वैचारिक आज़ादी और हिंदी की अस्मिता
1947 की स्वतंत्रता ने हमें शासन और ज़मीन पर अधिकार लौटाया, मगर क्या हमारी आत्मा भी मुक्त हुई? सच यह है कि अंग्रेज़ी राज भले ख़त्म हो गया, अंग्रेज़ियत का मोह और अंग्रेज़ी भाषा की दासता अब भी हमारे मन-मस्तिष्क पर सवार है। घर-घर का दृश्य देखिए—माता-पिता मेहमानों के सामने गर्व से बताते हैं कि उनका बच्चा फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलता है, “गुड मॉर्निंग” से “गुड नाइट” तक सब कुछ चमक उठता है, पर वही बच्चा “नमस्ते, आप कैसे हैं” कहे तो आधुनिकता का ठप्पा मानो खो जाता है। यह मानसिक गुलामी ही तो है, जिसमें मातृभाषा को पीछे धकेल दिया गया और विदेशी भाषा प्रतिष्ठा की चाबी बना दी गई। आज़ादी के तुरंत बाद लालकिले से नेहरू जी का ऐतिहासिक भाषण “ट्रिस्ट विद डेस्टिनी” अंग्रेज़ी में हुआ—संयोग नहीं, संकेत था कि सत्ता के गलियारों में वही भाषा “उच्च” मानी जाएगी। संविधान का प्रारूप भी अंग्रेज़ी में—“इंडिया दैट इज़ भारत”—जैसे भारत नाम पर परिशिष्ट का मुहर लगा दी गई हो। अंग्रेज़ गए, पर सोच पर उनका साया बना रहा; इसलिए आज हमें दूसरी किस्म की मुक्ति चाहिए—आज़ादी पार्ट-टू—जो भाषा और संस्कृति को हीन भावना से मुक्त करे।
मातृभाषा माँ की तरह होती है; जिसमें बच्चा सबसे पहले मुस्कुराता, रोता, सपने बुनता है। हरिशंकर परसाई का व्यंग याद आता है—हिंदी दिवस पर हिंदीवाले, हिंदीवालों से कहते हैं कि हिंदी बोलिए। कटु सत्य यही है कि बड़े होते-होते हम माँ को भूलने जैसी भूल भाषा के साथ कर बैठते हैं—कॅरियर, चमक-दमक, विदेश-प्रवासी सपनों के बीच सबसे पहले मातृभाषा को त्याग देते हैं। मगर माँ को भूलने से माँ छोटी नहीं होती; हिंदी भी छोटी नहीं है—छोटे हम हो जाते हैं, जब अपने ही शब्दों से शर्माते हैं। मंचों पर लोग सफाई देते मिलते हैं—“माफ़ कीजिए, मेरी हिंदी कमज़ोर है”—और लोग वाह-वाह कर बैठते हैं। उलटा कहकर देखिए—“मेरी अंग्रेज़ी कमज़ोर है”—तो वही भीड़ आपको कम पढ़ा-लिखा ठहरा देती है। यही मानसिक गुलामी है, जिसमें सही-गलत का तराज़ू भाषा के आधार पर टेढ़ा कर दिया गया है। अंग्रेज़ी का उच्चारण बिगाड़ो तो फटकार, हिंदी का बिगाड़ो तो हँसी में टाल देना; यह दोहरा मानदंड बदलना होगा।
तथ्य साफ़ कहते हैं—हिंदी कमजोर नहीं, हमारी धारणा कमजोर है। 2011 की जनगणना में 53 करोड़ लोग हिंदी पढ़-लिख सकते थे; इंटरनेट पर हिंदी की बढ़ती मौजूदगी ने बाज़ार और मीडिया का नक्शा बदल दिया है। दुनिया में बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी तीसरे पायदान पर आती है—अंग्रेज़ी और मैंडरिन के बाद—यह कोई मामूली बात नहीं। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने “नारी शक्ति”, “अरे यार”, “ढाबा”, “चटनी”, “बासमती”, “घी” जैसे शब्दों को अपनाया; “अवतार” तो हॉलीवुड के पोस्टरों से लेकर गेमिंग तक में धूम मचा चुका है। यानी दुनिया सीखने को तैयार है, हम ही अपनी भाषा को लेकर संकोच में क्यों? सच्चाई यह है कि भाषा की ताक़त शब्द-सूची में नहीं, आत्मविश्वास में बसती है; जो समाज अपनी बोली में सोचता और सृजन करता है, वही दीर्घकाल में ज्ञान और बाजार दोनों पर छाप छोड़ता है।
