मध्यमवर्गीय शादियाँ
हमारे इलाक़े की मध्यमवर्गीय शादियाँ कुछ इसी तरह की होती हैं जैसे किसी भूले-बिसरे लोकगीत का लाइव रीमिक्स कर दिया गया हो — धुन परंपरा की, बोल नए ज़माने के, और बीच-बीच में डीजे साहब “बुको-बुको” करके लाइटें डिम कर दें तो पूरी बस्ती की भावनाएँ स्टेज पर थिरकने लगती हैं। दूल्हे के मामा जी से लेकर दुल्हन की मौसी तक हर कोई अपने-अपने “सुर” और “साज़” लेकर आता है — कहीं ढोल की धप-धप, कहीं फूफा और मौसाजी जी का सिग्नेचर स्टेप यानी नाग बने फूफा और नागिन बनी मौसा का “हुक स्टेप”!
रिश्ता पक्का करने की मीटिंग तो अपने आप में एक लघु-कुंभ होती है। ऐसा लगता है जैसे जोड़ी ऊपरवाले ने ही बनाई हो — दो बिछड़े परिवार सात जन्मों के बाद आज यहाँ आ मिले हैं। दोनों पक्ष पहली बार मिलते हैं और क्या चमत्कारिक संयोग बरसने लगते हैं—
“अरे, आपकी बुआ के भी लकवा आया था? जी, हमारे बुआ को भी दो साल पहले आया था।”
“आपने डॉ. रस्तोगी से इलाज कराया? अरे वाह, क्या संयोग है! हमारी बुआ का इलाज भी उन्हीं के पास चला।”
“आपके फूफा जी का बायपास हुआ? देखिए, हमारे यहाँ भी फूफा जी का बायपास हुआ था!”
“सच ही कहा है बहन जी, जोड़ियाँ तो ऊपरवाला ही बनाता है। देखिए क्या अद्भुत संयोग है!”
जैसे ही यह संयोग-वृष्टि थमती है, एक गंभीर प्रश्न हवा में तैरने लगता है —
“बहन जी, आप किस तरह की शादी एक्सपेक्ट कर रही हैं?”
और सामने से मधुर, संस्कारित, युगानुरूप उत्तर आता है —
“हमें कुछ नहीं चाहिए… बस ऐसी शादी जिससे दोनों घरों की शोभा बनी रहे।”
अब “शोभा बनी रहे” का अर्थ मित्र, आप चाहे कुछ भी लगाइए — यह बाय डिफ़ॉल्ट अपने आप डिकोड हो जाता है। इसका बहुआयामी अर्थ होता है — एक शादी के लिए बड़ा फ़ार्महाउस, पाँच पंडाल, तीन लाइव-काउंटर, एक मंडप और चार थीम—राजस्थानी, पंडितानी, पंजाबी, कॉन्टिनेंटल! दोनों के ठहरने के लिए एक बंगला बने न्यारा , लंबी-चौड़ी गाड़ियाँ, फोटोग्राफ़र के ड्रोन उड़ाने से लेकर दूल्हे राजा के हेलिकॉप्टर से आने तक का पूरा प्रबंध।
बचपन से ही दूल्हे ने सपना संजोया होता है कि एक दिन चीलगाडी में बैठेगा।
“शोभा” शब्द दरअसल एक सांस्कृतिक अर्थशास्त्र का मक्खन-लगा, चमचमाता हुआ शब्द है — जो बेटी वालों के अच्छा खासा चूना लगाने के काम आता है।
रिवाज़ों के बीच लेन-देन की भाषा भी कितनी सूक्ष्म होती है! कोई सीधे कुछ नहीं माँगता; सब “शोभा” की आड़ में माँगते हैं। “कुछ नहीं चाहिए” का अर्थ होता है—“सब कुछ चाहिए, पर बोलेंगे नहीं, आप समझदार हैं।”
