कोल्हू का लोकतंत्र
लोकतंत्र असल में एक बड़ा-सा कोल्हू है। और लोक—यानी आम जनता—वे बैल हैं जिन्हें उसी कोल्हू पर जोता जा रहा है। जोतने वालों में वे सब नेता, अफसर और उनके पैरवी करने वाले शामिल हैं। तेल पिराने की होड़ सी लगी है… तेल निकालने के लिए तो कोई तिलहन जैसी फसल भी चाहिए न — और वह भी है: वोटों की फसल, बंपर पैदावार वाली फसल। राजनीति के इन उपजाऊ मैदानों में जो कुछ भी उगता है, उसका नतीजा यही होता है। यह फसल वोटों की है; बम्पर पैदावार इस खरपतवार की.. कैश क्रॉप कहें तो । अब तो हर ओर, हर गाँव-नगर में कोल्हू लग चुका है। लोकतंत्र का विकेंद्रीकरण कहो या सिर्फ फैला-चौड़ा रूप — सब जगह यही तेल पिराने की low investment, high return वाली प्रणाली चल रही है। आखिर तेल पिराने की प्रक्रिया सिर्फ दिल्ली तक क्यों सिमटी रहनी चाहिए?
अधिकार सबका है, इसलिए बंदरबांट कर दिया गया है —खाओ और खाने दो … तेल निकालो और निकालने दो। इस प्रकार तेल निकालने का हक और मात्रा हर हक़म-ओ-हुकूमत की काबिलियत और औकात के अनुसार बाँट दी गई है। जनता को बस बैल बनाकर लगाया गया है — कैसे तेल निकालना है, यह तो मालिकोँ को ही मालूम है। तेल की भी कई किस्में हैं — अलग-अलग पैकिंग, अलग-अलग टैग: आयोग, योजना, रेबड़िया, टेंडर, टैक्स, बजट के डिब्बों में पंक्त। पैकेजिंग जितनी भी बदल लो, तेल का रूप वही रहता है।
और बैलों को देखो — कभी-कभी वे ठिठक जाते हैं, सोचते हैं कि देखूं तो सही, तेल कितना निकल रहा है, कहाँ घूम रहे हैं ,कितने कोल्हू के चक्कर लग गए । चारों ओर घूम-घूम कर वे अंदाजा भी लगा लेते हैं कि कितना चल पाऊँगा, कहाँ पहुँच जाऊँगा। बताया जाता है कि आप कोल्हू चला ही नहीं रहे मित्र — इसे खींच रहे हो — यह लोकतंत्र है: इस खींच-तान में लोकतंत्र के कोल्हू को अगली सदी में ले जाया जाएगा; यह तुम्हारा ही कोल्हू है — जो तेल निकलेगा वह भी तुम्हारा ही होगा। तेल धकाधक निकल रहा है, बदले में उसे भी थोड़ा-सा सूखा चारा, थोड़ी खली मिल रही है। तेल निकालने के बाद बचे हुए हिस्से — बस इतना ही राशन कि वह जिन्दा रहे और जुता रहे।
अब ऐसे कोल्हू को चलाने में एक गड़बड़ है — मित्र, बैल को पता चलेगा कि यार घूम-फिरकर मैं तो वापस वहीँ पर आ गया जहाँ शुरू किया … कोल्हू घूम तो रहा है लेकिन कैसे उसे आगे बढ़ाएँ, नयी सदी में कैसे ले जाएँ? वह चिंतित हो सकता है; जनता चिंतित हो जाए तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। जनता बस आत्म-मुग्ध रहे — यह जरूरी है।
ख़ुशख़बरी यह है कि इसका तोड़ निकाल लिया गया है: जनता रूपी बैल की आँखों पर पट्टी बाँध दी गई है — रंग, मज़हब, जाति, क्षेत्र जैसी पट्टियाँ। ये पट्टियाँ ही बैलों को बिना देखे, बिना सोचे-समझे कोल्हू पर जोते रखती हैं। यदि पट्टी खुल जाए तो सारा खेल बिगड़ जाएगा। इसलिए पट्टी ज़्यादा मज़बूती से बाँधी जाती है — ताकि बैल रुकने की जगह बस अनवरत चलता रहे।
