मैं निठल्ला सा मुखपोथी, मेरा मतलब फ़ेसबुक की दीवारों को आवारा आशिक की तरह छेड़ रहा था, कि एक पोस्ट पर नज़र पड़ी। पोस्ट मेरे और आप सबके प्रिय हिंदी साहित्य के पितामह मुंशी प्रेमचंद को लेकर थी, तो स्वाभाविक था कि अपनी आवारगी को लगाम देकर कुछ साहित्यिक गंभीरता के लक्षण प्रकट करूँ। मैं तुरंत गोलमाल का रामप्रसाद बनकर उसे पढ़ने लगा।
पोस्ट मुंशी प्रेमचंद जी की कुर्सी को लेकर थी। मेरा ध्यान कुर्सी से हट ही नहीं रहा था। वैसे भी कुर्सी सभी का मन मोह लेती है। आजकल तो बाज़ार में ऐसी-ऐसी कुर्सियां आती हैं कि मन करता है चार कुर्सियां अपने चैम्बर में लगा लूँ। अपनी दोनों टाँगें (क्या करूँ, भगवान ने दो ही दी हैं) दो अलग-अलग कुर्सियों पर पसार लूँ।
कुछ वैसे ही जैसे आजकल के हमारे मूर्धन्य साहित्यकार मनचाही कुर्सियों पर अपने पैर जमाए रखते हैं। आजकल वही सफल साहित्यकार है, जो एक से अधिक कुर्सियों पर बैठा है और दूसरी कुर्सियों पर भी अपने पाँव फैलाए हुए है। पैर भी भगवान ने दो ही दिए हैं, लेकिन इन साहित्यकारों को तो दस-दस पैर मिले हुए लगते हैं। लेखक ये, कथाकार ये, आलोचक ये, समीक्षक ये, प्रकाशक ये, विमोचन कर्ता ये—सभी कुर्सियां इनके पास!
ख़ैर, कुर्सी के साथ लिखा लेख भी बता देता हूँ—मुंशी प्रेमचंद जी कानपुर आकर धनपत राय-नवाब राय से मुंशी प्रेमचंद बन गए थे। बिल्कुल ठीक विपरीत, आजकल हर कोई लेखक मुंशी प्रेमचंद से धनपत राय-नवाब राय बनना चाहता है! हिंदी के कथा सम्राट मारवाड़ी इंटर कॉलेज में इसी कुर्सी पर बैठते थे। आज यह ऐतिहासिक धरोहर बन गई है।
जिन्होंने प्रेमचंद का साहित्य पढ़ा है, उन्हें मालूम होगा कि कानपुर की किस्सागोई वाली फितरत और बहुरंगी किरदारों ने कथा सम्राट को मजे का मसाला दिया। इसकी महक उनकी रचनाओं में अक्सर मिलती है। न जाने कितने लेख, विचार, कहानियां और उपन्यास उस कुर्सी पर बैठकर ख़याल में आए होंगे और उन्हें पन्नों में उकेरकर इस दुनिया को भेंट किए होंगे। हिंदी युग का स्वर्णिम काल!
आज जब हिंदी कथा जगत पितामह प्रेमचंद जी को याद कर रहा है, तो इस कुर्सी के दीदार करना भी ज़रूरी है। प्रेमचंद की कुर्सी जो आज भी सुरक्षित है—कोई कुत्सित विचारों की जंग नहीं लगी, वक्त की दीमक इसे चाट नहीं पाई। कुर्सी के पाए, हत्थे, सिरहाना, सीट—सब जस के तस!
