हिंदी: उद्भव, विकास और “भाषा” की मनुष्यता –भाग 1
भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का औज़ार नहीं; यह मनुष्य होने की मूल शर्त है। जीव-जगत में अनेक प्रजातियाँ संकेत देती हैं—तोता असंख्य ध्वनियाँ बोल लेता है, बंदर एक आवाज़ में पूरा वाक्य सुना देते हैं—पर मनुष्य की भाषा “विविक्त” (discrete) है: कुछ दर्जन ध्वनियों से करोड़ों शब्द, और उनसे खरबों वाक्य! यही लचीलेपन ने होमो सेपियंस को अन्य प्रजातियों पर बढ़त दी। भाषा ने हमें कहानी गढ़ने, कल्पना बाँटने और विराट सहयोग रचने की क्षमता दी—यही वह “संज्ञानात्मक क्रांति” है जिसने इतिहास बदल दिया। इसलिए भाषा पर विमर्श दुनिया का “हल्का” नहीं, सबसे गंभीर सवाल है।
अब हिंदी पर आएँ। संस्कृत को आप हमारी “परनानी” मानिए—उससे प्राकृतें निकलीं, उनसे अपभ्रंश और फिर नवीन भारोपीय भाषाएँ: हिंदी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, बांग्ला, ओड़िया, असमिया आदि। दक्षिण में द्रविड़ भाषाओं (तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम) के साथ भी संस्कृत का गहरा आदान-प्रदान रहा—आज भी उन भाषाओं में संस्कृत-तत्व ठोस रूप से मिलते हैं। हिंदी विशेषतः खड़ी बोली के आधार पर आधुनिक गद्य/काव्य की भाषा बनी; साथ ही ब्रज, अवधी, बुंदेली, मैथिली, मगही, वज्जिका, मारवाड़ी आदि बोली-संसार ने इसे रस, शब्द-संपदा और मुहावरे दिए। उर्दू के साथ इसका सहजीवी रिश्ता है—व्याकरण एक (खड़ी बोली), लिपियाँ भिन्न, शब्द-स्रोतों का अनुपात अलग; यही संगति गंगा-जमुनी धारा का सौंदर्य रचती है। शुद्धतावाद का आग्रह भाषा को निर्जन टापू पर ले जाता है; संकरता ही भाषिक स्फूर्ति है।
“हिंदी का अस्तित्व संकट में है”—यह कथन आँकड़ों की रोशनी में कमज़ोर पड़ता है। 1991 से 2011 तक भारत में प्रथम-भाषा के रूप में हिंदी बोलने वालों का प्रतिशत बढ़ा है; जनगणना-आधारित अनुमान बताते हैं कि आज भी मातृभाषा-समुदाय के रूप में हिंदी विश्व की शीर्ष तीन भाषाओं में है। 7000+ भाषाओं की दुनिया में यह पैमाना छोटा नहीं। अतः सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन, दैनिक बोलचाल और मनोरंजन की भाषा के रूप में हिंदी मज़बूत है। चुनौती वहाँ है जहाँ “नौकरी, न्याय, ज्ञान और नीति”—यानी शासकीय/शैक्षिक/वैज्ञानिक भाषिक ढाँचे—इतिहासगत उपनिवेशवाद के कारण अंग्रेज़ी-प्रधान हैं।
यहाँ एक ज़रूरी भेद समझिए: “आत्मा की भाषा” और “ज्ञान की भाषा” एक हो भी सकती हैं, नहीं भी। अपनी भाषा में हँसी सच्चे ठहाके बनती है; जटिल अवधारणाएँ कभी-कभी उस भाषा में सहज होती हैं जिसमें टेक्निकल शब्दावली उपलब्ध हो। समाधान क्या? मातृभाषा-आधारित बुनियादी शिक्षा, और उच्च-स्तर पर “द्विभाषिक पुल”—अर्थात अवधारणा अपनी भाषा में, प्राविधिक पद जहाँ ज़रूरी हों, वहीं मूल रूप में। देवनागरी में “CT Scan”, “Insulin”, “Microbiology” लिखना किसी वैज्ञानिकता का अपमान नहीं; सबसे कठिन कड़ी शब्दावली नहीं, वाक्य-विन्यास (syntax) होता है—वह हिंदी का रहेगा तो सीखना तेज़ और गहरा होगा।
हिंदी का स्वाभिमान “दूसरों से नफरत” से नहीं आएगा। तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला—सब हमारी भाषाई रिश्तेदारी की विस्तृत परिधि हैं। त्रिभाषा-फ़ॉर्मूला का असली भाव भी यही था: हम अपनी के साथ किसी एक अन्य भारतीय भाषा सीखें; संवाद के पुल बनाएँ। दक्षिण/उत्तर-पूर्व में आप चार वाक्य उनकी भाषा में बोल दीजिए—वहीं से हिंदी के प्रति सद्भाव दुगुना लौटता है। लोकतंत्र में भाषा का प्रसार सहमति और आकर्षण से होता है, दबाव से नहीं।
हिंदी-दिवस पर भावुक उपमाओं—“माथे की बिंदी”—से आगे बढ़ने का वक्त है। संविधान-निर्माण की बहसों में हिंदी को राजभाषा, देवनागरी को लिपि और अंकों के अंतरराष्ट्रीय रूप पर सहमति “ध्वनि-मत” से बनी; “एक वोट से हिंदी जीती” जैसी बातें मिथ हैं। सीख यही: संस्थागत निर्णय संवाद से पके थे; आज भी हमें वैसा ही संयत, तथ्य-आधारित विमर्श चाहिए—कॉलेज के पाठ्यक्रम से लेकर अदालत की भाषा तक। हिंदी की स्थिति “द टेंपेस्ट” की मिरांडा जैसी नहीं होनी चाहिए—योग्य होकर भी आत्म-संशय में घिरी हुई। अपनी शक्ति पहचानिए: इतिहास, जनसंख्या और संस्कृति हिंदी के पक्ष में हैं; बस ढाँचे को अपनी ओर मोड़ना है—टकराव से नहीं, तर्क और निर्माण से।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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