फिर भी एक गंभीर चेतावनी समझनी होगी। ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के अध्ययन बताते हैं कि दुनिया की सात हज़ार भाषाओं में से लगभग पंद्रह सौ विलुप्ति के कगार पर हैं; भारत में भी छह सौ के करीब भाषाएँ ख़तरे में हैं—ज़्यादा तर आदिवासी और बंजारा समुदायों की। कोई भाषा खोना केवल शब्द खोना नहीं होता, वह एक पूरी लाइब्रेरी—इतिहास, गीत, रीति-रिवाज, औषध-ज्ञान, लोककला—का मिट जाना है। इसलिए भाषाई विविधता का संरक्षण और मातृभाषाओं का पुनर्सम्मान, दोनों साथ-साथ चलने चाहिए। हिंदी को ऊँचा दिखाने के नाम पर किसी अन्य भारतीय भाषा को नीचा दिखाना आत्मघाती है; हिंदी तब ही सचमुच अग्रणी बनेगी जब वह तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला, मराठी, असमिया और उर्दू के प्रति आदर और जिज्ञासा का पुल बनेगी। यही भारतीयता का सार है—समावेश का सौंदर्य।
लोकप्रिय संस्कृति में भी यह पुल दिखाई देता है। नीरज चोपड़ा का वह सादा-सा आग्रह—“हिंदी में सवाल कीजिए”—दरअसल आत्मविश्वास का बयान था। हैरत है कि जिन फ़िल्मी सितारों की रोज़ी-रोटी हिंदी की ऑडियंस से चलती है, वे इंटरव्यू अंग्रेज़ी में चाहते हैं; जबकि दर्शक हिंदी में ही उन्हें दिल देते हैं। कंटेंट-इंडस्ट्री में देवनागरी का आग्रह महज़ भावुकता नहीं, बल्कि उच्चारण और भाव-सटीकता का प्रश्न है; रोमन-हिंदी में “ड़/ढ़/ण/ल़” जैसी सूक्ष्मताएँ खो जाती हैं, अभिनय और वॉइसओवर का स्वाद फीका पड़ जाता है। डिजिटल युग में हिंदी UI, चैटबॉट, ASR/TTS, और टेक्स्ट-टूल्स पर जितना निवेश बढ़ेगा, रोजगार और उद्यम के नए दरवाज़े खुलेंगे; यही “हिंदी को फैशनेबल” बनाने का व्यावहारिक रास्ता है।
हमें यह भी मानना होगा कि “अंग्रेज़ी बनाम हिंदी” कोई युद्ध नहीं, बल्कि “अंग्रेज़ी के साथ हिंदी” वाला संतुलन है। अंग्रेज़ी सीखिए—दुनिया से जुड़ने का माध्यम है—पर सोच अपनी भाषा में रखिए। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में, माध्यमिक/उच्च शिक्षा में द्विभाषिक पुल—अवधारणा हिंदी में, तकनीकी पद जहाँ ज़रूरी हों वहीं मूल रूप में—यह मॉडल सबसे उपयोगी है। अदालतों और प्रशासन में नागरिक को उसके अधिकार और आदेश उसकी भाषा में मिलें; अनुवाद-प्रणालियाँ मजबूत हों; और पीठ गठन में क्षेत्रीय भाषा का ध्यान रखा जाए। बाज़ार ने संदेश दे दिया है—ग्राहक की भाषा वही है जिसमें वह हँसता-खरीदता है—तो विज्ञापन, ऐप, सपोर्ट और प्रशिक्षण में हिंदी का स्थान स्वाभाविक रूप से बढ़ाइए। घरों में “कखग” को उतनी ही आत्मीयता दीजिए जितनी “ABCD” को; “सुप्रभात” और “शुभरात्रि” को उसी स्नेह से बोलिए, जैसे “गुड मॉर्निंग/नाइट” को।
आज जब सम्पूर्ण विश्व हिंदी दिवस मन रहा है ,हमें स्मृति में रहना चाहिए कि आज़ादी केवल सत्ता-परिवर्तन नहीं, चेतना का रूपांतरण है। “आज़ादी पार्ट-टू” का अर्थ है—हीन भावना की जंजीरें तोड़ना, मातृभाषा के गौरव को जीवन में वापस लाना, और ज्ञान-विज्ञान, बाज़ार, न्याय और तकनीक—हर क्षेत्र में हिंदी को आत्मविश्वास के साथ जगह देना। अंग्रेज़ी जानना उपलब्धि है, पर हिंदी जानना अस्तित्व है। जिस दिन हम अपनी भाषा में बोलते हुए गर्व महसूस करेंगे, उस दिन सचमुच आज़ाद कहलाएँगे—देश से नहीं, अपने भीतर से।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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