किराएदार की व्यथा: एक हास्य-व्यंग्य रचना
कहते हैं साहित्य संवेदना से उपजता है, और व्यंग्य खड़ा होता है पीड़ित की आह से। लेकिन कभी कभार पीड़ित ग्राही और पीड़ित दाता इंटरचेंजेबल होते हैं, जहाँ दोनों पक्ष ही अपनी-अपनी दलीलों से पीड़ित ग्राही वाली श्रेणी में अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं। मैंने दोनों की ही सुनी है; एक बार मकान मालिक की व्यथा पर लिखा था तो इस बार उसे बैलेंस करते हुए किराएदार की व्यथा पर लिख रहा हूँ। कहते हैं, भोगा हुआ यथार्थ ही कुछ कलम से उतर पाता है। हमने दोनों ही यथार्थ भोगे हैं—एक मकान मालिक के रूप में भी और एक किराएदार के रूप में भी। तो जो लिखा है वह पूरी तरह सच्ची घटनाओं पर आधारित है और किसी भी काल्पनिक घटना, इवेंट, किस्से-कहानियों से इसका कोई संबंध नहीं।
ये मैं हूँ—किराएदार! लगता है ब्रह्मा जी ने मुझे बनाते वक्त, मेरी किस्मत में ‘किराया’ और ‘कलेश’ जैसे शब्दों का स्थायी निवास लिख दिया था। मकान मालिक की निगाहों में मैं परमानेंट खलनायक हूँ। मकान मालिक मुझे मथुरा के पेड़े समझता है, जिसे वो खाना भी चाहता है और खाकर पछताता भी है। मेरे लिए मकान मालिक छछूंदर सा लगता है—ना खाते बने, ना निगलते।
मेरा जीवन भी क्या खूब है। कॉलेज में एंटर किया तो खाने के लिए मेस का जुगाड़ तो हो गया, लेकिन हॉस्टल का अलॉटमेंट पहले साल नहीं हुआ । सबसे बड़ी समस्या आन पड़ी—सर छुपाने को जगह। कॉलेज में ही हम मच्छरों को भिनभिनाते देख, कई दलालों ने हमें पकड़ लिया। “अच्छा कमरा लेना है? जी हाँ ।” हाँ, दिला देंगे।पोश कॉलोनी में दिलवा दूँ ?” “नेकी और पूछ पूछ “,मैंने कहा lअरे साहब, पोश कॉलोनी में अकेले को कौन मकान देता है? आजकल मकान मालिक कहाँ भरोसा करते हैं, बिना जान-पहचान के देते नहीं। हम आपको अपना रिश्तेदार बताकर दिला देंगे। बस, एक महीने का किराया हमारा कमीशन।” किराए की रकम सुनकर हमारे होश फाख्ता हो गए और हम उस पॉश कॉलोनी में कमरा लेने से वंचित हो गए।
हमने पता लगाया कि कॉलेज के पास ही एक कॉलोनी किराए के धंधे के लिए बदनाम है। इसलिए कि यही एक कॉलोनी है जो, बावजूद इसके कि आप छात्र हैं, माँ-बाप ने आपका बाल विवाह नहीं किया, वैसे तो छात्र होने से ही आपकी शक्ल छठे बदमाश की सी निकल आयी है, रिस्क पूरी है कि आप मकान मालिक की लड़की को भगाकर ले ही जाएँगे या किसी और की लड़की को अपनी बहन बताकर मकान में लाएँगे… , लेकिन फिर भी, धंधा जिसमें दो पैसे आ जाएँ, वो धंधा बुरा नहीं होता साहब। इस कॉलोनी वालों ने अपने कमरों को बिठा दिया है धंदे पर l तो हमने भी पैर रखा इस बदनाम गली में। हर गली में, हर नुक्कड़ पर, कोई न कोई मकान मालिक, अपने मकान के झरोखे से नीचे ताक रहा है। मुझे ऐसे बुला रहा है जैसे मैं किसी रेड लाइट वाले एरिया में आ गया हूँ l ‘मकान किराए पर उठाना’ यहाँ का पुश्तैनी और एकमात्र धंधा है।
