नोबेल, भारतीय लेखक और वैश्विक संवाद की सीमाएँ
गली-मोहल्ले के टटपुंजिया पुरस्कारों से लेकर नोबेल प्राइज़ तक—कहते हैं, हर सम्मान की अपनी राजनीति होती है। 2025 का साहित्य का नोबेल हंगरी के उपन्यासकार और पटकथा लेखक लास्ज़लो क्रास्ज़नाहोरकाई को मिला है। पर जैसे ही नाम घोषित हुआ, एक परिचित सी गूंज भारत में भी सुनाई दी—“टैगोर के बाद आखिर कोई भारतीय क्यों नहीं?” 1913 में गीतांजलि के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर को मिला पुरस्कार अब भी हमारे साहित्यिक मानस में एक अमर स्मृति और अधूरी आकांक्षा की तरह तैरता है।
टैगोर की साहित्यिक प्रतिभा निर्विवाद थी, पर उनका वैश्विक संवाद, यीट्स जैसे मित्रों से गहरी निकटता और अंग्रेज़ी में उत्कृष्ट अनुवाद ने इस सम्मान की राह खोली। यह पुरस्कार उतना ही ‘अनुवाद’ का था जितना कि ‘गीतांजलि’ का। सच कहें तो भारतीय लेखन का यह अकेला अंतरराष्ट्रीय प्रतिध्वनि-पल था, जो आज भी एक प्रश्नचिह्न बनकर झूल रहा है—क्या हम सचमुच इतने वैश्विक नहीं हुए कि हमें कोई सुने?
भारतीय साहित्य में संवेदना, गहराई और विचार की कमी नहीं। प्रेमचंद, निराला, अज्ञेय, दिनकर, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, कुंवर नारायण या महादेवी वर्मा—इनके शब्दों में वह करुणा, दृष्टि और मानवीय संघर्ष का स्वर है जो किसी भी युग में सार्वभौमिक बन सकता है। किंतु समस्या यह है कि हमारे लेखन का स्वर सीमित दायरे में ही गूंजता है। हमने संवाद तो किया, पर अपनी ही भाषा में; हमने यथार्थ लिखा, पर वह स्थानीय पीड़ा तक सिमट गया; हमने चिंतन किया, पर उसका अनुवाद नहीं हुआ।
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने बहुत पहले कहा था कि “पश्चिमी देशों में साहित्यिक श्रेष्ठता की ऐंठ के कारण भारतीय साहित्य का प्रवेश नहीं हुआ।” यह ऐंठ आज भी कायम है—सफेद चोगे में छिपा एक रंगभेद, एक यूरोपीय दंभ कि श्रेष्ठ साहित्य वही है जो अंग्रेज़ी या यूरोपीय भाषाओं में जन्म ले। लेकिन क्या दोष सिर्फ उनका है? शायद नहीं। दोष हमारा भी है—हम संवाद नहीं करते, अनुवाद नहीं करते, और जो करते हैं, वे भी परंपरा से कटे हुए ढंग से।
पश्चिम का साहित्य अब भी व्यक्ति और अस्तित्व की भाषा में सहज है, जबकि भारतीय लेखन समाज, जाति और संघर्षों में उलझा है। हमारे लेखकों की सोच जितनी गहराई लिए होती है, उतनी ही स्थानीय भी। हम अपने गली-कूचों के दर्द को लिखते हैं, पर उसे ‘मानवता’ के स्तर पर रूपांतरित नहीं करते। पश्चिम का पाठक उस जटिल सामाजिक ताने-बाने को ‘एक्सोटिक’ मानकर पढ़ता है, लेकिन अपनाता नहीं। यही वह जगह है जहाँ भारतीय लेखन का वैश्विक अनुनाद टूटता है।
नोबेल पुरस्कार की विश्वसनीयता अब भी बची है—यह बात सही है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि जो नहीं मिला, वह कमतर है। रामचरितमानस का कोई भी अंश पढ़ लीजिए—उसकी दार्शनिक ऊँचाई किसी भी नोबेल लौरिएट से आगे है। तुलसीदास जीवित होते तो संभवतः यह पुरस्कार उन्हें नहीं मिलता, क्योंकि उनके लिए ‘पुरस्कार’ नहीं, ‘पाठक का अंतःकरण’ ही बड़ा था। नोबेल, आखिर पश्चिम का एक सांस्कृतिक उत्सव है, और हर उत्सव में अपनी राजनीति छिपी होती है।
वास्तविक संकट यह है कि भारतीय साहित्यिक संस्थाएँ भी अब गुटबंदी और वैचारिक असहिष्णुता में उलझ चुकी हैं। ‘कौन छापेगा किसे’ यह निर्णायक प्रश्न हो गया है। आलोचना तंत्र आत्ममुग्ध है, साहित्य-चिंतन शिविरबद्ध है, और अनुवाद—वह तो अब भी ‘फुरसत’ के इंतज़ार में है। इसी कारण विश्व मंच पर हमारी उपस्थिति सीमित है।
हिन्दी साहित्य को सबसे बड़ा नुकसान उसकी “पार्ट-टाइम मानसिकता” ने पहुँचाया है। हमारे अधिकांश लेखक ‘रोज़ी’ किसी और काम से कमाते हैं और ‘रचना’ शौक से करते हैं। जबकि पश्चिम के लेखक लिखकर जीते हैं—और इसलिए उनका लेखन अधिक सघन, अधिक समर्पित, और अधिक आत्मकेंद्रित होता है। हमारे लिए साहित्य अब भी ‘दिल दा मामला’ है, पर जब तक यह ‘बिल दा मामला’ नहीं बनेगा, तब तक हमारा लेखन वैश्विक नहीं हो पाएगा।
यह भी सच है कि भारत का सर्वोत्तम लेखन अंग्रेज़ी अनुवाद के बिना अंतरराष्ट्रीय पहचान नहीं पा सकता। चाहे गीतांजलि श्री हों या बानो मुश्ताक—बुकर उनके अंग्रेज़ी अनुवाद को मिला। असल में दुनिया अनुवाद में ही हमें पहचानती है।
इसलिए सवाल यह नहीं कि नोबेल क्यों नहीं मिला; सवाल यह है कि हमने दुनिया से संवाद करने की कितनी कोशिश की। नोबेल एक प्रतीक है—सम्मान से ज्यादा एक संकेत कि आपकी आवाज़ सुनी गई। अगर हम अपनी भाषा, अपनी संवेदना, और अपनी आत्मा को अनुवाद की दीवार पार पहुँचा दें—तो कौन जानता है, अगला नोबेल किसी गली नुक्कड़ के कवि की काग़ज़ पर लिखी ‘ग़ैर-यूरोपीय सच्चाई’ को भी मिल सकता है।
अगर मुझे एक वाक्य में इस वृतांत को कहने के लिए कहा जाए तो मैं बस इतना ही कहूँगा –‘गुणवत्ता पुरस्कार की मोहताज नहीं होती;पर जब तक संवाद नहीं होगा, उत्कृष्टता भी मौन रहेगी।‘

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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