लोकतंत्र की गाड़ी चल पड़ी, पम पम पम!
बैठिए, बैठिए, भाई साहब, लोकतंत्र की गाड़ी चल पड़ी है।
टायर पुराने हैं, हवा भी आधी ही है, लेकिन चिंता मत कीजिए, ये गाड़ी कहीं रुकने वाली नहीं।
“धक्का मत मारो,” ड्राइवर चिल्ला रहा है। “गाड़ी हिचकोले खा रही है तो क्या हुआ, चल तो रही है!”
ड्राइवर बूढ़ा है, आँखों में धुंध है, पर जीपीएस नया-नया लगवाया है।
वैसे ये जीपीएस भी अजीब है, जो सिर्फ ड्राइवर की आवाज़ सुनता है।
“जिधर मैं कहूँगा, उधर गाड़ी जाएगी। जनता को दिशा बताने की क्या ज़रूरत?”
आखिरकार, गाड़ी में बैठे लोग तो वोट देकर टिकट खरीद चुके हैं।
“अब मंज़िल की फिक्र छोड़ो और सफर का आनंद लो,” ड्राइवर कुटिल मुस्कान बिखेरकर कहता है।
लोकतंत्र की इस गाड़ी का डिज़ाइन भी निराला है।
टायर में ट्यूब नहीं, बल्कि वादों की हवा भरी गई है।
इंजन? जी हाँ, वो पुराने झूठे भाषणों की गर्मी से चलता है।
और सीटें?
भाई, सीटें आरक्षित हैं –
सामान्य जनता के लिए ‘जनरल डिब्बा’ है, खचाखच भरा। जनता भीड़ में ही सुकून महसूस करती है… अकेले बैठने में डर लगता है।
लेकिन VIP सीटें तो ठेकेदारों, अफसरों, रईसों, रसूखदारों और नेता के कारिंदों के लिए ही हैं।
हॉर्न? हॉर्न नहीं, भोंपू है, जो झूठे वादों की आवाज़ को और बढ़ा देता है।
मंज़िल?
ले जी, ये भी अपने एन कहीं… जी, मंज़िल थोड़े ही है, मंज़िल का सपना है न।
“2047 का भारत!”
ड्राइवर बार-बार यही दोहरा रहा है।
“हम एक दिन वहाँ पहुँचेंगे, जहाँ बुलंद भारत की बुलंद तस्वीरें आपका इंतज़ार कर रही हैं।
बस थोड़ा धैर्य रखिए, हिचकोलों का मज़ा लीजिए।”
गाड़ी के भीतर मनोरंजन की भी व्यवस्था है।
टीवी स्क्रीन पर पुराने सपनों की रील बार-बार चल रही है।
हर स्टेशन पर वही पुराने नारे और गीत सुनाई दे रहे हैं –
“नया भारत बन रहा है!”
गाड़ी की हालत?
यार, आप भी न, नखरे दिखाते हैं… जब टिकट खरीदा था तब तो नहीं पूछा कि जो बताया गया, वैसी ही गाड़ी मिलेगी!
बैठने को इतने उतावले कि आँख बंद कर टिकट खरीद लिया।
अब जैसी भी है, तुम्हारी किस्मत!
देख लो, ठोक बजा लो।
अब क्या… बैठना है तो बैठो, नहीं तो घिसटते रहो, रेंगते रहो।
ज़्यादा तीन-पाँच की तो कुचल दिए जाओगे इसी गाडी के पहियों के नीचे।
पहिये?
गाड़ी चला नहीं सकते तो क्या, पिद्दी जैसे आम आदमी को कुचलने का माद्दा तो रखते हैं!
गाड़ी की हालत खस्ता है।
टायर पंक्चर हैं, और पहिए अक्सर खिसक जाते हैं।
पहिये घूम रहे हैं… नहीं, लुढ़क रहे हैं… लुढ़काए जा रहे हैं…
गाड़ी के कई हिस्से तो जोड़-तोड़ से किसी तरह टिके हुए हैं।
असेंबली गाड़ी है ये – कहीं का कंकर, कहीं का रोड़ा… भानुमती ने कुनबा जोड़ा!
लेकिन चिंता मत करो…
हर पाँच साल में इस गाड़ी को धूल झाड़कर, पेंट चढ़ाकर चमकाया जाता है।
“वाह, इस बार गाड़ी नई लग रही है!”
पेंट के साथ पोस्टर चिपका दिए हैं – 2047 के भारत की तस्वीरें, नए भारत के घोषणापत्र।
ड्राइवर का अनुभव?
अरे जी, ये भी खूब कही!
जुगाड़ चलाया है… ये भी तो जुगाड़ की गाड़ी है।
बिल्कुल देसी जुगाड़ की तरह – विशुद्ध देसी तकनीक।
कॉपीराइटेड है, मेक इन इंडिया के तहत।
ड्राइवर कुशल है…
या यूँ कहें, चालाक!
वो गाड़ी को इस तरह हिलाता है कि
आप आँखें बंद कर लें बस…
आपको लगेगा कि गाड़ी चल तो रही है।
फिल्मों की शूटिंग वाली गाड़ी है ये!
कुछ लोग लगा दिए हैं
ये सूटबूट वाले लोग..कार्यपालिका का तमगा लिए
गाड़ी को हिचकोले देने के लिए…
ताकि सवारी को लगे, गाड़ी चल रही है!
आप मज़े लो…
कहीं पहुँचने की क्या जल्दी है?
गाड़ी जो चला रहा है, उसने अपना जीपीएस फिट कर ही लिया –
“जो हुकुम मेरे आका!”
गाड़ी में बैठे लोग भी अपनी-अपनी मंज़िल बता रहे हैं –
“सच की ओर चलो,”
“धर्म की ओर मुड़ो,”
“विकास की गली ले लो।”
यार, सब गडमड्ड कर दिया…
एक रास्ता कोई बताता नहीं!
कहाँ जाया जाए…?
फिर अपनों की तरफ भी जाना है…
जो गाड़ी में स्टेपनी लगाए बैठे हैं –
किसी की स्टियरिंग, किसी का पहिया, किसी की बॉडी…
भाई, उन सबकी भी सुननी है!
तुमने टिकट लेकर बस बैठने का अधिकार पाया है।
गाड़ी तो वहीं जाएगी, जहाँ इसे जुगाड़ से तैयार करने वाले ले जाएँगे!
कहाँ …?
रसातल में ले जा रहे हैं!
“अरे रे रे… इतनी री री क्यों मचा रखी है?”
आखिर देश के कर्णधार हैं वो!
शायद देश की बुलंद तस्वीर वहीं दिखे उनको…
तुम क्या जानो बाबू, गाड़ी चलाना आसान थोड़े ही है!
ड्राइवर है न?
उसे किसी की सुननी ही नहीं है!
उसके पास सत्ता का जीपीएस है –
“जो हुकुम मेरे आका!”
तो, भाईसाहब, सीट बेल्ट बाँध लीजिए…
लोकतंत्र की इस गाड़ी में सफर आसान नहीं।
लेकिन आपने ही चुना है!
आपको रोमांच पसंद है न…?
हिचकोले तो लगेंगे,
तो मज़े लो, तालियाँ बजाओ!
और मंज़िल?
भूल जाओ!
कहा ना…
“सफ़र में ही रहा करो, मंज़िल की जुस्तजू नहीं…”
गाड़ी का भोंपू बज रहा है, ना?
अरे ये तो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ जैसा तमगा लिए हैं..
पम पम पम…बजा रहे हैं
आनंद लीजिए,
लोकतंत्र की गाड़ी में बैठे रहिए बस!

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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