चलो बुलावा आया है
चलो बुलावा आया है, दिल्ली ने बुलाया है। इनकी निगाहें दिल्ली पर टिकी हुई हैं। क्या नेता, क्या लेखक, क्या कलाकार—सबकी नजरें दिल्ली की ओर लगी रहती हैं। जैसे गली-गली में आवारा घूम रहा आशिक, जो बस दिल्ली के एक इशारे भर की देर में अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर दिल्ली को कूच कर दे। कोई रैली के लिए, कोई धरना-प्रदर्शन के लिए, कोई टिकट के लिए, कोई पुरस्कार के लिए—सबके लिए बस एक ही मंजिल…एक ही सहारा…हारे का सहारा… “चलो दिल्ली।” दिल्ली एक मंजिल है, एक आकर्षण है, एक मानक है, एक वॉशिंग मशीन भी, जहां हर प्रकार के दाग धुल जाते हैं।
राजनेताओं की तो एक टांग अपने क्षेत्र में है, तो दूसरी दिल्ली में। कुछ ऐसे हैं, जिनका बुलावा नहीं आता, फिर भी हर दूसरे दिन दिल्ली जा पहुँचते हैं। शायद बुलाने वाले भूल गए हों। दिल्ली का बुलावा भी अनोखा असर डालता है। नींद उड़ जाती है जब दिल्ली से बुलावा आता है—चाहे उनके पास पहले से कुर्सी हो या जिन्हें कुर्सी लेनी हो। एक को डर के मारे नींद नहीं आती, तो दूसरे को खुशी के मारे। सब अपनी आँख, नाक, कान दिल्ली की ओर लगाए रखते हैं। दिल्ली तो जादूगर है, जो नेताओं की सारी इंद्रियों को वश में रखती है।
कोई गंगा में डुबकी लगाकर अपने पापों का प्रायश्चित करता है, इधर दिल्ली की यमुना नदी न जाने कितने ही दिल्लीजीवियों के पापों को धो-धोकर प्रदूषित होती जा रही है।
दिल्ली बादल है—आशाओं और आकांक्षाओं का उमड़-घुमड़ कर घूमता बादल। बरसने पर आए तो छप्पर फाड़कर बरसे। न जाने कितने ही चाँद इन बादलों में अपने आपको ढंके हुए हैं। उनके क्षेत्र की जनता इंतजार कर रही है कि बादल छँटे और इन्हें इनके चाँद का दीदार हो, जनता की विरह दूर हो। जनता शरमाई-संकोचाई सी, भूखी-प्यासी, घूँघट ओढ़े बैठी है…चाँद का दीदार हो तो अपना व्रत खोले। पर ये दिल्ली के बादल हैं जी..! किस करवट बैठें, कह नहीं सकते।
जैसे मियाँ की दौड़ मस्जिद तक, वैसे ही नेता की दौड़ दिल्ली तक। हमारे क्षेत्र का तो मौसम भी दिल्ली का उधार लिया हुआ मौसम है। दिल्ली में चली ठंडी हवा तो यहाँ पड़े कड़ाके की ठंड। दिल्ली का पारा चढ़े तो यहाँ पड़ी भीषण गर्मी। दिल्ली को जुकाम हो तो यहाँ सीधा 100 डिग्री बुखार।
दिल्ली की एक छींक पर तो सेंसेक्स की साँसें भी धराशायी हो जाएँ। दिल्ली परमात्मा है, वहाँ से निकली आत्माएँ पंचतत्व रूपी नेता के शरीर को धारण करती हैं। नेताजी की आत्मा तो पहले ही दिल्ली में कैद रहती है…बस चुनाव के बाद शरीर भी दिल्ली में पंचतत्व में विलीन हो जाता है…तो फिर पाँच साल तक विलीन ही रहता है।
फिर आते हैं चुनाव-सारे नेताओं की आत्माएँ दिल्ली से रिलीज़ होना शुरू होती हैं। ऊँचे भावों में उठते हैं टेंडर…बिकी हुई आत्माएँ…नए-नए शरीर धारण करती हैं, चोला बदलती हैं, दल बदलती हैं। भटकती हुई आत्माएँ ढूँढती रहती हैं अपना निवास…मंत्रालय, आयोग, समितियों की कुर्सियों के आसपास। रह जाती है तो जनता—रोते-बिलखते परिजनों की तरह विलाप करती हुई।
राजनीति जीवन चक्र है—जो आया है, वो जाएगा। कल फिर कोई आएगा। कब आपके हसीन सपनों को चुराकर दिल्ली भाग जाएगा, कह नहीं सकते।
वो कहते हैं, “दिल्ली हमारे बाप की,” कहते रहो जी! आखिर में दिल्ली सबको साबित कर देती है कि वो क्या है… सबकी बाप है वो!
