पेंशनर छेदी लाल सरकारी अस्पताल से बाहर निकलता हुआ वर्तमान राज्य सरकार को गालियां देता हुआ जा रहा था कि मेरी नज़र पड़ी।
तसल्ली से बिठा हालचाल पूछा तो जैसे फट पड़ा हो।
बोला- साहब, जवानी के दिनों में हर सर्दियों में मां हमेशा संधाणा बनाती थी। मां के हाथों के उन मेथी ,उड़द- सौंठ के लड्डुओं का स्वाद ही कुछ और था। उसका साल भर बड़ा आधार रहता था। मां के जाने के बाद पत्नी ने भी काफी कुछ परंपरा को बनाए रखा। अब ये नई पीढ़ी की बहुएं तो कुछ जानती नहीं। इन्होंने न तो खाया है न खिलाना जानती है।
फिर कुछ रुककर बोला – पिछली सरकार ने हम सब सीनियर सिटीजन की प्रोब्लम को समझ आरजीएचएस योजना के तहत् वेद्य डाक्टर को संधाणें के नाम केसर युक्त च्वयनप्राश लिखने की छूट दे दी थी। वो समझते थे कि ये पेंशन वाले वृद्ध जन बेचारे कितने जीयेंगे। चार दिन ठीक सा खा लेंगे तो इनका बुढ़ापा सुधर जायेगा।
यह कहते कहते छेदी लाल का सांस भर गयी और खांसी भी चल गयी। बड़ी मुश्किल से कंट्रोल हुईं।
छेदी लाल – देशी भावना वाली सरकार को बड़ी मुराद के साथ लाये थे, बुढ़ापे का सहारा बनेगी पर इसने तो आयुर्वेद की पचासों दवायें- टानिक सूची में से काट लिये। क्या देसी वाले कमीशन नहीं देते नहीं जो लिस्ट छोटी होती गयी। एलोपैथिक वाली सूची बड़ी हो गयी।
इससे तो वो पुरानी वाली सरकार ठीक ही थी। तुम च्वयनप्राश खाओ और हमें नोट-वोट खिलाओं। अबकी मौका आने दो, साहब धूल चटा दूंगा।
मैं भी सोच रहा था कि छेदी लाल ठीक ही कह रहा है,ये सरकार तो देशी आयुर्वेद दवाइयों के बजाय एलोपैथिक को बढ़ावा दे रही जबकि इस पार्टी वाले तो स्वदेशी पर जोर देने वाले रहे है। वोट मैंने भी इनको ही दिया था। कहीं भूल कौन किस टेबल पर कर रहा है? सरकार सोच लें।

बहुत शानदार रचना,..बधाई आपको