जीनीयस जनरेशन की ‘लोल’ भाषा
“जेन ज़ी की ‘लोल भाषा’ ने व्याकरण के सिंहासन को हिला दिया है। अब भाषा नहीं, भावना प्राथमिक है। अक्षरों का वजन घट रहा है, इमोजी विचार बन रहे हैं — यह सिर्फ बातचीत नहीं, एक सांस्कृतिक क्रांति है।”
“जेन ज़ी की ‘लोल भाषा’ ने व्याकरण के सिंहासन को हिला दिया है। अब भाषा नहीं, भावना प्राथमिक है। अक्षरों का वजन घट रहा है, इमोजी विचार बन रहे हैं — यह सिर्फ बातचीत नहीं, एक सांस्कृतिक क्रांति है।”
धनतेरस के शुभ अवसर पर जब जेबें खाली हैं और बाज़ार भरा पड़ा है, तब लेखक हंसी और व्यंग्य से पूछता है — “धनतेरस किसके लिए शुभ है?” यह रचना बताती है कि असली उल्लू कौन है — वह जो लक्ष्मी जी के साथ उड़ता है या वह जो उनकी प्रतीक्षा में खाली वॉलेट थामे बैठा है। हास्य, कटाक्ष और सटीक सामाजिक टिप्पणी से भरा व्यंग्य।
संघ-साहित्य केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि आत्मसंयम और सेवा की जीवंत साधना है। यह परंपरा के मौन और आधुनिकता के संवाद के बीच बहने वाला विचार-सरोवर है, जिसमें हर पन्ना अनुशासन की साँस लेता है। यह नारा नहीं देता, विचार बोता है; विरोध को अस्वीकार नहीं करता, उसे आत्मसात करता है। यही साहित्य संघ की वह आत्मा है, जो शब्दों से कर्म तक, और कर्म से विचार तक अपना चक्र पूरा करती है — निरंतर, भारतीय और जीवंत।
संघ-साहित्य केवल प्रचार का उपकरण नहीं, बल्कि विचार की निरंतरता का प्रमाण है। यह शाखाओं से निकलकर पुस्तकों, पत्रिकाओं और डिजिटल संवादों में प्रवाहित होती एक चेतना है, जो अनुशासन के साथ आत्ममंथन भी सिखाती है। इन पन्नों में न केवल विचारों की गर्माहट है, बल्कि वह मौन भी है जो संस्कार बनकर पीढ़ियों में उतरता है। यह साहित्य नारे नहीं, आत्मसंवाद रचता है — और यही इसकी स्थायी प्रासंगिकता है।
दीपावली की यह व्यंग्यात्मक ‘फटूकड़ियां 2025’ केवल रोशनी का उत्सव नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र, राजनीति, न्याय और समाज की मानसिकता पर तीखा हास्य है। लेखक प्रह्लाद श्रीमाली ने पटाखों की जगह बयानों, दीपों, और विचारों को जलाकर एक ऐसी दीपमाला रची है जिसमें नागरिक विवेक, राजनैतिक धुआं और आत्मावलोकन की झिलमिलाहट सब एक साथ चमकते हैं।
“भारतीय साहित्य में गहराई की कमी नहीं, पर संवाद और अनुवाद की दीवार उसे वैश्विक कानों तक पहुँचने नहीं देती। नोबेल से बड़ा है वह शब्द जो सीमाएँ लांघ जाए।”
पहले आदमी अपनी कुंडली देखकर तय करता था कि आज दिन कैसा रहेगा; अब बस यही देखता है — बाई आ रही है या नहीं! अगर नहीं आ रही तो समझ लीजिए — आज का दिन शुभ नहीं है। घर में बर्तन, झाड़ू और रिश्ते — सब एक साथ बजते हैं। गृहस्थी के इस धर्मयुद्ध में ‘काम वाली बाई’ ही असली दुर्गा है — जो झाड़ू को त्रिशूल और पोछे को शंख बनाकर कलह रूपी राक्षस का संहार करती है।”
अब मनुष्य “सामाजिक प्राणी” से “पालतू प्राणी” में विकसित हो चुका है। पट्टा अब कुत्ते के गले में नहीं, बल्कि उसकी ईएमआई और सोशल मीडिया की आदतों में है। बच्चों से बचत कर, जिम्मेदारियों से बचकर जब जीवन में भावनात्मक खालीपन आता है — तो इंसान “टॉमी” पाल लेता है और धीरे-धीरे खुद ही कुत्तानुकरण काल में प्रवेश कर जाता है।
भारतीय दर्शन उस अनूठी यात्रा का नाम है जो व्यक्ति के “मैं” से शुरू होकर “हम” तक पहुँचती है। न्याय बुद्धि को कसौटी देता है, वैशेषिक जगत की रचना को व्यवस्थित करता है, सांख्य भीतर के साक्षी को पहचानता है, योग उस साक्षी में ठहरना सिखाता है, मीमांसा कर्म की पवित्रता को जोड़ती है, और वेदांत बताता है कि यह सब एक ही ब्रह्म की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। यह ज्ञान का नहीं, अनुभव का मार्ग है — जहाँ आत्मबोध विश्वबोध में बदल जाता है।
"जब मनुष्य अपने भीतर के ‘मैं’ से जागता है, तभी उसके बाहर का ‘हम’ जन्म लेता है। आत्मबोध से विश्वबोध की यह यात्रा केवल ध्यान या साधना नहीं, बल्कि समरसता, करुणा और दायित्व का जागरण है — जहाँ व्यक्ति स्वयं से उठकर सम्पूर्ण सृष्टि का अंग बन जाता है।"