अपने मकान में, गली में बेतरतीबी से और पड़ोसियों से लड़-भिड़कर, एक कमरा ऐसे निकाल लिया है जैसे बूढ़े आदमी की कूबड़ निकल गई हो। कमरा निकालना भी एक ढीठता, निर्लज्जता और कई बार कोर्ट-कचहरियों, नगर परिषद के नुमाइंदों से साठ-गांठ ले-देकर संपन्न होता है। पहले सामने बह रहे नाले को पाटा जाता है उसके ऊपर ओटा जैसा चबूतरा बनाया जता है । फिर ओटे पर दो पिलर खड़े करके वहाँ छत तान दी जाती है। 5 फुट जगह ये और 3 फुट अपने खुद के मकान का पेट काटकर दी जाती है। तब जाकर यह आशियाना खड़ा होता है। इसे हवादार बनाया जाता है इसलिए खिड़कियों पर काँच नहीं लगाते।
सुभीता ये रही कि बिना कोई हमारे खानदान के कर्मों-कुकर्मों का लेखा-जोखा का अवलोकन किए हमें कमरा मिल गया। इस कॉलोनी में सिर्फ किराए का धंधा ही नहीं, पशुपालन का धंधा भी ज़ोरों पर था। हर मकान मालिक किराएदार और भैंस दोनों को पालता था। दोनों ही दुधारू थे। भैंसों का तबेला पीछे की तरफ होता था, लेकिन उसके चारा-पानी का स्टोर हाउस हमारे रूम से सटा हुआ। शहर में रहकर भी ‘अहा ग्राम्य जीवन ‘ से जुड़ना एक अनोखा अनुभव रहा।
नियम था कि दूध आपको भैंस का ही पीना पड़ेगा l डेरी के दूध पीने वालों को निम्न कोटि का किरायेदार समझा जता था l और अगर मकान मालिक ने भैंस भी पाल रखी है तो माकन मालिक की भैंस का ही दूध ही सुगन्धित पुश्वटीर्धक और वीर्य-बलम प्रदायी मन जता था । मैंने कहा, “मैं सिर्फ़ एक चाय पीता हूँ कैंटीन में, मुझे दूध की ज़रूरत नहीं।” मकान मालिक ने मुझे ऐसे घूरा जैसे मेरी मम्मी घूरती थे जब हम दूध पीने से इनकार कर देते थे। डर के मारे मैंने आधा किलो दूध लेना स्वीकार किया।
सुबह अखबार पढ़ने की आदत थी। मकान मालिक का अखबार हम उठा लाते थे । अंकल जी एक बार धमकते हुए बोले, “अरे! आप अलग से अखबार क्यों नहीं लगा लेते?” हमने शर्म खाकर अखबार लगवाया। दस दिन बाद मकान मालिक ने अखबार बंद कर दिया। अब वो हमारा ही अखबार ले जाते थे। जब तक पढ़कर लौटाते, हमारा कॉलेज जाने का समय हो जाता। धीरे-धीरे उन्होंने लौटाना भी बंद कर दिया। महीने भर की रद्दी इकट्ठी हुई। एक दिन कर्टसी के वशीभूत वो बोले, “रखवा दूँ आपके कमरे में?” मैंने कहा, “कमरे में इतनी जगह कहाँ है अंकल?” “ठीक है, कबाड़ वाले को बेच देता हूँ।” बेच दिए गए। शायद उन पैसों की मेरी एफडी करवा दी हो। मैंने पूछने की हिम्मत नहीं की। 32 साल हो गए l 3 लाख के करीब तो हो ही गए होंगे। सोच रहा हूँ वकील से बात कर क्लेम उठा लूँ।
रोज़ मकान मालिक का दुनियादारी का ज्ञान, संस्कार और रहन-सहन के तौर-तरीके सिखाए जाने का सत्र चलता । मकान मालिक रोज़ अपने करम फूटने का रोना रोता कि उन्हें हम जैसे किराएदार मिले। “पहले वाले किरायेदार थे साहब , क्या किरायेदार थे,गऊ थे एक दम गउ ,आज भी फोन करते हैं। बिल्कुल ऐसे कि बेटों से बढ़कर! कभी किसी काम के लिए मना नहीं करते। एक बार तुम्हारी आंटी बीमार हुईं तो खुद ले गए हॉस्पिटल, इलाज करवाया। दो दिन ICU में पलक तक नहीं झपकी।” वो याद करते हुए भावुक हो गए। मैं अंकल के दुख में शरीक होना चाहता था ,उनका दुःख वाजिब था कि ऐसा नालायक किराएदार उनके नसीब में लिखा था ! लेकिन कहते हैं ना, जो भाग में मिले वो भीरु, जो किस्मत में लिखा वो किराएदार।
