तिकरण है या डिजिटल बहिष्करण?

हम, हमारा बचपन और सरकारी स्कूल

डॉ मुकेश 'असीमित' Jul 27, 2025 व्यंग रचनाएं 9

सरकारी स्कूल की ये कहानी सिर्फ दीवारों के गिरने की नहीं, एक पूरी पीढ़ी के सपनों की टूट-फूट की दास्तान है। मिट्टी भरे मैदानों, पाटोरनुमा छतों और सामुदायिक भवनों में पढ़ते बच्चों की यादें आज भी ज़िंदा हैं। ये व्यंग्य नहीं, शिक्षा व्यवस्था पर एक करुण लेकिन तीखा कटाक्ष है — जहाँ स्कूल बारातगृह बनते हैं और छुट्टी पंचमेल की थाली से तय होती है।