देखकर लगता है कि आजकल की कुर्सियां कितनी कमजोर होती हैं। नट-बोल्ट ढीले होते हैं। और ढीले नहीं होते तो ढीले करने वाले दिन-रात लगे रहते हैं। सीटें फट जाती हैं। हालाँकि प्रेमचंद के फटे जूतों से तो उंगलियां बाहर नज़र आती थीं, लेकिन कुर्सी की फटी सीट से लेखक की झुकती कमर झांकती है।
और बेपेंदे के लोटे-सा नितम्ब किसी को नजर नहीं आता! कुर्सियां बनाई ही इस तरह जाती हैं कि जो कोई उस पर बैठे, उसे ऐसा लगे जैसे यह कुर्सी उसी के लिए बनी हो और उसी के साथ जाएगी। कुर्सी में पायों पर पहिये भी लगाए जाते हैं ताकि कुर्सी को मनपसंद जगह पर ले जाया जा सके—ऐसी जगह, जहां उसके विचारों पर स्वामीभक्तों की भीड़ साष्टांग लोटने लगे। खुद भी अपने विचारों को देश, काल और परिस्थितियों की मांग के अनुसार पलटी मार सके।
अब मानो लेफ्ट विंग के आइडिया आ रहे हों और विचारों में कम्युनिस्टवाद की झलक हो। लेकिन यदि आपके इस कृत्य से सत्ता को अपनी कुर्सी हिलती नजर आए, तो फिर आपकी कुर्सी कौन बचाएगा? कुर्सी ऐसी होनी चाहिए जो तुरंत घूमकर आपके विचारों को दाईं तरफ मोड़ सके। आजकल लेखक को एक ही विधा से जुड़े रहना खतरे से खाली नहीं है। यह बिल्कुल रेलवे विंडो की लाइन की तरह है—आपको पता लगेगा कि आपकी वाली लाइन लंबी होती जा रही है, खिड़की तक पहुंचने में सालों लग जाएंगे, और जब तक पहुंचें, तब तक शायद साहित्यिक मलाई बंटना खत्म हो जाए।
आपको हमेशा दूसरों की थाली में घी नजर आने लगता है। दूसरी लाइन छोटी नजर आती है, तो आपको अपनी कुर्सी दूसरी लाइन में लगानी पड़ेगी। कुर्सी में हत्थों का क्या काम? पैरों को टिकाने के लिए फुट रेस्ट का क्या काम? प्रेमचंद जी की कुर्सी में ये सब थे क्योंकि उनके लिखे में हाथ भी होते थे, पैर भी, और सिर भी। आजकल वही बिकता है जो बेसिर-पैर हो। आपके हाथ छिपे रहें, क्योंकि हाथ दिखेंगे तो लोगों को पता चल जाएगा कि ये हाथ तो आपके हैं ही नहीं; ये तो किसी और के हाथ हैं, जो आपके ऊपर वरदहस्त रूप में विराजित हैं।
प्रेमचंद जी की कुर्सी एक ही जगह फिक्स थी—घूम नहीं सकती थी। आजकल कुर्सियां रिवॉल्विंग बनाई जाती हैं ताकि उस पर कभी भी पाला बदला जा सके। सरकार बदले, तो भाव बदल जाए। लेखक को कुर्सी घूमती हुई चाहिए, ताकि जो आज लिखा, कल उससे पलट सके। थ्री-सिक्स्टी डिग्री बयान बदल सके। दल बदलते हैं, तो आपके लेखन की भक्ति की दिशा भी बदलनी चाहिए। यह कुर्सी पर बने रहने के लिए जरूरी होता है।
कुर्सी सिर्फ लिखने के लिए नहीं, कुछ और भी प्रयोजन है। आयोजन, समितियों, अकादमियों की कुर्सी जीवन धन्य कर देती है। लेखक सिर्फ लेखक ही रहे, तो प्रकाशकों और संपादकों की चापलूसी करता रह जाएगा। प्रकाशकों के घर भरने के अलावा और क्या कर पाएगा? आजकल जितने लेखक हैं, उतने तो पाठक भी नहीं। अब अपनी खुद की ही रचनाओं को पढ़ने का समय नहीं, औरों की कहां से पढ़ेंगे?