वो हमें पाठ पढ़ाते… नल आने पर कम से कम पानी से कैसे काम चलाएँ… वॉशरूम में आधा बाल्टी पानी ,आधा नहाने के लिए, पीने के लिए एक जग। महीने में बिजली का बिल हाथ में आते ही उनके तन बदन में करंट सा दौड़ता। उन्होंने बिल के झटकों को कम करने के प्रयोजन से कमरे का अलग से सब-मीटर लगवा दिया। फिर एक दिन बिजली कर्मचारी को बुलाकर ऐसा कुछ प्रावधान किया कि वो खुद मुख्य -मीटर में आ रही बिजली के करंट से बच सके, इसलिए पूरा करंट सब-मीटर में ही दौडा दिया । जैसे गहने से गढ़ाई महंगी, ऐसे ही किराए से बिजली महंगी लगने लगी। लेकिन मजबूरी… अभी हॉस्टल मिलने में दो महीने बाकी थे।
लेकिन ऐसा नहीं है, मकान मालिक का हृदय परिवर्तन भी होता है। महीने के किए गए कुकर्मों का एक दिन प्रायश्चित करने का समय आता है l और वो होता है महीने की पहली तारीख। इस दिन मकान मालिक एक मिमियाते मेमने की तरह आता था। “हें हें… कोई परेशानी तो नहीं? तुम तो बिल्कुल मेरे बेटे की तरह हो। कोई परेशानी हो तो बता देना बेटा। अरे सुनती हो, अरे चाय बना दो भागवान इनको। अच्छा बेटा… बैठ जाओ… हें हें…
“अंकल! किराया कल दे दूँ?” “हें हें… अरे, हाँ दे देना, कल दे देना। कौनसा किराया मांगने आए हैं हम? बताओ! वो कल जरूर दे देना बेटा, तुम्हें पता है… हमें भी मकान के लोन की EMI भरनी पड़ती है।”
मकान मालिक वो प्राणी है जिसकी आँखें X-ray मशीन हैं। दीवार पर हल्की सी खरोंच, नल से टपकती पानी की एक बूंद, या छत पर चिपका एक मच्छर—सब उनकी ‘गुणवत्ता जांच’ के दायरे में आ जाते हैं।
“ओहो! ये दीवार पर ये क्या लग गया? पिछली बार नहीं था ये।”
“नहीं अंकल, ये तो खरोंच तो शायद प्लास्टर करते वक्त मिस्त्री से रह गई होगी।”
“वो नल की टोटी पूरी तरह बंद नहीं की तुमने, सारी रात पानी टपकता रहा!” मैंने कहा, “अंकल, टोटी खराब है। आंटी को कई बार बोला, बदलवाये नहीं।” “हें हें…”
“रात में लाइट बहुत देर तक जली रही, शायद भूल गए।” “नहीं अंकल, पढ़ रहा था, एग्जाम पास में है ना।” “अच्छा, अच्छा… लेकिन तुम वॉशरूम गए थे उस समय भी जल रही थी, ध्यान रखा करो बेटा।”
जब कमरा लिया था तो मकान मालिक ने यही कहा, “इसे अपना ही घर समझो, बरखुरदार।” हम भी इस आशा में थे, शायद एक साल रहेंगे तो क्या पता रजिस्ट्री हमारे नाम ही कर दें! एक दिन बाथरूम में कपड़ा टाँगने के लिए एक कील हमने अपना मकान जानकर ठोक दी, तो उस दिन अंकल ने तुरंत मकान अपने नाम कर लिया। “क्या तुम्हारा खुद का मकान होता, उसमें भी ऐसे ही कील ठोकते?” इसके साथ ही, आंटी के पास जाकर थोड़ा फुसफुसाकर हम पर दया भाव भी दिखाने लगे, “अरे गाँव से आए लोग हैं ये, इन्होंने कहाँ देखे हैं पक्के मकान ऐसे!”
