Login    |    Register
Menu Close

हास्य-व्यंग्य: इक्कीसवीं सदी में सामाजिक दर्पण

समकालीन भारत में हास्य-व्यंग्य की पुनर्परिभाषा

इक्कीसवीं सदी में, जहां विश्व नित नवीन परिवर्तनों की गोद में खेल रहा है, वहीं हास्य-व्यंग्य की विधा ने भी अपने आवरण को नवीनतम रूप प्रदान किया है। यह विधा न केवल समाज के विसंगतियों का दर्पण है बल्कि यह जनमानस की अभिव्यक्तियों और हसरतों का थर्मामीटर भी है। हमारे समय के लोकतांत्रिक पाखंड और राजनीतिक छल-कपट को यह कौतुक और कुशलता से प्रस्तुत करता है, जिससे जनता के संघर्ष और दुखों को एक सुकूनदायक माध्यम मिल जाता है।

हास्य-व्यंग्य की इस नवीन परिभाषा में हमारी प्राचीन संस्कृति की गूँज सुनाई देती है। भारतीय दर्शन में जहां मृत्यु और दुःख को महत्वपूर्ण नहीं माना गया है, वहाँ हास्य व्यंग्य का तत्व मनुष्य को जीवन के सत्य से जोड़ता है। हमारे ऋषि-मुनियों ने ब्रह्म की संकल्पना को समाज के समक्ष रखा, जिसे सत्, चित् और आनंद के रूप में माना गया। ब्रह्म, जो सभी प्राणियों में आनंद के रूप में निवास करता है, उसकी लीलाएँ हमें यह सिखाती हैं कि जीवन को हल्के-फुल्के और खुशनुमा अंदाज में जीना चाहिए।

श्री कृष्ण की रासलीला, जहां वे गोपियों के साथ रास रचाते हैं, या श्री राम की होली और सावन के झूले, ये सभी उत्सव हमें यह दर्शाते हैं कि जीवन के प्रति एक सकारात्मक और आनंदमयी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इसी दृष्टिकोण को समर्थन देते हुए हास्य व्यंग्य ने अपनी जड़ें और गहराई से पकड़ी हैं और समाज को एक नई दिशा दिखाई है।

इस आधुनिक युग में, जब हम रोजमर्रा के तनाव और चुनौतियों से जूझ रहे हैं, हास्य व्यंग्य हमें यह अवसर देता है कि हम अपने दुखों को भूलकर, कुछ क्षण के लिए सही, खुलकर हँस सकें और जीवन के सुखद पहलुओं का आनंद उठा सकें। इस प्रकार हास्य व्यंग्य के द्वारा, हम न केवल अपने आपको बल्कि अपने समाज को भी एक नई ऊर्जा और नई सोच प्रदान करते हैं, जो कि आधुनिक समय की मांग है।

#हास्यव्यंग्य #सामाजिकदर्पण #आधुनिकभारत #जीवनदर्शन #सांस्कृतिकपरंपरा #आनंदकीअनुभूति #इक्कीसवींसदी #लोकतांत्रिकव्यंग्य

#सामाजिकयोगदान #व्यंग्यकला

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *