वो घर… जहाँ मोहब्बत बिखर गई

Wasim Alam Aug 10, 2025 कहानी 1

गाँव का आधा-अधूरा घर, जहाँ कभी ढोलक की थाप और हँसी गूँजती थी, अब दो चूल्हों की दूरी में बँट चुका है। नशे, गरीबी और कटुता ने आँगन की मिट्टी से खुशबू खींच ली है। यह कहानी सिर्फ एक परिवार की नहीं, सैकड़ों बिखरे घरों की गवाही है।

रक्षा सूत्र का प्रण-कविता रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 9, 2025 Poems 1

रक्षा सूत्र का संकल्प सिर्फ परंपरा नहीं, यह भय के अंधेरों में जलती प्रतिज्ञा की मशाल है। नाज़ुक धागे में बंधा विश्वास, समाज की दरारों में फैली दरिंदगियों को राख कर, नए जीवन की नींव रखता है। यह वादा है — ढाल बनने का, साथ खड़े रहने का।

लोकतंत्र का रक्षा बंधन पर्व-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 9, 2025 व्यंग रचनाएं 0

रक्षा बंधन पर्व का नया संस्करण—भ्रष्टाचार और रिश्वत का भाई-बहन का पवित्र रिश्ता। सत्ता और विपक्ष दोनों पंडाल में, ₹2000 की नोटों की साड़ी पहने रिश्वत के हाथों राखी बंधवाते। नकदी से भरे लिफ़ाफ़े, मुस्कुराते नेता, और बाहर झाँकती जनता। लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर भाई-भतीजावाद, दलाली और लूट का यह महापर्व हर साल मनाने का संकल्प!

बजट और बसंत : एक राग, कई रंग

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 6, 2025 व्यंग रचनाएं 1

बजट और बसंत का यह राग अब प्रकृति से नहीं, सत्ता की चौंखट से संचालित होता है। सत्ता पक्ष ढोल-ताशे के साथ लोकतंत्र के मंडप में राग बजट-भरतार गा रहा है, जबकि आम आदमी खाली थाली में चटनी की एक बूंद देखकर संतोष कर रहा है। गरीब अपने मरसिये में बजट को मज़ाक बता रहा है — एक सड़ा हुआ राग, जिसे हर साल दोहराया जाता है।

मुझको मेरा मायका दे दो-कविता रचना

Vidya Dubey Aug 5, 2025 हिंदी कविता 2

यह कविता मायके की गहरी भावनात्मक यादों को समेटे हुए है। इसमें एक बेटी का अपने बचपन के आंगन, गली-चौबारे, पुराने नाम, प्यार-दुलार और पुरानी धुनों को वापस पाने की ललक उभरती है। कवयित्री को सोना-चांदी या हीरे-मोती की चाह नहीं, बस अपने मायके की मिट्टी की गंध, उस छोटे किनारे की गर्माहट और अपनों का सहारा चाहिए। यह कविता नारी की संवेदनशील भावनाओं का चित्रण है, जो विवाह के बाद अपने मायके की अनमोल स्मृतियों को दिल में संजोए रहती है। यह ममता, अपनापन और अतीत की सजीव झलक पेश करती है।

रियाज़ की निरंतरता और सृजन का आत्म-संघर्ष

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 5, 2025 हिंदी लेख 3

"लेखन जब रियाज़ बन जाए, तो समाज उसे शौक समझने लगता है और गुटबाज़ी उसे अयोग्यता का तमगा पहनाने लगती है। एक डॉक्टर होकर सतत सृजन करना बहुतों को पचता नहीं। आत्म-संतुष्टि और गुट की तालियों के बीच जूझता लेखक जब बिना पढ़े प्रशंसा सुनता है, तो रचना की पीड़ा और भी गहरी हो जाती है। यही आत्म-संघर्ष है — एक लेखक की रचना प्रक्रिया का सच्चा यथार्थ, जहाँ वह लगातार खुद से लड़ता है, फिर भी लिखता है, क्योंकि यह उसका रियाज़ है… उसका आत्मसुख।"

दोस्त बदल गए हैं यार-कविता रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 4, 2025 Poems 2

समय की धारा में बहते हुए रिश्तों का यह मार्मिक चित्रण है — जहाँ कभी हँसी-ठिठोली, सपनों की साझेदारी और चाय की चौपाल थी, वहाँ अब दिखावटी पोस्ट और व्यस्तताएँ हैं। 'दोस्त बदल गए हैं यार' न केवल एक वाक्य है, बल्कि एक पीढ़ी की सामूहिक टीस है, जो अपनी जड़ों की तलाश में आज भी पलटकर देखती है।

सच्ची दोस्ती की कड़ियाँ — एक अद्भुत बंधन की बुनावट

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 3, 2025 Important days 2

जीवन की उलझनों के बीच, यह कहानी एक ऐसे मित्र की है, जिसकी उपस्थिति पुराने स्कूल दिनों की मासूमियत और बेलगाम हँसी की याद दिलाती है। ये दोस्ती समय और दूरी से परे, एक ऐसा रिश्ता है जो सामाजिक मुखौटों को हटाकर आत्मीयता की गहराइयों में उतरता है। चाहे टमाटर चुराना हो या किराए के कमरे में फिल्में देखना, हर स्मृति इस बंधन को अमूल्य बनाती है। यह मित्र न सिर्फ सहारा है बल्कि आत्मीयता का प्रतीक भी है — एक ऐसा रत्न जो दुनिया की हर दौलत से अनमोल है।

हारे हुए प्रत्याशी की हाल-ए-सूरत-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 3, 2025 व्यंग रचनाएं 0

चुनाव हारने के बाद नेताजी के चेहरे की मुस्कान स्थायी उदासी में बदल गई। कार्यकर्ता सांत्वनाकार बन चुके हैं, बासी बर्फी पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, और भैंस का उदाहरण देते हुए आलाकमान ने नेताजी को समझाया — “राजनीति भी दुधारु भैंस है, एक दिन बाखरी होनी ही पड़ती है।”

रेवड़ी की सिसकियां-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Aug 2, 2025 व्यंग रचनाएं 0

"रेवड़ी की सिसकियां" एक व्यंग्यात्मक संवाद है उस 'जनकल्याणकारी नीति' की आत्मा से, जिसे अब राजनैतिक मुफ्तखोरी की देवी बना दिया गया है। लेख में रेवड़ी देवी स्वयं अपने नाम पर हो रहे राजनैतिक तमाशे से व्यथित हैं — उन्हें ग़रीबों की सहायक बनने के बजाय वोट हथियाने का औज़ार बना दिया गया है। मुफ्त योजनाओं की बाढ़ में मेहनत, करदाता और योग्यता हाशिए पर चले गए हैं। लेख एक गहन कटाक्ष है उस लोकतांत्रिक दिशा पर, जहां वादों की फेहरिस्त में 'काम' नहीं, 'फ्री' है।