“मैं बच्चा हूँ, ट्रॉफी नहीं”
मैं बच्चा हूँ —
कोई ट्रॉफी नहीं
जिसे तुम बैठक में सजा कर
तुम कहते हो —
“हम तुम्हारे लिए सपने देख रहे हैं”
पर वो सपने हैं तुम्हारे,
क्यों मेरे पलकों पर बोझ बने हैं ये ?
तुम मेरी आँखों को
दूरबीन बना देना चाहते हो,
ताकि उनसे
अपने अधूरे स्वप्नों का चंद्रमा देख सको।
तुमने मेरी हँसी को
एग्ज़ाम टाइमटेबल में बाँध दिया,
मेरे पैरों को रेस के ट्रैक पर रख
स्टॉपवॉच थमा दी।
तुम कहते हो —
“हमारे ज़माने में यह सब नहीं था”,
तो क्या
मेरे ज़माने को चाहते हो अपना जैसा बनाना ।
मैं तुम्हारी ग़लतियों के बग्स
को हटाया हुआ कोई संस्करण नहीं हूँ,
मैं अलग प्रश्नपत्र हूँ —
और तुम हो ,
जिसे हर बार अपने जवाबों से भरना चाहते हो।
मैं जब गिरता हूँ —
तुम्हारे सपनों का आईना चटकता है,
पर मुझे नहीं दिखता
उस आईने में मेरा चेहरा।
तुम कहते हो —
“तुम्हारे भले के लिए कर रहे हैं,”
तो क्या मेरा ‘भला’
रिज्यूम में
लिखी एक पंक्ति भर है?
मुझे अपने लिए
रात के सन्नाटे में
तारों से बात करनी है,
कृपया मुझे
कुछ बनने से पहले
इंसान बने रहने दो।
मैं बच्चा हूँ —
कोई ट्रॉफी नहीं
जो तुम्हारे गौरव की शो-केस में फिट हो जाए।
मैं बहते बादलों सा हूँ,
अपने आकार खुद बनाना चाहता हूँ।
— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
(लेखक, व्यंग्यकार, चिकित्सक)
निवास स्थान: गंगापुर सिटी, राजस्थान
पता -डॉ मुकेश गर्ग
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