बस, यह राजनैतिक रंगमंच है। सारी कठपुतलियाँ अपना खेल दिखा रही हैं। सबकी डोर दिल्ली के हाथ में है। दिल्ली…खेल दिखाने वाला कलाकार है, जो अपने हाथ की कलाबाज़ियाँ दिखा रहा है। खींच लेता है डोरी कभी भी। किस-किस कठपुतली को खेल में लगाना है, कौन कहाँ किसकी टाँग खींचेगा, गाली-गलौज, पटेबाजी, पटखनी का खेल… ये सब दिल्ली ही तय करती है। खेल के बीच में कब कठपुतलियाँ बदल जाएँ, यह सब अनिश्चित है। कठपुतलियाँ कब अपना चेहरा बदल लें, कुछ कहा नहीं जा सकता। खेल चलता रहता है, पर्दा गिरता नहीं, बस कलाकार बदल जाते हैं।
कोई भी नेता जब पालने में पल रहा होता है, तभी उसके पग पहचाने जा सकते हैं। देखो न, कैसे उसके पग दिल्ली की दिशा में कुलबुला रहे हैं। समझ लो, नेता बनने की तैयारी शुरू है। दिल्ली हो आयें ,अपने फाटे कुरते पर भी पेबंद लग जाए । दिल खोलकर ढिंढोरा पिटवा देंगे जी । जैसे समाज में विदेश से लौटे व्यक्ति को विशेष तवज्जो मिलती है, वैसे ही नेता समुदाय में “दिल्ली-रिटर्न” की धाक जमती है।
“दिल्ली-रिटर्न” का टैग लगते ही बाज़ार भाव बढ़ जाता है। माल शोरूम में दिखाने लायक हो जाता है।
दिल्ली-रिटर्न वाली पूँछ लगवा ली है तो अब मजाल है कि कोई मक्खी नाक पर बैठ जाए! पूँछ है, मक्खियाँ भगाने के लिए।
दिल्ली जाकर लोग अपने हिस्से की जितनी भी दिल्ली समेट सकते हैं, समेट लाते हैं। दिल्ली उनकी आत्मा में रच-बस जाती है। दिल्ली की धौंस दिखाकर न जाने कितने काम, जो सीधी उंगली से संभव नहीं, “दिल्ली की आँख” दिखाकर करवाए जाते हैं।
दिल्ली-रिटर्न भी दो प्रकार के होते हैं—एक वो, जिन्हें दिल्ली बुलाती है; और दूसरे वो, जो बिना बुलाए जाते हैं, लेकिन प्रचार ऐसे करते हैं मानो दिल्ली ने विशेष तौर पर बुलाया हो। चुनाव के मौसम में तो समझो दिल्ली इन दिल्लीजीवियों से ठसाठस भर जाती है। बस किसी तरह दिल्ली पहुँच जाएँ और टिकट मिल जाए—चाहे ब्लैक में ही क्यों न लेना पड़े।
जुगाड़, प्रपंच, दल-बल, खेमा, साम-दाम-दंड-भेद… बस एक ही आशा, एक ही ख्वाहिश—इस बार दिल्ली हमें बुला ले।
चंदूमल जी दिल्ली होकर आए हैं। सारे शागिर्द उनकी मिजाज़पुरसी में लगे हैं, लेकिन उनका मिजाज़ उखड़ा हुआ है। शायद दिल्ली के भाग का छींका इनके आँगन में नहीं टूटा। बहुत साधने की कोशिश की, पर एक धुर-विरोधी, जो कभी दिल्ली जाने वाली कार में इनके पीछे बैठता था, अब खुद अपनी कार लेकर दिल्ली चला गया। कब निकल गया, इन्हें भनक तक नहीं लगी।
चंदुमल टाक रहे हैं अपनी कुर्सी को एकटक,…कुर्सी हिल सी रही है । आशंकाओं से दिल डूबने सा लग रहा है।
“क्या हुआ? क्यों याद किया? अब पार्टी पर आरोप लगे हैं, मुझे क्यों बलि का बकरा बनाया जा रहा है? बताओ… मुझसे इस्तीफा तो नहीं माँग लेंगे?”
ढेरों आशंकाएँ!
वाह रे दिल्ली और दिल्ली-रिटर्न वालों, धन्य हो!

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
मेरी व्यंग्यात्मक पुस्तकें खरीदने के लिए लिंक पर क्लिक करें – “Girne Mein Kya Harz Hai” और “Roses and Thorns”
Notion Press –Roses and Thorns
संपर्क: [email protected]
YouTube Channel: Dr Mukesh Aseemit – Vyangya Vatika
📲 WhatsApp Channel – डॉ मुकेश असीमित 🔔
📘 Facebook Page – Dr Mukesh Aseemit 👍
📸 Instagram Page – Mukesh Garg | The Focus Unlimited 🌟
💼 LinkedIn – Dr Mukesh Garg 🧑⚕️
🐦 X (Twitter) – Dr Mukesh Aseemit 🗣️