“दहेज” शब्द को समाज ने अब आउटसोर्स कर दिया है। अब ट्रेंड है “आशीर्वाद” का।
और आशीर्वाद वही जो फोटो में अच्छा लगे—गाड़ी की चाबी, सोफे का सेट, स्मार्ट टीवी या ए.सी. की मुस्कान जो फोटो की शान बने।
मध्यमवर्ग आज शादी की खरीददारी में ‘सेल’ और ‘ईएमआई’ के बीच झूल रहा है—एक तरफ़ ईएमआई, दूसरी तरफ़ रिश्तेदारी की इज़्ज़त।
और इसके साथ ही बिना ‘हरद फिटकरी’ के भी रंग चोखा आ जाता है। पड़ोसी, पानवाला और प्रेसवाला — तीनों ही जल-भुन कर राख हो जाते हैं। ये तीनों ही हैं जो शादी-ब्याह में कुंडली मिलान के समय ज्यादातर नारद मुनि या मंथरा की भूमिका में होते हैं।
ये प्राणी है जो मैचिंग से ज़्यादा अनमैचिंग की कथा रचते हैं और लड़का-लड़की के खानदान का चरित्र प्रमाणपत्र जारी करने में सबसे आगे रहते हैं।
अब परंपराओं में तकनीक का तड़का लग गया है। हमारे इलाक़े में वे तमाम लड़के, जो पहले दूसरों की बारात के आगे घोड़ी की तरह नाचने का काम करते थे, अब जीवनसाथी डॉट कॉम पर शहनाई बजाते नज़र आते हैं।
डेटिंग ऐप पर जहाँ लड़कों की उँगलियाँ राइट-स्वाइप करते-करते सूज जाती हैं, वहीं उनके पिता उसी लड़के की शादी के लिए जीवनसाथी डॉट कॉम पर हेडफ़ोन लगाकर कॉल करते हैं —
“बेटा, बात आराम से करना…रूम का दरवाजा बंद कर ले ,वो रसोई में तुम्हारी माँ सिलबट्टे पर चटनी पीस रही है , कोई नॉइज़ ना जाए उधर ।”
लड़का सोचता है — “मैं प्रेम करूँ या इंटरव्यू दूँ?”
प्रोफ़ाइल में लिखा मिलता है — “नॉन-स्मोकर, नॉन-ड्रिंकर, फैमिली-ओरिएंटेड, सीईओ।”
ज़ूम करने पर पता चलता है कि मोनू अग्रवाल स्वीट्स के ओनर हैं — यानी ‘सीईओ’ = चाशनी एक्सपर्ट ऑफिसर!
दूसरी प्रोफ़ाइल में लिखा होता है — “दादा डॉक्टर, पिता डॉक्टर, खुद डॉक्टर।”
अर्थात् “डॉक्टर का रणबीर कपूर।”
बेचारा बेरोज़गार दिलवाला सोचता है — “मैं इस बेचारी लड़की के साथ अन्याय कर रहा हूँ।”
आत्मबलिदान की मुद्रा में वह फुसफुसाता है —
“जा जी ले तेरी ज़िंदगी, बहन… तेरा कन्यादान तो मैं ही करूँगा,”
और उधर पिताश्री अगली प्रोफ़ाइल पर स्वाइप-अप कर देते हैं।
अरेंज मैरिज के निरीक्षण में तीन अनिवार्य स्तंभ होते हैं — पड़ोसी, पनवाड़ी और प्रेस वाला।
इन तीनों का संयुक्त वक्तव्य कभी सकारात्मक नहीं होता।
क्योंकि पड़ोसी के घर के सामने की पार्किंग, पनवाड़ी की उधारी, और प्रेसवाले द्वारा दूल्हे के पिता की जलाई हुई पैंट — ये तीनों घटनाएँ पहले ही भावी दूल्हे का चरित्र-हनन कर चुकी होती हैं।
लड़की पक्ष पूछे — “लड़के वाले कैसे हैं?”
तो उत्तर का सार कुछ यूँ होता है —
“ज़हर हैं ज़हर! पूरा ख़ानदान कलेशी है — माँ कलेशी, बेटा कलेशी!”
बारात निकलने से पहले दूल्हे के घर में ड्रेस रिहर्सल चल रही होती है —
शेरवानी का हुक नहीं लग रहा, पगड़ी की पिन डगमगा रही, और सेफ़्टी पिन का सेफ़्टी फीचर जोखिम पर है।
उधर लड़की के यहाँ द्वाराचार, तोरण, फेरे, एंट्री सॉन्ग की तैयारियाँ ज़ोरों पर हैं।
मेकअप आर्टिस्ट की टीम लड़की के चेहरे की रंगाई-पुताई में व्यस्त है।
फोटोग्राफ़र ड्रोन उड़ा रहा है; और बराती ऊपर मुँह किए बुफ़े की प्लेटें आपस में टकरा रहे हैं!
फेरों के समय पंडित जी संस्कृत में जो कुछ भी बोलते हैं, उसका लोकानुवाद सास-बहू की दृष्टि में कुछ इस प्रकार होता है —
- “सहधर्मचारिणी भव” — बहू सुनती है “टीमवर्क”,
और सास सुनती है “हेल्प इन किचन।” - “सहगृहस्थी भव” — दूल्हा सोच रहा होता है “गैस का बिल, दूध का बिल, रिफ़िल का बिल — सब मुझे ही भरना है।”
स्टेज पर उड़ते गुलाब के पत्ते उसे याद दिला रहे होते हैं —
“तिलों में तेल अभी भी बाक़ी है… यानी रोमांस अभी ज़िंदा है!”
पर अगले ही हफ़्ते गैस-चूल्हे के ऊपर लाल मिर्च का झोंका उसे याद दिलाता है —
“रोमांस अब थोड़ा धुआँ-धुआँ होकर होगा।”
विदाई के समय जब आँसू बहते हैं, तब सबसे ज़्यादा काव्यात्मक होता है मध्यमवर्ग।
फोटो में आँसू जितने मोती जैसे दिखते हैं, बैंक स्टेटमेंट में वे उतने ही खारे और कड़वे होते हैं।
पर यही तो मध्यमवर्ग का सौंदर्यशास्त्र है — उस क्षण को काव्य-रस समझकर उदारस्थ करना, और उसके भीतर के खर्च को “दुनियादारी की व्यवस्था” कहकर हज़म कर लेना।
उधर दूल्हे की माँ चुपचाप मानसिक गणना कर रही होती हैं —
“अब घर में काम कैसे बँटेगा?”
बहू सोच रही होती है —
“ऑफ़िस, घर, मेहमान — सबका मैनेजमेंट कैसे होगा?”
और घर के पुरुष टीवी का रिमोट हाथ में दबाए गहन चिंतन में डूबे होते हैं —
उनकी चिंता गृहस्थी के सीमित दायरे से निकलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुँच जाती है —
“वर्ल्ड कप में कौन सी टीम जीतेगी?
रूस-यूक्रेन युद्ध का अंत कब होगा?”
लेकिन इस सबके बीच प्रेम चुपचाप अपना काम करता रहता है।
रात को जब सब सो जाते हैं और दिनभर की “शोभा” पसीने की तरह उतर जाती है,
तब दो लोग आपस में फुसफुसाकर तय करते हैं —
“कल दाल मैं बना लूँगी, ठीक है?”
“ठीक है, छौंक तुम लगाना।”
और दोनों हँस पड़ते हैं।
वहीं मध्यमवर्गीय शादी की असली चमक है —
लोकगीत की धुन, डीजे की लाइट, सोशल मीडिया की फोटो और किचन का धुआँ —
सब मिलकर एक ऐसा राग रचते हैं,
जिसमें तानों के बीच स्नेह की स्वर-लहरियाँ निरंतर गूँजती रहती हैं।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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