राजा भर्तृहरि : श्रृंगार से वैराग्य तक की जीवनयात्रा
राजा भर्तृहरि, जिन्हें उज्जैन के पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य का अग्रज माना जाता है, भारतीय इतिहास और साहित्य में अद्वितीय स्थान रखते हैं। उन्होंने राजपाट का मोह छोड़कर नाथ संप्रदाय के महान संत बाबा गोरखनाथ से दीक्षा ली और अलवर के पास स्थित तपोभूमि में गहन तपस्या की। आज भी वहाँ भव्य “लखी मेला” भरता है, जहाँ उनकी स्मृति में श्रद्धा और आस्था उमड़ती है।
भर्तृहरि की जीवन-यात्रा श्रृंगार से नीति और अंततः वैराग्य की ओर एक विलक्षण कथा है। यह कथा राजा शंतनु और शकुंतला की प्रेमकथा से किसी भी तरह कम रोचक नहीं लगती। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य भोग से त्याग, और आसक्ति से वैराग्य की ओर कैसे अग्रसर हो सकता है।
भर्तृहरि के द्वारा रचित तीन शतक—
श्रृंगार शतक
नीति शतक
वैराग्य शतक
भारतीय साहित्य की अनुपम निधि माने जाते हैं। ये ग्रंथ इंटरनेट पर निःशुल्क उपलब्ध हैं और इनका अध्ययन हमें मानव जीवन की विविध परतों से परिचित कराता है।
उनकी रचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि श्रृंगार की कोमल भावनाओं से होते हुए वे नीति की दृढ़ भूमि पर पहुँचे और अंततः वैराग्य की गहन गुफा में प्रवेश कर गए।
उदाहरणस्वरूप उनके शतकों से दो श्लोक प्रस्तुत हैं, जो इस यात्रा को सजीव कर देते हैं—
श्रृंगार शतक से:
मुखं चन्द्रं वन्दे… करकमलमिन्दीवरवनं
(प्रियतम का मुख चन्द्र समान है और उसके करकमल नीलकमल के समूह जैसे मनोहर हैं।)
वैराग्य शतक से:
यावत्स्वस्थमिदं शरीरं सुखिनः सर्वे प्रजाः सन्तु।
(जब तक शरीर स्वस्थ है, तब तक ही इस जीवन में सुख और वैभव संभव है; परंतु नश्वरता को पहचानकर मनुष्य को वैराग्य की ओर अग्रसर होना चाहिए।)
राजा भर्तृहरि की यह जीवन-गाथा हमें बताती है कि मनुष्य चाहे राजसत्ता में डूबा हो, किंतु अंततः आत्मज्ञान और वैराग्य की राह ही उसे स्थायी शांति और अमरत्व की ओर ले जाती है।
भर्तृहरि – श्रृंगार से वैराग्य तक
भर्तृहरि के नीतिशतक के आरम्भिक श्लोक से उनकी प्रेम आसक्ति से जो विरक्त भाव हुआ उसका सूत्र मिलता है –
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साप्यन्यम् इच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिद् अन्या
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥
( अर्थ – मैं जिसका सतत चिन्तन करता हूँ वह (पिंगला) मेरे प्रति उदासीन है। वह (पिंगला) भी जिसको चाहती है वह (अश्वपाल) तो कोई दूसरी ही स्त्री (राजनर्तकी) में आसक्त है। वह (राजनर्तकी) मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस (पिंगला) को धिक्कार है ! उस अश्वपाल को धिक्कार है ! उस (राजनर्तकी) को धिक्कार है ! उस कामदेव को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है !)
एक दूसरा श्लोक देखिये –
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः
त्रिष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
“मैंने भोग नहीं किए—भोगों ने मुझे भोग लिया।
तपस्या नहीं की—तप ने मुझे तपाया।
समय नहीं बीता—मैं ही बीत गया।
वासना नहीं जीर्ण हुई—मैं ही जीर्ण हो गया!”
इतिहास कभी-कभी केवल तारीखों में नहीं,
मानव-हृदय की गहराइयों में भी लिखा जाता है।
राजा भर्तृहरि—
नाम सुनते ही श्रृंगार, नीति और वैराग्य—तीनों की प्रतिध्वनि सुनाई देती है।
वह राजा, जिसने सत्ता पाई,
प्रेम में डूबा,
नीति पर गर्व किया,
पर अंततः सब खोकर वैराग्य में डूब गया।

भारतीय साहित्य और लोककथाओं की परंपरा में राजा भर्तृहरि का नाम विशेष आदर से लिया जाता है। उज्जयिनी (आज का उज्जैन) के सिंहासन पर आसीन यह राजा जितना शक्तिशाली और भव्य था, उतना ही प्रेम के मायाजाल में बंधा हुआ भी। उनकी जीवनकथा के अनेक संस्करण लोकमानस में प्रचलित हैं, किंतु सबसे अधिक प्रसिद्ध कथा उनकी रानी पिंगला से जुड़ी है।
कहते हैं, एक दिन किसी साधु ने भर्तृहरि को एक अमूल्य फल प्रदान किया—अमरफल, जिसे खाने वाला मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता। प्रेम से अभिभूत भर्तृहरि ने वह फल स्वयं रखने के बजाय अपनी प्रिय रानी पिंगला को अर्पित कर दिया। रानी ने वह फल अपने पति को लौटाने के बजाय अपने गुप्त प्रिय को दे दिया। यह प्रिय कोई राजदरबारी न होकर अस्तबल का घोड़े सँभालने वाला सेवक था।
जब यह रहस्य भर्तृहरि को ज्ञात हुआ, तो उनके भीतर की दुनिया हिल गई। जिस प्रेम को वे अपना सर्वस्व मानते थे, वही विश्वासघात की जड़ बन गया। भर्तृहरि का मन मोहभंग से भर उठा। राजसी वैभव, रानी का स्नेह और सत्ता का गर्व सब उन्हें असार प्रतीत होने लगा। अंततः उन्होंने राज्य, महल और राजपाट सब त्याग दिया और वैराग्य की राह पकड़ संन्यासी बन गए। यही प्रसंग आगे चलकर भारतीय साहित्य में वैराग्य और जीवन-दर्शन का प्रतीक बन गया।
2. भर्तृहरि और उनके शतक
भर्तृहरि केवल राजा ही नहीं, बल्कि कवि और दार्शनिक भी माने जाते हैं। परंपरा उन्हें तीन महान काव्य-रचनाओं का जनक मानती है, जिन्हें सामूहिक रूप से भर्तृहरि शतकत्रयी कहा जाता है—
- श्रृंगार शतक – इसमें प्रेम, रति और नारी-सौंदर्य के सौ रूप उभरते हैं। यह शतक भर्तृहरि के यौवनकालीन अनुभवों का आईना है, जहाँ भावनाएँ प्रवाहमान और मोह अदम्य है।
- नीति शतक – इसमें जीवन, समाज और आचरण के व्यावहारिक नियम सामने आते हैं। यह किसी अनुभवी शासक की वाणी है, जो भोग और प्रेम के पार जीवन की संतुलित राह खोजता है।
- वैराग्य शतक – यह सबसे मार्मिक कृति है, जिसमें मोहभंग और त्याग का स्वर गूंजता है। इसमें बार-बार यह भाव आता है कि भोगों को मनुष्य भोगता नहीं, बल्कि भोग ही मनुष्य को भोग डालते हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि पिंगला प्रसंग से उत्पन्न मानसिक आघात और गहरा मोहभंग ही वैराग्य शतक का प्रेरणास्रोत बना। साहित्य में यह यात्रा साफ दिखती है—श्रृंगार से वैराग्य तक का संक्रमण, जिसमें नीति शतक सेतु का काम करता है।
3. अलवर से संबंध
यद्यपि भर्तृहरि उज्जैन के राजा माने जाते हैं, किंतु उनके वैराग्य और तपस्या का गहरा संबंध राजस्थान से भी जुड़ा है। अलवर ज़िले से लगभग 30–35 किलोमीटर दूर, सरिस्का टाइगर रिज़र्व के समीप आज भी “भर्तृहरि की गुफाएँ” और “भर्तृहरि मठ” स्थित हैं।
मान्यता है कि राजपाट त्यागने के बाद भर्तृहरि ने यहीं तपस्या की थी। यह स्थल आज भी भर्तृहरि बाबा की तपोभूमि के नाम से विख्यात है। हर वर्ष यहाँ विशाल भर्तृहरि मेला लगता है, जिसमें देशभर से साधु-संत, ग्रामीण और श्रद्धालु आते हैं। इस मेले में लोकगीत, भजन और भर्तृहरि से जुड़े आख्यान गूंजते हैं।
उज्जैन जहाँ उनके राजसी जीवन का प्रतीक है, वहीं अलवर उनकी तपस्या और वैराग्य का प्रतीक बन गया।
जीवन-पथ-त्रयी (भर्तृहरि के शतक के आधार पर) संपूर्ण दर्शन
- श्रृंगार → भोग में आसक्ति
- नीति → जीवन को संतुलित करने वाली समझ
- वैराग्य → मोहभंग और मोक्ष की ओर मुक्ति
1. श्रृंगार – भोग और रति का आकर्षण
श्लोक (श्रृंगार शतक)
मुखं चन्द्रं वन्दे करकमलमिन्दीवरवनं
कुचौ शंभोर्दम्भौ हरिहरविभागौ मरकतम्।
भावार्थ
स्त्री का मुख चन्द्रमा जैसा, हाथ कमल जैसे और स्तन पर्वत-शिखरों जैसे। भर्तृहरि का मन सौंदर्य और रति की गहन अनुभूति में डूबा है।
👉 यह जीवन की आरंभिक अवस्था है—जब मनुष्य भोग और आकर्षण में बंधा होता है।
2. नीति – जीवन का संतुलन और समाज की समझ
श्लोक (नीति शतक)
विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्॥
भावार्थ
विद्या से विनम्रता आती है, विनम्रता से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख।
👉 यह मध्यावस्था है—जब मनुष्य भोग से कुछ तृप्त होकर नीति, समाज और कर्तव्य के प्रति जागरूक होता है।
3. वैराग्य – अंतिम सत्य और मोक्ष की ओर यात्रा
श्लोक (वैराग्य शतक)
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः
त्रिष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
भावार्थ
हमने भोग नहीं किए, भोगों ने हमें भोग लिया। समय नहीं बीता, हम ही बीत गए। वासना वृद्ध नहीं हुई, हम ही वृद्ध हो गए।
👉 यह अंतिम अवस्था है—जब मनुष्य भोग और नीति दोनों से ऊपर उठकर वैराग्य और आत्मज्ञान की ओर मुड़ता है।
इस प्रकार भर्तृहरि के तीनों शतक मिलकर मनुष्य के जीवन-पथ का त्रिवेणी संगम प्रस्तुत करते हैं।
भर्तृहरि का संदेश सीधा और शाश्वत है—
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः॥
अर्थात् भोगों में डूबकर मनुष्य सुखी नहीं होता, बल्कि भोग ही उसे भोग डालते हैं। समय बीतता नहीं, हम ही बीत जाते हैं।
यही भर्तृहरि की जीवन-यात्रा का सार है—श्रृंगार से नीति और अंततः वैराग्य की ओर।

डॉ. मुकेश असीमित
✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक