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गिरने में क्या हर्ज़ है-किताब समीक्षा-प्रभात गोश्वामी

A book cover of "गिरने में क्या हर्ज़ है" held in soft daylight, with an expressive image symbolizing satire, and a pen beside it. Background shows a desk, signifying literary thought and critique.

वर्तमान व्यंग्य परिदृश्य में उम्मीद की रोशनी बहुत कम दिखाई पड़ रही है। ऐसा अक्सर सुनने में आ रहा है। समकालीन व्यंग्य का यह दुर्भाग्य भी है कि उसे न मार्गदर्शक मिल रहे हैं न ही अच्छे पाठक मिल पा रहे हैं। आलोचना के नाम पर अधिकतर संबंधों का निर्वाह दिखाई पड़ता है। ऐसे में यदि कोई थोड़ी – सी उम्मीद भी जगाने में कामयाब होता है तो गहरा सुकून मिलता है।
आज की युवा पीढ़ी के व्यंग्यकारों में एक नाम जो संभावनाओं के द्वार खोलने में थोड़ा – सा कामयाब हुआ है तो वह है, डॉ मुकेश गर्ग असीमित का । जो राजस्थान के गंगापुर सिटी जैसे तुलनात्मक छोटे शहर में विसंगतियों की बड़ी पड़ताल कर सके,राष्ट्रीय फलक की विसंगतियों का छिद्रान्वेषण कर सके तो वह आने वाले कल की धूप का एक टुकड़ा लेकर कुछ तो पथ रोशन करेगा। इसकी उम्मीद की जानी चाहिए। पेशे से चिकित्सक,मन से व्यंग्यकार डॉ मुकेश का पहला व्यंग्य संग्रह – गिरने में क्या हर्ज़ है,व्यंग्य जगत में लोगों का ध्यानाकर्षण कर रहा है। भाषा की रवानगी, विसंगतियों की पहचान कर पड़ताल करने में उनका चिकित्सक मस्तिष्क भी मददगार होता है। ऐसा उनकी रचनाएं पढ़कर प्रतीत होता है। आज के माहौल में कहानी,कविता या कथेतर के मुकाबलेव्यंग्य के साथ व्यवस्था की वक्र दृष्टि बनी रहती है। व्यवस्था की नजरों में आज व्यंग्यकार का वह सम्मान नहीं जो कभी हुआ करता था । चाहे हम लिखकर कितना ही इतरा लें, पुरस्कार भी पालें । ऐसी चुनौतियों और विपरीत माहौल के बीच व्यंग्य रचना भी एक विशिष्ट उपलब्धि है।


गिरने में क्या हर्ज है’ डाक्टर मुकेश ‘असीमित’ जी का पहला व्यंग्य संग्रह है । इस संग्रह में परिपक्वता दिखाई देती है। पहले संग्रह के हिसाब से देखा जाए तो विषय की विविधता भी दिखाई देती है।
व्यंग्य के साथ हास्य का सम्मिश्रण भी संतुलित है। कुछ पंच भी अच्छे हैं।
व्यंग्यकार के लिए सूक्ष्म दृष्टि की जरूरत होती है । साथ ही अपने इर्दगिर्द के माहौल का सूक्ष्म पर्यवेक्षण की समझ उसे बेहतर बनाती है । पुस्तक की ‘गिरने में क्या हर्ज है” के व्यंग्य वर्तमान दौर की विसंगतियों की पड़ताल के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की परतें भी उघाड़ती है। शीर्षक व्यंग्य आर्थिक परिदृश्य पर गहरी चोट करता है । इनके व्यंग्य में वर्तमान दौर की विडंबनाओं, भ्रष्टाचार,स्वास्थ्य, साहित्य सहित अनेक विषय हैं। मुकेश गर्ग में असीमित संभावनाएं हैं। यदि थोड़ा धैर्य ,संयम के साथ चिंतन करें तो आने वाले कल के पटल पर डॉ मुकेश गर्ग असीमित का नाम भी देखा जा सकेगा। छपने की अधीरता से इतर बेहतर लिखने की ललक आज की महती आवश्यकता है। यह लेखक को तय करना है कि उसे हर रोज पाठकों की आंखों के सामने से गुजरना है अथवा उनके दिलों में गहरे तक उतरना है। मुकेश गर्ग असीमित को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
प्रभात गोस्वामी, व्यंग्यकार,जयपुर।

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