एक बार रात को एक दोस्त गाँव से आया। बेचारे का कहीं और ठिकाना नहीं था, मैंने उसे अपने कमरे में ही सोने दिया। तो सुबह मकान मालिक के कान में हम दोनों की आवाजें ‘पार्टी की धमाकेदार आवाजें’ में तब्दील हो गईं। सुबह कान खुजाते हुए आए, “क्या हुआ? रात को बड़ी पार्टी-शार्टी हो रही थी?”
मकान मालिक की नज़र में, किराएदार एक ऐसी प्रजाति है जो उनके घर में घुसकर सिर्फ तोड़-फोड़ करने और पानी-बिजली बर्बाद करने के लिए आई है। उनकी बालकनी में सूखते तुम्हारे कपड़े भी उन्हें आँखों में खटकते हैं।
रिश्तेदार उन्हें यम के दूत लगते हैं, जैसे कोई साज़िश चल रही हो मकान मालिक के खिलाफ, कोई आतंकवादी बुलाए हों। एक बार मुझे देखने वाले आए, मेरा मतलब लड़के वाले। मकान मालिक ने गेट पर ही पूछा, “जी, किस सिलसिले में?” “जी, वो यहाँ रहते हैं, फलाँ गाँव के…” मकान मालिक ने उनका प्रयोजन समझकर, इससे पहले कि वो असली माल जिसे देखने आए थे वो देख पाते , उन्होंने अपना खुद का नकली माल—यानी कि उनका लड़का दिखा दिया असली बताकर। “ये देखिए साहब, आप भी कौनसा गाँव का माल देखने आए हैं, ये है शहर का मॉडर्न, आधुनिक ख्यालों वाला माल।”
एक बार मम्मी-पापा आ गए, कुछ दिन रुके तो मकान मालिक ने ऑफर दिया, “क्यों ना एक दूसरा कमरा खाली है, उसे भी ले लीजिए आप किराए पर। आपके रिश्तेदार रोज़-रोज़ ही आते रहते हैं।”
ऐसा नहीं है इन मकान मालिकों की लगाम नहीं खींची जा सकती है। इन्हें आप बीच-बीच में कमरा खाली करने की चेतावनी दे डालिए।
बस फिर इनके बेलगाम नाक में दम करने वाले घोड़े हिनहिनाकर रुक जायेंगे . “अरे बेटा! तुम तो अपने घर के जैसे हो। कहाँ जाओगे इस महँगाई में?” ये वापस मछली को पकड़ने के लिए काँटा डालेंगे।
हालाँकि मुझे मालूम है, शिफ्टिंग का खर्चा, नया मकान ढूँढने की जद्दोजहद, और फिर से नया एडवांस—इन सब से बेहतर है कि इसी जहन्नुम में थोड़ा और सह लिया जाए।
ये चक्रव्यूह है। इसमें घुसना आसान है, निकलना नहीं। सोचता हूँ, कभी ऐसा दिन भी आएगा जब मकान मालिक मुझ किराएदार को देखकर मुस्कुराएगा और कहेगा, “बेटा! इस महीने का किराया रहने दो। तुमने मेरे घर को इतनी अच्छी तरह संभाला है!” शायद ये सिर्फ मेरा ख्वाब है, जो नींद में भी किराया भरने का बिल देख रहा है। तब तक के लिए, मेरी व्यथा अमर रहे, और मेरा मकान मालिक खुशहाल रहे
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