आराम करो –आराम में ही राम बसा है
कहते हैं ज़िंदगी भागम-भाग का नाम है…l पर मैंने इस गणितीय समीकरण का सरलीकरण किया है l इसमें भागम में भाग का भाग दिया है तो जो उत्तर आया वो आराम आया !
और फिर, जब खाट पर लेटकर(इसे ‘खटवाटी पकड़ना’ भी कह सकते हैं आप).. दुनिया की फिक्र कम्बल में लपेटी जा सकती है, तो क्यों न इसे ही अपना जीवन-दर्शन बना लिया जाए?
मैं आरामपसंद हूँ… अगर आराम करना भी ‘कर्ता का कर्म’ माना जाए, तो मैं निश्चय ही कर्मशील हूँ। कहते हैं, आपका किया हुआ ही आगे आता है… और जैसा किसी ने सही कहा है, मेरा आगे निकला हुआ पेट इसकी गवाही देता है।
मेरे आराम को हराम का काम समझकर बब्बन चाचा जब भी मुझे इस अवांछित गतिविधि में संलिप्त पाते हैं, तो मुझ पर पिल पड़ते हैं—“ये क्या कर रहे हैं आप? कुछ काम करो… आपकी पीढ़ी अगर इस तरह आराम-फ़रामोश हो जाएगी तो देश अगली सदी में कैसे जाएगा? संक्रांति-काल है, कुछ जगत-कल्याण करो, नाम कमाओ।”
मैं नम्रता का चम्मच भर मुस्कान उड़ेलकर कह देता हूँ—
“चाचा, नाम-धाम में क्या रखा है? इस नाम के चक्कर में जो काम हो रहे हैं, असली जड़ दंगे-फसाद की वही है… अगर सब आराम करने लग जाएँ, तो यह पृथ्वी बहुत ख़ूबसूरत हो जाएगी। याद है कोरोना-काल? जब आराम ने सब जगह पाँव पसार रखे थे—दुनिया कितनी सुंदर हो गई थी!”
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं—
एक, जो जीने के लिए काम करते हैं;
दूसरे, जो काम से बचने के लिए जीते हैं।
मैं गर्व से दूसरे वर्ग में आता हूँ। रोज़-रोज़ के उनके तानों से तंग आकर, एक दिन मैंने बब्बन चाचा के सामने ‘आराम-दर्शन’ का धर्मग्रंथ खोल दिया—
“काम सब दुखों की जड़ है। निष्काम भाव को ही मान्यता मिलनी चाहिए। काम में कामना है, काम चोरी है, कमाई है… पर आराम में राम है। कर्मयोगी भी राम की प्राप्ति के लिए कर्म करता है, पर आराम में तो राम पहले से ही विराजमान हैं। यही ऋषि-मुनियों की थकान भरी आवाज़ में छिपा उपदेश है।घाट में राम विराजे..तो क्यों खोजे काबा और काशी…” दरअसल वो ‘आराम ‘ की तरफ ही इशारा कर रहे थे l
भाग-दौड़ से कभी किसी का कल्याण नहीं हुआ—दुर्घटनाएँ, हादसे सब भगने-भागने में ही होते हैं। पंचतंत्र की कहानियाँ भी यही सिखाती हैं—दौड़ते तो खरगोश भी हैं, मगर कहानी में जीत कछुए की होती है, क्योंकि कछुआ आराम से चलता है।
काम भी करना है, तो आराम से करो। या फिर ऐसा समीकरण बनाओ कि काम भी हो जाए और तुम्हारा आराम भी अखंड बना रहे। जैसे हम आराम से बैठकर बातें कर सकते हैं—हमारे यहाँ ऐसा कोई फर्नीचर ईजाद नहीं हुआ जो बैठने में आराम न दे। इसलिए खाट का आविष्कार हुआ, कुर्सी का नहीं। बातें भी आराम से होनी चाहिए—और देश भी बातों से ही चलता है… ‘मन की बात’ से चल ही रहा है।
आप मुझे ‘निपट मूर्ख’ कह सकते हैं—कहने दीजिए। वो वही हैं जिनके नसीब में आराम लिखा नहीं। मूर्ख कहलाने का सुख भी कोई कम नहीं—मूर्ख से बहस में हारना सम्मानजनक है, विद्वान से जीतना खतरनाक। सच कहूँ तो, मैं अक़्लमंदों से दूरी बनाए रखता हूँ—जितना अक़्ल वाला आदमी, उतना ही उसके पास आपको काम थमाने का बहाना।
सादा जीवन, उच्च विचार की पहली सीढ़ी—आराम। चंचल मन की लगाम—आराम।
आराम कहीं भी किया जा सकता है—नेता जी बचने के लिए बाथरूम में आराम करते हैं। कर्ज़दार से बचने के लिए आप खाट पकड़ सकते हैं—चाहे खाट पर आराम फरमा रहे हों, लेकिन बाहर अपने ब्बेते बेटियों से कहलवा सकते हैं “ बाबू ने खाटिया पकड़ ली, “ तो कर्ज़ वसूलने वाला भी आपकी सलामती की दुआ माँगेगा।
खाट ‘आरामयोग’ के लिए उत्तम आसन है—लेटते ही शरीर ऐसे सुस्त हो जाता है, जैसे चुनाव जीतने के बाद नेता का ज़मीर। ‘सुख की नींद’ वाला तकिया और “दुनिया जाए भाड़ में” वाला कम्बल मिल जाए, तो मुँह ढककर सो जाइए।
इसीलिए मैं सबको यही उपदेश देता हूँ—
मेरी मानो—खाट बिछाओ, पैर फैलाओ, और इस कलयुग के असली मोक्ष ‘आराम’ का आनंद लो।
आख़िरकार, भागता हुआ आदमी मंजिल की जुस्तजू में सफ़र का मजा नहीं ले पाता, वो देख ही नहीं पता की दस शॉर्टकट उसके राह में खड़े इंतज़ार कर रहे हैं उसका आलिंगन करने के लिएl आराम पसंद आदमी शोर्ट कट का अविष्कारक होता है, सबका ख्याल रखता है, और सबकी मदद लेकर उस आदमी से पहले पहुँच पाता है जो भगाते भागते अपनी लंगोटी खुलवा बैठा है ।
रचनाकार-डॉ मुकेश असीमित

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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