थोड़े दिन में देख लेना, पाठक भी पेड मिलने लगेंगे, जैसे एड देखने के पैसे मिलते हैं, वैसे ही पढ़ने के भी पैसे मिलेंगे। प्रेमचंद जी की कुर्सी से लगाव तो सभी को है, लेकिन कुर्सी सभी अपनी-अपनी डिजाइन की बनाना चाहते हैं। कुर्ता, धोती, टोपी—ये सब तो हुबहू प्रेमचंद जी के जैसे पहन लेंगे, कोई शर्म नहीं। प्रेमचंद जी ने जितने फटे जूते पहने, उससे ज्यादा फटे में नजर आ सकते हैं, लेकिन कुर्सी अपनी डिजाइन की होनी चाहिए।
प्रेमचंद जी जिस कुर्सी पर बैठते थे, उसमें गोंद नहीं लगा था, इसलिए वह चिपकती नहीं थी। अब यदि कोई कुर्सी पर बैठे और वह चिपके नहीं, तो बड़ा खतरा है। कुर्सी खाली होते ही कोई भी उस पर बैठने को उतावला हो जाएगा। अगर कुर्सी चिपकी रहे, तो कुर्सी जाने का खतरा नहीं रहता। जहां भी जाएंगे, कुर्सी साथ जाएगी। लेकिन एक और खतरा है—यदि कुर्सी की डिज़ाइन चोरी हो गई, तो कोई नकली कुर्सी भी ला सकता है और उसे असली बताकर उस पर बैठ सकता है।
वैसे, सरकार से अनुरोध है कि संग्रहालय में रखी कुर्सी पर सुरक्षा बढ़ा दी जाए। कुछ लोग कुर्सी की नकल के लिए उसे वहां से चुरा भी सकते हैं। हर हाल में प्रेमचंद जी की कुर्सी को संरक्षित रखना आवश्यक है।
अब कुछ और कस्टम डिज़ाइन जरूरी हैं, जैसे कि कुर्सी के पायों को इतना लंबा बनाया जाए कि पैर जमीन तक पहुंच ही न सकें। साहित्य के रंगते कीड़ों का कोई भरोसा नहीं; कब ये कदमों से रंगते हुए ऊपर चढ़कर कुर्सी हथिया लें, कहा नहीं जा सकता। बड़ा धोखा है। साहित्यकार का जीवन भी बड़ा संघर्षमय होता है। आधी जिंदगी साहित्य सृजन में निकल जाती है, उससे कुछ कम कुर्सी हथियाने में, और अब बची हुई जिंदगी कुर्सी बचाने में लग जाती है।
कुर्सी पर बैठे लेखक की हालत वैसी ही हो जाती है, जैसे महंगाई के बोझ तले दबा आम आदमी। लोग समझते हैं कि लेखक की कुर्सी आरामदायक होती है, लेकिन असल में यह कांटों का ताज है। अगर लेखक ने किसी विशेष विचारधारा का समर्थन कर दिया, तो विरोधी विचारधारा वाले उसे कुर्सी से गिराने का हरसंभव प्रयास करेंगे। और यदि लेखक ने तटस्थ रहकर लिखा, तो हर तरफ से पत्थर बरसाए जाएंगे।
प्रेमचंद जी की कुर्सी पर बैठने का सपना हर लेखक देखता है, लेकिन उसमें बैठने का साहस बहुत कम लोगों में होता है। आज के लेखक को तो अपनी कुर्सी की इतनी चिंता रहती है कि वह लिखने से ज्यादा उसे संभालने में लगा रहता है। कोई न कोई उसकी कुर्सी खींचने की कोशिश करता रहता है। प्रेमचंद जी की कुर्सी की मजबूती का राज शायद यही था कि वे बिना किसी भय के सच्चाई लिखते थे।
आजकल का लेखक सच्चाई लिखने से पहले सौ बार सोचता है कि कहीं उसकी कुर्सी न चली जाए। कुर्सी पर लिखी जाने वाली रचनाएं ज्यादा बिकती हैं, क्योंकि पाठकों को भी अब साहित्य में ‘कुर्सी’ का समावेश पसंद आता है। फर्श पर बैठे किसी लेखक की रचनाएं पढ़ना पाठकों को अपनी पाठकीय क्षमता का अपमान लगता है।
इस दौर में प्रेमचंद की कुर्सी एक प्रेरणा है, लेकिन आज के लेखकों के लिए एक चुनौती भी। प्रेमचंद जी ने अपने लेखन से जो स्थान बनाया, वह आज के लेखकों को रिवॉल्विंग कुर्सी पर बैठकर बनाना है। यह ऐसा दौर है, जहां हर रोज कुर्सी की परीक्षा होती है और लेखक को बार-बार यह साबित करना पड़ता है कि वह कुर्सी के योग्य है।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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