मेरी पापा श्री महादेव प्रसाद प्रेमी की दूसरी पुस्तक ‘प्रेमी’ की कुण्डलियाँ” शीघ्र ही आपके हाथों में होगी। यह संग्रह उस छंद-विधा का है, जो हिंदी साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान रखती है—कुण्डलिया छंद।उनका रचनात्मक जीवन कुण्डलिया जैसे लोकप्रिय छंद से लगातार जुड़ा रहा।
कुण्डलिया, रसिकता और लय से भरी हुई वह विधा है, जिसमें दोहा और रोला का अद्भुत संयोग देखने को मिलता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें प्रथम चरण की पंक्ति का पुनरावर्तन अंतिम या अंतिम से पूर्व पंक्ति में तक़ल्लुस (नाम) के साथ किया जाता है। इसी पुनरावृत्ति से छंद में एक गोलाई, संपूर्णता और स्मरणीयता आ जाती है। उदाहरण स्वरूप—
“कुण्डलिया छंद है, दोहा-रोला साथ,
रस, लय और व्यंग्य का, है इसमें परिपाठ।
है इसमें परिपाठ, नाम भी आता इसमें,
सत्संगति का रूप, और नीति का है किस्मे,
‘प्रेमी’ कहें अनूठा है यह छंद निराला,
दोहा-रोला मिलन का, अनुपम उजियाला।”
इस संग्रहण और संपादन का कार्य मैंने किया है। प्रत्येक कुण्डली को और अधिक जीवंत और प्रभावशाली बनाने के लिए मैंने उनके साथ संबंधित चित्रात्मक अभिव्यक्तियाँ (इल्युस्ट्रेशन/लाइन-आर्ट) भी जोड़ी हैं। इस प्रकार यह पुस्तक केवल कविता-पाठ का अनुभव नहीं, बल्कि दृश्य और भावनात्मक आनंद का भी माध्यम बनेगी।
पुस्तक का कवर-डिज़ाइन भी इसी रचनात्मक प्रयास का हिस्सा है। उसका प्रारूप (जिसकी झलक मैं यहाँ साझा कर रहा हूँ) इसी उद्देश्य से तैयार किया गया है कि पाठक पुस्तक के पहले दर्शन में ही रस, लय, व्यंग्य, हास्य और नीति—all in one—का अनुभव कर सकें।
पाँच वर्ष पूर्व पापा का पहला संग्रह “बूझोबल” प्रकाशित हुआ था। वह एक अनूठा प्रयोग था—पुरानी श्रुति-परंपरा से चली आई पहेलियों को पुस्तक-रूप में प्रस्तुत करने का। पीढ़ी दर पीढ़ी लोकजीवन में रची-बसी पहेलियाँ अब लगभग लुप्तप्राय हो गई थीं। उन्हें पुनर्जीवित करने और पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास मैंने किया और सौभाग्य से उसे अपार स्नेह व प्रशंसा मिली।
उसी कड़ी में अब यह दूसरा संग्रह है—कुण्डलियाँ। यह छंद-विधा भक्ति-काल से लेकर रीतिकाल और समकालीन काल तक कवियों की प्रिय रही है। श्रीधर, गिरधर, तुलसीदास, सूरदास आदि ने भी कहीं-न-कहीं इस छंद में अपने भाव व्यक्त किए। यह परंपरा आज तक जीवित है, किंतु समकालीन कविता के ‘अकविता’ और दुरूह बौद्धिक विमर्श के दौर में गेयता और रस की जो सहजता थी, वह धीरे-धीरे पाठकों से दूर हो गई है। यही स्थिति व्यंग्य के साथ भी हुई—व्यंग्य के नाम पर खिचड़ी-सा कुछ परोसा जाने लगा, जिसमें असली स्वाद खो गया।
ऐसे समय में मेरा यह छोटा-सा प्रयास है कि कुण्डलिया जैसी लोकप्रसिद्ध और गेय विधा को फिर से पाठकों तक जीवित स्वरूप में पहुँचाया जाए। इस विधा में मैं पापा के लगातार लेखन कार्य का कायल हूँ इस उम्र में भी इतनी सक्रियता । चुनी हुई रचनाओं को संकलित करके यह पुस्तक आपके समक्ष ला रहा हूँ।
आशा है कि यह पुस्तक न केवल कुण्डलिया छंद की पुनर्स्मृति बनेगी, बल्कि समकालीन पाठकों के लिए आनंद और विचार का समन्वय भी प्रस्तुत करेगी।
आपका
डॉ. मुकेश असीमित
(संग्राहक एवं संपादक)