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वाह भाई वाह -कविता -हास्य व्यंग्य

ट्रैफिक जाम, गड्ढों भरी सड़क, निराश चेहरे, स्कूल फीस से परेशान अभिभावक और "वाह भाई वाह" का बोर्ड लिए खड़ा आम नागरिक।

वाह भाई वाह –

सड़कों पर गड्ढे ,दारु के अड्डे , बैठे निठल्ले ,सन्डे हो या मंडे

जेबें खाली, सपने खयाली ,महंगाई डायन खाये जाये साली ,

गली के छोरे ,निरे छिछोरे , मारें सीटी निकले आह

फिर भी दिल बोले , ‘वाह भाई वाह’।

ट्रैफिक जाम में फंसा आवाम , महंगाई की मार ,बहरी सरकार ,

चाय भी भी नसीब नहीं, कोई तो करीब नहीं ,

ऑफिस की रेलमपेल ,घर बनी जेल,जीने की नहीं रही चाह,

फिर भी दिल बोले , ‘वाह भाई वाह’।

स्कूल की महंगी फीस ,पेरेंट्स की निकली टीस ,

खेलों में नबाब इनके रिजल्ट खराब

पढ़ाई का बोझ,होमवर्क रोज , बच्चों पर संकट अथाह

फिर भी दिल बोले , ‘वाह भाई वाह’।

खोखली बातें , बेचैनी में कटी रातें ,

उजड़ते गाँव,उजड़ी पीपल की छाँव ,

फूटी नहीं कोडी,भूख निगोड़ी ,कठिन पनघट की राह ।

फिर भी दिल बोले , ‘वाह भाई वाह’।

रिश्ते हुए दूर,सब अपने में मगरूर

सीमित राहें , ‘असीमित’ चाहें ,

रोटी के जुगाड़ में,रिश्तों की आड़ में सब कुछ हुआ तबाह

फिर भी दिल बोले , ‘वाह भाई वाह’।

रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित

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