डॉ मुकेश 'असीमित'
Aug 2, 2025
शोध लेख
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"राग दरबारी कोई उपन्यास नहीं, भारतीय लोकतंत्र की एक्स-रे प्लेट है। श्रीलाल शुक्ल की यह कृति व्यवस्था के सड़ांधभरे तंत्र पर तीखा व्यंग्य करती है। शिवपालगंज की गलियों से लेकर विश्वविद्यालयों, संस्थानों, और मीडिया तक—हर जगह इस रचना के पात्र जीवित प्रतीत होते हैं। खन्ना मास्टर, वैद्यजी, रामाधीन — ये नाम नहीं, व्यवस्था के प्रतीक हैं। रचना की वन लाइनर्स आज भी उतनी ही प्रासंगिक और तीखी हैं, जितनी 60 वर्ष पूर्व थीं। ‘राग दरबारी’ हर पीढ़ी के लिए नया पाठ है—हँसाने के बहाने सोचने पर मजबूर करता हुआ।"
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 31, 2025
People
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मुंशी प्रेमचंद की ऐतिहासिक कुर्सी अब एक प्रतीक है—सच्चे लेखन, मूल्यों और विचारों की अडिगता का। पर आज का लेखक इस कुर्सी की स्थिरता नहीं, उसकी रिवॉल्विंग खोजता है—जो सत्ता, समीक्षकों और विमोचन मंडलियों की दिशा में घूम सके। प्रेमचंद की फटी चप्पलें तो स्वीकार हैं, पर उनकी कुर्सी का सीधा-सरल डिज़ाइन नहीं। आज की कुर्सियाँ चिपकने वाली हैं, घूमने वाली हैं, कई पहियों वाली हैं। लेखक का संघर्ष अब सृजन का नहीं, कुर्सी को हथियाने और बचाने का हो गया है। प्रेमचंद की कुर्सी आज भी अडिग है—क्योंकि उसमें गोंद नहीं था, केवल आत्मा थी।
Pradeep Audichya
Jul 31, 2025
व्यंग रचनाएं
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नेता जी ने बचपन में ही तय कर लिया था कि वह सिर्फ नेता बनेंगे। अब जनसेवा के नाम पर वह चाय की दुकानों पर घूमते हैं, उधारी बढ़ाते हैं और हर बात में कहते हैं – "मेरी बात ऊपर हो गई है।" कार्यकर्ता जेल में हो या शहर अधर में – समाधान ऊपर तय होता है।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 30, 2025
व्यंग रचनाएं
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संस्था अब कोई विचारशील मंच नहीं, एक शर्मीली दुल्हन बन चुकी है, जिसका स्वयंवर हर दो साल बाद होता है। यहां वरमाला योग्यताओं पर नहीं, जुगाड़ और सिफारिशों पर डाली जाती है। मंच सजे हैं, दूल्हे कतार में हैं—किसी के पास डिग्री, तो किसी के पास 'ऊपर' तक पहुंच। पढ़िए, जब संस्था के मंडप में लोकतंत्र लपका बनने निकल पड़ा!
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 29, 2025
व्यंग रचनाएं
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यह रचना नाग पंचमी के बहाने लोकतांत्रिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। इसमें नाग रूपी नेताओं की तुलना असली साँपों से करते हुए बताया गया है कि किस तरह जनता अपने वोट, टैक्स और परंपरा से इन नागों को दूध पिलाने का काम करती है, जो बाद में उसे ही डसते हैं। यह व्यंग्य परंपरा, राजनीति और नकली महानताओं का आइना है।
Dr Shailesh Shukla
Jul 29, 2025
समसामयिकी
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डिजिटल इंडिया के दस वर्षों बाद, आज़ादी और समानता का वादा अधूरा प्रतीत होता है। ग्रामीण भारत अब भी डिजिटल संसाधनों की कमी, तकनीकी अक्षमता और भाषा बाधाओं से जूझ रहा है। सरकारी ऐप्स और योजनाएं केवल कागज़ों में प्रभावी हैं, ज़मीनी स्तर पर आमजन तकनीकी अंधेरे में हैं। क्या यह समावेशी सशक्तिकरण है या डिजिटल बहिष्करण?
Vidya Dubey
Jul 28, 2025
भजन -रचनाएँ
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यह कविता एक भक्त की भोलेनाथ से की गई विनम्र प्रार्थना है। जब संसार ठुकरा देता है, तब शिव ही सहारा बनते हैं। हर श्लोक में समर्पण, भक्ति और विश्वास की गूंज है—सच्चे ईश्वर से जुड़ने की एक सरल पर सशक्त पुकार।
Sanjaya Jain
Jul 27, 2025
Hindi poems
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इस कविता में एक रात का भावचित्र है — जहाँ चाँद नहीं निकला, फिर भी कोई और "चाँद सा" मौजूद है जो सबका ध्यान खींच रहा है। उसकी अदाएँ, शर्मीलापन, सौंदर्य और भावनाओं की सजीवता से पूरी महफिल रोशन है। वह निराशा के अंधेरे में भी एक दीपक सा जगमगा रहा है — शान-ए-महफिल बनकर।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 27, 2025
व्यंग रचनाएं
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सरकारी स्कूल की ये कहानी सिर्फ दीवारों के गिरने की नहीं, एक पूरी पीढ़ी के सपनों की टूट-फूट की दास्तान है। मिट्टी भरे मैदानों, पाटोरनुमा छतों और सामुदायिक भवनों में पढ़ते बच्चों की यादें आज भी ज़िंदा हैं। ये व्यंग्य नहीं, शिक्षा व्यवस्था पर एक करुण लेकिन तीखा कटाक्ष है — जहाँ स्कूल बारातगृह बनते हैं और छुट्टी पंचमेल की थाली से तय होती है।
Poonam Chaturvedi
Jul 26, 2025
Important days
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"अगर आप चाहें, तो इतिहास रच सकते हैं; लेकिन अगर आप चाहें कि पीढ़ियाँ उसे याद रखें, तो उसे अपने लहू से लिखना होगा।"
कारगिल केवल युद्ध नहीं, चेतना का पुनर्जागरण था।
कारगिल विजय दिवस — स्मरण से आगे, राष्ट्रधर्म का अभ्यास।