राजनीति का तेल नहीं निकल रहा ; सही मायने में राजनीति ही तेल निकालने का यंत्र बन चुकी है। दिन-रात जनता को कोल्हू के बैल की तरह घुमाया जा रहा है। गले में घंटी बाँध दी गई है, ताकि कोल्हू के मालिक दूर बैठे- बैठे सुन लें कि घंटी बज रही है — “बैल चल रहा है।” कभी चुनावी नारों की गूँज, कभी धर्मसभा के लाउडस्पीकर की गूँज, रैलियों की तालियाँ, कभी दंगों की चीखें — घंटी लगातार बजती रहती है और मालिक निश्चिंत रहते हैं कि बैल घूम रहा है और तेल टपक रहा है।
जनता भी कमाल की है: उसे यकीन हो गया है कि कोल्हू सिर्फ़ बैलों के लिए, बैलों के द्वारा और बैलों की ही निगरानी में चलता रहेगा — लोकतंत्र की परिभाषा उसने इसी रूप में समझ ली है। उसे लगता है कि तेल तो जनता का है, और जनता ही उसे पी रही है। हकीकत दूसरी है: तेल वही पीते हैं जो मालिक हैं — दलों के ठेकेदार, कुर्सी-व्यापारी और तिरंगे की ओट में दलाली करने वाले। जनता के माथे पर पट्टी इसलिए भी बाँध दी गई है ताकि वह देख ही न पाए कि कोल्हू चलाने वाले कहीं गायब हैं ,वो तो बैठे हैं अपने आरामगाह में और मनन कर रहे है की कैसे ‘तिलों को इतना निचोड़ा जाए की उनमें कोई तेल बचा ही नहीं रहे ।‘
लोकतंत्र का यह कोल्हू यूँ ही चलता रहेगा — सत्ता का तेल निकलेगा और मालिक उसका मलाईदार हिस्सा खरीदकर खाएँगे; बैल के हिस्से में वही सूखी खली और थोड़ी-सी सूखी घास बचेगी। हाँ, जनता को कोल्हू घुमाने का श्रेय मिल जाएगा — पर असली चाल किसकी है, यह देखने की आँखे पट्टी से बँधी रहती हैं। तेल निकलने के साथ ही कोल्हू को खींचा भी जा रहा है — उसे नए सदी के बाजारों में, नए सियासी खेलों की भट्टी तक पहुँचाने के लिए; जनता से कहा जाता है कि देखो, कोल्हू का चमत्कार जारी है — तुम बस घुमते रहो, तेल पिराते रहो, पहुँच ही जायेंगे ।
पट्टियाँ कुशलता से बदली-बदल कर बाँधी जाती हैं — देश-काल, परिस्थिति और अवसर के हिसाब से। कहीं हरी पट्टी बांधी जाती है , कहीं केसरिया, कहीं क्षेत्र-आधारित; कहीं जाति-आधारित, कहीं धर्म-आधारित; हर समूह के लिए एक अलग-अलग पट्टी। पूरी लोकतांत्रिक मंडी उन्हीं पट्टियों की बिकाऊ हो चली है; पार्टियाँ अपनी-अपनी पट्टियाँ बेचकर वोटों का कारोबार चलाती हैं।
कभी-कभी कुछ बैल ऐसे भी होते हैं जो इन पट्टियों को बेवजह नहीं स्वीकारते; वे पूछ बैठते हैं — “यह पट्टी आपने क्यों बाँधी?” तब मालिक विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहता है — “कृपया आप हट जाइए; आपकी आवाज़ अगर ऐसे जूते हुए बैलों ने सुन ली तो अनर्थ हो जाएगा।” आपको न जुटना है तो मत जुतिये ; कम से कम जो जुत रहे हैं उन्हें बाधित मत कीजिए। इतिहास ने सिखाया है कि जिसने आँख खोलने की कोशिश की, उसे सहन नहीं किया गया — या तो सूली पर चढ़ा दिया गया, ऐसे बैलों की तो कभी बेल भी नहीं हुई और जेलों में सड़ते रहे , या उस पर “देश-विद्रोही” का करारा लेबल चिपका दिया गया। ऐसे लोगों को दबाकर रखना ज़रूरी है ताकि कोल्हू बिना अवरोध के चलता रहे।
इसलिए पट्टियाँ और भी कसकर बाँधी जाती हैं — ताकि बैल बिना थके हारे बस चलते रहे । सोच-विचार की कोई गुंजाइश ही नहीं रहनी चाहिए; सोच से तेल नहीं निकाला जाता। और जब तक यही व्यवस्था कायम है, लोकतंत्र के मालिकों को तेल की कमी कभी नहीं होगी — भले ही जनता की खाल ही क्यों न उतर जाए।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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