पंडित दीनदयाल उपाध्याय : साहित्य और एकात्म मानववाद
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का साहित्यिक योगदान बहुआयामी और गहन था। वे केवल राजनेता या संगठनकर्ता नहीं, बल्कि लेखक, संपादक और पत्रकारिता के नए मानक गढ़ने वाले चिंतक भी थे। उनकी लेखनी में भारतीय दर्शन की धारा और भाषा-संयम की स्पष्ट झलक मिलती है। सत्य को सौम्यता के साथ प्रस्तुत करना उनका विशेष गुण था। स्वतंत्रता-उपरांत भारत में उन्होंने पत्रकारिता को मूल्याधारित और चरित्र-निर्माणकारी दिशा दी। लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रधर्म मासिक, पाञ्चजन्य साप्ताहिक और स्वदेश दैनिक उनके संपादन और विचार से समृद्ध हुए। इन मंचों पर उन्होंने राष्ट्र, संस्कृति, समाजनीति और अर्थनीति पर गहन विमर्श की परंपरा स्थापित की।
उनकी साहित्यिक रचनाओं में इतिहास और जीवनी पर आधारित ग्रंथ भी महत्वपूर्ण हैं। सम्राट चंद्रगुप्त (1946) और जगद्गुरु शंकराचार्य (1947) जैसे कृतियों ने भारतीय गौरवशाली परंपरा को लोकप्रिय बनाया। इनके अलावा अखंड भारत क्यों? (1952) जैसी पुस्तिका में उन्होंने राजनीतिक और सांस्कृतिक एकात्मता की संकल्पना रखी। अर्थनीति पर उनकी रचनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भारतीय अर्थनीति: विकास की दिशा (1958), The Two Plans (1958) और Devaluation: A Great Fall (1966) योजनाओं की आलोचनात्मक समीक्षा प्रस्तुत करती हैं। उनकी Political Diary (1968) समसामयिक राजनीतिक दृष्टिकोण का संकलन है। इन रचनाओं ने उन्हें केवल राजनीतिक विचारक ही नहीं, बल्कि गंभीर अर्थशास्त्री और चिंतक के रूप में भी स्थापित किया।
उनका सबसे स्थायी वैचारिक हस्ताक्षर है “एकात्म मानववाद”। 1965 में प्रस्तुत इस दर्शन में उन्होंने पश्चिम के पूँजीवाद और साम्यवाद के बीच एक भारतीय विकल्प दिया। इसमें व्यक्ति को केवल शरीर नहीं, बल्कि मन, बुद्धि और आत्मा से परिपूर्ण “समग्र मानव” माना गया। उनके अनुसार व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और अंततः मानवता का क्रम परस्पर पूरक है। इस समग्रता ने उनकी लेखनी को विशिष्ट दिशा दी। उन्होंने बार-बार कहा कि विकास का लक्ष्य केवल आँकड़े नहीं, बल्कि अंतिम व्यक्ति का उत्थान—अंत्योदय—होना चाहिए। यही उनकी सोच को आज भी प्रासंगिक बनाता है।
पत्रकारिता में भी उनका योगदान असाधारण था। राष्ट्रधर्म निकालते समय उन्होंने स्पष्ट कहा कि पत्रकारिता उत्तेजना या आरोपों का मंच नहीं, बल्कि विवेक और लोकशिक्षा का माध्यम हो। यही कारण है कि उनकी शैली संयमित, पर तीखी आलोचना वाली थी। वे विरोधी नीतियों पर भी गरिमा के साथ प्रहार करते थे और यह उनका विशिष्ट लेखकीय संस्कार बन गया। पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श को राजनीति से आगे बढ़ाया और जनता से संवाद का एक नया आयाम रचा।
उनकी कृतियों का शिल्प भी आकर्षक रहा। इतिहास-आधारित ग्रंथों में कथा-रस और वैचारिक धारा समानांतर चलती है। अर्थनीति पर लिखते समय उनकी भाषा सरल किंतु विश्लेषणात्मक रही। आँकड़ों और तथ्यों के सहारे उन्होंने सार्वजनिक नीति की दिशा स्पष्ट की। इसीलिए योजना आयोग के विद्वानों ने भी उनकी आलोचना को गंभीर और उपयोगी माना।
दीनदयाल जी का साहित्य “विचार-ग्रंथ” के साथ-साथ “विचार-संवाद” भी है। संपादकीय, स्तंभ और पुस्तिकाओं के माध्यम से उन्होंने सार्वजनिक जीवन की भाषा को गढ़ा। उनका आग्रह रहा कि पत्रकारिता केवल राजनीति पर केंद्रित न रहे, बल्कि समाज, शिक्षा, संस्कृति और साहित्य सभी को समाहित करे। यही उनकी पत्रकारिता को आज और भी प्रासंगिक बनाता है।
यद्यपि उनका राजनीतिक जीवन अल्पकालिक रहा—1967 में जनसंघ के अध्यक्ष बनने के कुछ ही सप्ताह बाद 1968 में उनका निधन हो गया—लेकिन इस संक्षिप्त समय में भी उन्होंने लेखन, पत्रकारिता और विचार के तीनों स्तंभों को मज़बूत कर दिया। यही कारण है कि आज भी विश्वविद्यालयों और संस्थानों में उनकी कृतियों पर शोध होते हैं, और उनकी Complete Works का संकलन उपलब्ध है।
समग्रता में देखें तो दीनदयाल उपाध्याय का साहित्यिक योगदान तीन स्तरों पर समझा जा सकता है—एक, एकात्म मानववाद जैसे वैचारिक स्थापत्य, जिसने भारतीय दार्शनिक परंपरा को आधुनिक राजनीति और अर्थनीति से जोड़ा; दूसरा, पत्रकारिता और संपादन, जिसने मूल्याधारित सार्वजनिक विमर्श की परंपरा गढ़ी; और तीसरा, रचनात्मक कृतियाँ, जिन्होंने इतिहास, अर्थनीति और समाजनीति पर ठोस विचार दिए। यही कारण है कि उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक है और हमें सिखाता है कि असहमति में भी मर्यादा हो, आलोचना में भी रचनात्मकता और विकास की बहस में भी मानवीय गरिमा।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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