अफ़सर अवकाश पर है
वो सरकारी कर्मचारी हैं… बोले तो सरकार के मेहमान।
मेहमान होते हैं न सरकार के दफ़्तर रूपी ससुराल में?
कहते हैं, रोज़-रोज़ ससुराल जाने से इज़्ज़त कम होती है।
बस, इसी वजह से इन्हें छुट्टी लेनी पड़ती है, बहाना बनाना पड़ता है।
सरकार बुलाती रहती है—”आओ-आओ पाँवणा ,पधारो म्हारे द्वार!”
आप इसे ससुराल नहीं, अपना घर ही समझें, बल्कि मैं तो कहूँ इसे आप ख़ाला का घर भी मान सकते हैं।
जो काम आप घर पर करते हैं—नींद लेने का—वो यहाँ भी कर सकते हैं।
अब इसमें बुराई क्या है?
देखो तो, सरकारी महकमों को बिल्कुल “सरकारी” सा लगे, इसके लिए ज़रूरी है कि वहाँ आम जनता के छक्के छुड़ाने के लिए सरकारी कर्मचारी छुट्टी पर रहें।
बस, एक चपरासी बाहर गेट पर बैठा दिया जाए, एक तोता रटंत वाक्य के साथ—”साहब अवकाश पर हैं।”
वैसे भी साहब होते हैं तो भी सिर्फ़ उनका शरीर ही वहाँ उपस्थित होता है—आत्मा तो तब भी छुट्टी पर ही रहती है।
मन कहीं दूर हवाई सैर करता, स्विट्ज़रलैंड की वादियों में भटकता रहता है।
आत्मा छुट्टियाँ स्वीकृत करने वाली फ़ाइलों में या टी.ए. और डी.ए. के बिल सेट करने में लगी रहती है।
सरकार का अपना ही रोना कि—”ख़जाना खाली है, तनख़्वाह कहाँ से बढ़ाएँ? नया वेतन आयोग लागू करेंगे, बस आप अगली बार भी हमारी सरकार बना देंगे तो… l “वो पिछली बार भी वादा किया था आपने… ?”
“जी किया था… चलो हम मान भी लें, नया वेतन आयोग बना भी दें ,पर क्या गारंटी है कि आप हमें वोट दे देंगे?” चलो कोई नहीं… इन महकमों की छुट्टियाँ ही बढ़ा देते हैं।”
वैसे भी महकमा तो बाहर बोर्ड टाँग देने से भी चल जाएगा—अफ़सर के होने या न होने से क्या फ़र्क पड़ता है?
सरकारी अधिकारी तनख़्वाह छुट्टियों की लेते हैं, काम की थोड़े!
काम करने के लिए ‘सुविधा शुल्क’ लेने की सुविधा दी रखी है।
इनकी ‘अर्जित अवकाश’, ‘चिकित्सा अवकाश’, ‘विशेष अवकाश’, ‘पितृत्व अवकाश’—कैलेंडर पर मार्क किए हुए रहते हैं।
अगर भारत की आज़ादी का दिन रविवार को आ जाए, तो इन्हें ऐसा लगता है जैसे देश फिर से ग़ुलाम हो गया हो।
छुट्टियों की चाह में इन्होंने हर वो बहाना आज़माया है जो संसार में उपलब्ध है।
हर वो बहाना गढ़ा है, जो भूतो-भविष्यति कहीं अस्तित्व में नहीं था।
दूर के, पास के, काल्पनिक-अकल्पनिक रिश्तेदारों को तो ये न जाने कितनी बार इस लोक से परलोक की यात्रा करा चुके हैं।
कहते हैं, इस लोक से परलोक का टिकट “वन-वे” होता है, इस धारणा को इन्होंने ग़लत कर दिखाया है।
एक-एक रिश्तेदार की चार-चार बार यात्रा करवाई है—टू ऐंड फ़्रो!
लेकिन छुट्टी सिर्फ़ उनके “डिपार्चर” की यात्रा की ही ली है, “अराइवल ” की कभी नहीं ली गयी।
रोस्टर प्रणाली से काम करते हैं… एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था कायम कर रखी है।
क्या नानी, क्या चाची, क्या दादी, क्या परदादा—दूर के हों या पास के, या फिर घर के—सभी रिश्तेदारों को बराबर का हक़ मिलना चाहिए इनके हाथों दिवंगत हो जाने का।
एक बार तो इन्होंने “मातृत्व अवकाश” लेने की कोशिश की, मगर अधिकारियों ने कुछ बुनियादी कारण बताए कि—”आपके पास गर्भाशय नहीं है,इसलिए यह संभव नहीं है l “
अगर इनका वश चलता तो कहीं से किराए पर एक गर्भाशय लाकर अपनी देह में प्रत्यारोपण भी करवा लेते।
बहाने की भी एक तहज़ीब होती है।
यह ऐसा साहित्य है जिसमें वाचिक और लिखित दोनों परम्पराएँ हैं।
सिर्फ़ लिख देने भर से ,काग़ज़ पर बहानों की कालिख पोत देने से और उस कालिख को बॉस की आँखों में झोंक देने से काम नहीं चलता।
आपको अपने लिखे हुए बहाना-साहित्य को उसी भाव-शैली में वाचन करना पड़ता है।
यहाँ मौलिकता काम आती है।
इनके बहानों की मौलिकता इतनी कॉपीराइटेड है कि दूसरा कोई इसे कॉपी करे तो पकड़ा जाए।
एक संपूर्ण अभिनय, भाव-भंगिमा जुड़ी होती है मित्र ।
चेहरे पर दुनिया भर का दर्द, आँखों में नमी और झुकी हुई कमर—ये सब गेट से ऑफ़िस से बाहर निकलने तक बरक़रार रखने पड़ते हैं।
बीच रास्ते में गर्दन जिराफ़ की तरह निकालकर झाँकते सभी सहकर्मियों के शक भरे संदेश भी झेलने पड़ते हैं।
हो सकता है, कुछ शोकसभा में शामिल होने का बहाना करके आपके साथ हो लें।
आपको ‘सर्वहिताय-सर्वसुखाय’ की भावना से उन्हें यह अवसर देना चाहिए।
ये महाशय नौकरी करते ही इसलिए हैं कि छुट्टी का प्रावधान है।
छुट्टी, नौकरी की बोरिंग यात्रा में एक खूबसूरत पड़ाव है, जहाँ चादर तानकर सुस्ताया जा सके।
और तो और, ये तो रिटायरमेंट के बाद भी नौकरी का विस्तार करवा लें—
बशर्ते इनका छुट्टी का अधिकार इनसे छीना न जाए।
हमारे इन अवकाश-प्रेमी महाशय का दफ़्तर में एक अलग ही जलवा है।
इनकी हाज़िरी रजिस्टर में नहीं, बल्कि इनके कैलेंडर पर दर्ज होती है।
जैसे किसी गृहिणी के ‘उन दिनों’ को कैलेंडर पर मार्क किया हुआ होता है, वैसे ही इनके ‘उन दिनों’ को भी—जब ये ऑफ़िस में पधारते हैं।
लेकिन इनके ‘उन दिनों’ का कोई निश्चित दिन नहीं है।
महीने की शुरुआत से ही इनका दिमाग़ ‘छुट्टी’ के गियर में चला जाता है।
किस दिन कौन-सी सरकारी छुट्टी पड़ने वाली है, उसके आगे-पीछे किस तरह ‘कैज़ुअल लीव’ या ‘अर्जित अवकाश’ को सेट करना है—इसकी योजना ये किसी युद्ध की रणनीति की तरह बनाते हैं।
ये मूर्तिकार हैं—छुट्टी की छैनी-हथौड़ी से नौकरी की मूर्ति को तराशते हैं।
काम ही इस दुखमय संसार का कारण है, छुट्टियाँ मुक्ति हैं, मोक्ष हैं…
जीते जी मोक्ष-प्राप्ति का साधन!
छुट्टी को आलिंगन करते हैं, उसे उत्सव की तरह मनाते हैं।
इस उत्सव से थककर जब काम पर लौटते हैं,
तो थकान मिटाने को एक दिन अतिरिक्त छुट्टी की गुहार लगाते मिल जाएँगे!
इनकी ‘अवकाश-प्रेम’ की कहानी दफ़्तर के गलियारों में लोककथा बन चुकी है।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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